अलविदा मदीहा गौहर! याद रहेगा नाटकों से दुनिया बदलने का जुनून!

आनंद स्वरूप वर्मा
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19 जनवरी, 2013 की वह शाम अक्सर यादों में कौंध जाती है जब दिल्ली के अक्षरा थिएटर में पाकिस्तान के ‘अजोका थिएटर ग्रुप’ के कलाकारों ने मंटो की जिंदगी पर आधारित नाटक ‘कौन है यह गुस्ताख’ का मंचन किया था। महज दो दिन पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के भारत रंग महोत्सव में पाकिस्तान के इस नाट्य समूह को निमंत्रित करने के बावजूद भाग लेने से रोक दिया गया था क्योंकि कुछ हिंदुत्ववादी संगठन नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान के किसी समूह की इसमें भागीदारी हो। दिल्ली के कुछ धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक और अमनपसंद लोगों के प्रयास से इसका मंचन संभव हो सका और मंचन के बाद अजोका थिएटर की कर्ताधर्ता मदीहा गौहर यहां की जनता के प्रति आभार व्यक्त करते समय बेहद खुश नजर आ रही थीं।

यह नाटक भी ऐसा था जिसमें महान रचनाकार सआदत हसन मंटो की जिंदगी के दर्दनाक सफर को बेहद कलात्मक अंदाज में दर्शकों तक पहुंचाया गया था। मंटो की शख्सियत ऐसी थी कि वह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के नागरिक माने जाते थे। उस दिन समूचा हॉल विभाजन के हादसे को तल्खी के साथ महसूस कर रहा था और पृष्ठभूमि में ‘कौन सुने फरियाद…’गाने के मद्धम बोल इस दर्द के एहसास में और भी इजाफा कर रहे थे। शाहिद नदीम की स्क्रिप्ट में मंटो की ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘टोबाटेक सिंह’ जैसी कहानियों और मंटो की जिंदगी के अनेक प्रसंगों को लेकर एक ऐसा संसार रचा गया था जिसमें इस रचनाकार को और उसके संघर्ष को समग्र रूप से देखा और समझा जा सकता था। इस नाटक के जरिए उस दिन सचमुच अजोका की निर्देशक मदीहा गौहर ने दिल्ली के दर्शकों के दिल में एक स्थायी जगह बना ली।

मदीहा गौहर अब नहीं रहीं। 25 अप्रैल, 2018 को 61 वर्ष की उम्र में तीन वर्षों से कैंसर से जूझते हुए उन्होंने लाहौर में अंतिम सांस ली।

अब से तकरीबन तीस साल पहले मदीहा और उनके पति शाहिद ने 1984 में उस समय अजोका थिएटर की नींव रखी जब जनरल जियाउल हक की दमनकारी सत्ता अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों पर अंकुश लगा चुकी थी। अपने इस थिएटर ग्रुप के जरिए मदीहा ने दहेज प्रथा, ऑनर किलिंग, पुरुषों और महिलाओं में भेदभाव करने वाले कानूनों आदि को अपने नाटक का विषय बनाया। 1956 में जन्मी मदीहा ने पहली बार अनवर सज्जाद के टी.वी. सीरियल ‘जंजीर’ में अभिनय किया था। तब उनकी उम्र 17 साल थी। गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करने के बाद मदीहा ने सरकारी महिला कालेज में अध्यापन शुरू किया और ‘वीमेंस ऐक्शन फोरम’ नामक एक संगठन से जुड़कर सामाजिक मुद्दों पर संघर्ष की भी शुरुआत की। जियाउल हक की दमनकारी सत्ता के खिलाफ आंदोलन के दौरान मदीहा, उनकी बहन फरियाल, जानी मानी मानव अधिकारकर्मी असमा जहांगीर, हिना जिलानी, रूबीना सहगल आदि को अनेक मौकों पर लाठियां खानी पड़ीं और तरह-तरह का दमन झेलना पड़ा। मदीहा भी दो बार गिरफ्तार हुईं और उन्हें कोट लखपत जेल में रखा गया। सरकारी कॉलेज की नौकरी भी चली गई।

मदीहा गौहर से मेरी पहली मुलाकात जनवरी 2013 में हुई लेकिन उनसे परिचय बहुत पुराना था। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में मदीहा की मां खदीजा गौहर मेरे निवास पर आई थीं। यह उनसे मेरी दूसरी मुलाकात थी। इससे कुछ साल पहले दिल्ली में ही उनसे पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब वह गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में ठहरी हुई थीं। उनका बचपन दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन में बीता था और दक्षिण अफ्रीकी साहित्य पर उनसे जो पहली मुलाकात में ही लंबी बातचीत हुई उसने हम दोनों में एक तरह की घनिष्ठता पैदा कर दी। इस बार जब वह नोएडा आई थीं तो उन्होंने अपनी बेटी मदीहा और अजोका थिएटर के बारे में काफी कुछ बताया था और मुझसे कहा था कि जब भी मौका मिले मैं उसे देखूं। खदीजा गौहर समाजवादी विचारों की और बेहद साहित्यिक रुचि से संपन्न महिला थीं।

अपनी इस मुलाकात में उन्होंने कुछ ही समय पूर्व प्रकाशित अपना उपन्यास ‘दि कमिंग सीजंस यील्ड’ (उर्दू में ‘उम्मीदों की फसल’) मुझे भेंट किया। 384 पृष्ठों का यह उपन्यास विभाजन के समय विस्थापित लोगों के संघर्ष की दुखद गाथा है। इस उपन्यास की लंबी समीक्षा दिवंगत रामकृष्ण पांडेय ने ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के लिए की जो पत्रिका के जून 1998 के अंक में प्रकाशित हुई। इस समीक्षा के अंतिम पैराग्राफ को पढ़ने से इस उपन्यास की एक झलक पाई जा सकती हैः ‘‘लेखिका ने अपना उपन्यास एक अजीब सन्नाटे की स्थिति में असमाप्त किया है। खेतों में आंदोलन की तख्तियां फसलों की तरह लगी हुई हैं जिन पर लिखा है ‘जोतने वाला खाएगा’ पर आंदोलन का कोई जज्बा नहीं, सिर्फ सन्नाटा है। सशस्त्र पुलिस के भारी पहरे में जब कर्नल आगा अपने बूटों की ठोकरें उन्हें मारता हुआ ठहाके लगाता है तो खेतों पर छाए सन्नाटे में उसके ठहाके गूंजने लगते हैं। क्या यह सन्नाटा तूफान के पहले का सन्नाटा है अथवा सेना के आतंक में सहमे-छिटके पाकिस्तानी लोकतंत्र का परिचायक जहां लोग खुलकर बोल भी नहीं सकते ?’’

खदीजा गौहर से कुछ ही समय बाद मेरी फिर भेंट हुई और इस बार उन्होंने मेरी बेटी के लिए कुछ कपड़े और हम लोगों के लिए खासतौर पर पख्तून से लाए गए ड्राई फ्रूट दिए। यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। जुलाई 2003 में 75 वर्ष की आयु में  लाहौर में उनका निधन हो गया। वह जब तक जीवित रहीं बाल्टिस्तान के इलाके में गरीब और बेसहारा महिलाओं और बच्चों के लिए काम करती रहीं।

19 जनवरी, 2013 को अक्षरा थिएटर में नाटक समाप्त होने के बाद हमारे मित्र और नाट्यकर्मी अरविंद गौड़ बड़ी तेजी से मेरी ओर आए और मुझे लेकर मदीहा के पास गए। मैं अपने साथ ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ का वह अंक लेकर गया था जो उनकी मां तक तो नहीं पहुंच सका लेकिन मैं चाहता था कि कम से कम उनके घर तक पहुंच जाए। मैंने वह अंक दिया और मदीहा गौहर के साथ उनकी मरहूम मां के बारे में बातचीत हुई। अनेक मौकों पर मदीहा ने अपनी भेंट वार्ताओं में अपनी मां का जिक्र किया है और कहा है कि एक धर्मनिरपेक्ष, न्यायपूर्ण और समाजवादी समाज के लिए संघर्ष का नजरिया और जज्बा उन्हें अपनी मां खदीजा गौहर से विरासत में मिला।

मदीहा ने अपने थिएटर ग्रुप की ओर से जिस पहले नाटक का मंचन किया वह था बादल सरकार का ‘जुलूस’। उन दिनों पाकिस्तान सरकार हर स्क्रिप्ट की बाकायदा छानबीन करती थी और तब उसके मंचन की अनुमति देती थी। मदीहा ने इसकी अनुमति नहीं ली थी लिहाजा सार्वजनिक तौर पर इसका प्रदर्शन संभव नहीं था। यही वजह थी कि उनके इस पहले नाटक का मंचन लाहौर के कैंटोनमेंट एरिया में मां खदीजा गौहर के लॉन में संभव हो सका। जिन दिनों मदीहा लंदन में पढ़ रही थीं उनकी मुलाकात शाहिद नदीम से हुई जो ट्रेड यूनियन के मोर्चे पर सक्रिय थे और पाकिस्तान की जेल में सजा काटने के बाद लंदन आकर रह रहे थे। पाकिस्तान में जब वह गिरफ्तार किए गए उन दिनों पाकिस्तान टीवी (पीटीवी) में प्रोड्यूसर थे और डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाते थे। आगे चलकर मदीहा और शाहिद वैवाहिक बंधन में बंध गए। 1987 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर अजोका थिएटर ने ‘बारी’ नामक जो नाटक प्रस्तुत किया वह इस्लामिक कानूनों और पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट पहुंचाने वाला नाटक था। इसे शाहिद नदीम ने ही लिखा था। उनके लिखे एक दूसरे नाटक ‘मरा हुआ कुत्ता’ का भी उन्हीं दिनों इस ग्रुप ने मंचन किया। मदीहा के अधिकांश नाटक पंजाबी में हैं लेकिन उर्दू में शाहिद नदीम द्वारा ही लिखा गया नाटक‘एक थी नानी’ को भारत में काफी चर्चा मिली। यह नाटक दो पात्रों और बहनों जोहरा सहगल और उजरा बट्ट के वास्तविक जीवन पर आधारित है जो विभाजन के दौरान बिछुड़ गई थीं। जोहरा भारत में रह गईं और उजरा पाकिस्तान चली गईं। इसका पहली बार 1993 में मंचन हुआ और इसे लोगों ने काफी पसंद किया। हैरानी की बात यह है कि उत्तर भारत के अलावा दक्षिण भारत के भी शहरों में इसे बहुत सराहा गया जबकि दक्षिण भारत के लोग विभाजन की त्रासदी के दर्द से अछूते माने जाते हैं।

दिसंबर 2008 में केरल संगीत नाटक अकादमी के निमंत्रण पर अजोका थियेटर की 16-सदस्यीय टीम ‘इंटरनेशनल थियेटर फेस्टिवल ऑफ केरल’ में भाग लेने त्रिसूर पहुंची और महान सूफी संत कवि बुल्ले शाह के जीवन पर आधारित नाटक ‘बुल्ला’का मंचन किया। मुंबई हमलों के बाद पाकिस्तान से भारत आने वाली यह पहली सांस्कृतिक टीम थी और लोगों ने इसे काफी सराहा। यह नाटक और इसका भाईचारा का संदेश अत्यंत लोकप्रिय हुआ हालांकि उस दिन सवेरे भारतीय जनता पार्टी के कुछ लोगों ने वहां प्रदर्शन किया और मांग की कि मुम्बई के हमलावरों को पाकिस्तान सौंपे। लेकिन शाम को वे लोग नाटक देखने भी आए।

‘काला कानून’, ‘गली के बच्चे’, ‘काली घटा’, ‘भोला’, ‘अंधी मां का सपना’, ‘लो, फिर बसंत आया’ जैसे अनेक नाटकों के जरिए अजोका ने न केवल समाज की बुराइयों पर चोट की है बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांतिपूर्ण संबंध स्थापित करने को ध्यान में रखते हुए देश के अनेक थिएटर समूहों को भी अपने साथ जोड़ा है।

मदीहा के न होने से इस उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक जगत में जो खालीपन आया है उससे मुक्त होने में समय लगेगा।

 

आनंद स्वरूप वर्मा प्रख्यात पत्रकार और मीडिया विजिल सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।