यह झूठ है कि मस्तिष्क का बायाँ हिस्सा गणित सिखाता है और दायाँ कविता !


वाम-दक्षिण मस्तिष्क का अतिसरलीकरण उतना ही झूठा वाक्य है , जितना यह कि मैं अपनी मेहनत-मात्र से डाॅक्टर बन गया।


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डॉ.स्कन्द शुक्ल

झूठ जो सरल और सुन्दर होते हैं, मारे नहीं मरते।

तुम ठुमरी गाते हो या कविता करते हो ? या चित्रकार हो ? तब तुम दाहिने मस्तिष्क के व्यक्ति हो। और तुम विज्ञान-शोधक हो ? गणितज्ञ हो ? तो तुम्हारा बायाँ मस्तिष्क तुम्हें संचालित करता है !

इस तरह के भ्रामक प्रचारों का आरम्भ सन् साठ के दशक में हुआ, जब स्प्लिट ब्रेन-एक्सपेरिमेंट किये गये। यानी बाएँ और दाहिने सेरिब्रल गोलार्धों का अलग-अलग करके उनके द्वारा संचालित कार्यों का अध्ययन किया गया।

बताना ज़रूरी है कि मस्तिष्क के अखरोटनुमा दोनों गोलार्धों को जोड़ने वाले तन्त्रिका-तन्तु काॅर्पस कैलोसम कहलाते हैं। ऐसे में जिन परिस्थितियों में काॅर्पस कैलोसम अविकसित या कटा हुआ हो या काटना पड़ा हो — उन लोगों में मस्तिष्क कैसे काम करेगा , यह महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

फिर जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होता गया, न्यूरोलॉजी में मस्तिष्क-सम्बन्धी नये शोध सामने आने लगे। नतीजन आज आप किसी भी न्यूरोलाजिस्ट या साइकियाट्रिस्ट से दाएँ-बाएँ दिमाग की बात करेंगे , तो वह हँस कर यही कहेगा कि भाई , आप अतिसरलीकरण में चीजों का वर्गीकरण कर रहे हैं।

कविता क्या बिना भाषा के ज्ञान के , सिर्फ़ भावों से कोई लिख सकता है ? क्या विज्ञान में नवीन शोध में किसी चित्रकारी या ग़ज़लकारी से कम सर्जना सम्मिलित है ?

सच तो यह है कि मौलिक कुछ भी —- सैद्धान्तिक हो या क्रियान्वित , कलाकारी ही है, सर्जना ही है। बिना कला के कुछ भी रचा जा ही नहीं सकता। विज्ञान जिसे बच्चे स्कूल-काॅलेज में पढ़ते हैं, वह कला का ही स्थिर-घनीभूत स्वरूप है।

प्रकृति वर्षा है, मूर्धन्य वैज्ञानिक वर्षा में भीगता जल एकत्र कर रहा है। प्रशिक्षित विज्ञान वही एकत्रित वर्षा-जल है।

सो वाम-दक्षिण मस्तिष्क का अतिसरलीकरण उतना ही झूठा वाक्य है , जितना यह कि मैं अपनी मेहनत-मात्र से डाॅक्टर बन गया।

वाम मस्तिष्क और दक्षिण मस्तिष्क मिलकर लियोनार्डो को लियोनार्डो और टैगोर को टैगोर बनाते हैं। मस्तिष्कार्ध से रिनैंसाँ न इटली में आता है और न बंगाल में।

एक उद्धरण है कि ‘एक बच्चे को बड़ा करने में पूरे गाँव या शहर को लगना पड़ता है’। यही बात मानव-शरीर के लिए भी सच है। कविता पूरा शरीर न करें , तो न हो। ग़ज़ल पूरा शरीर न गवाये, तो न गायी जाए। हिग्स-बोसाॅन पर काम पूरी देह न करे , तो कुछ सत्य सामने न आए।

यही बात मस्तिष्क के लिए भी है। दायाँ-बायाँ सुन्दर है, क्योंकि सरल है। सरलता से वर्गीकरण हो जाता है और हमें लुभाता है।

लेकिन सत्य को सौन्दर्य की परवाह नहीं।
उसे हमारे-आपके वर्गीकरण के कोई मतलब नहीं।
उसे सरल होने की कोई आवश्यकता नहीं आन पड़ी।

वह बस ‘है’..

हम उसे बेहतर समझेंगे, तो उसकी तहें खुलती जाएँगी।

( पुनश्च : आपने इस पोस्ट को पढ़ने में अपने बाएँ और दाहिने , दोनों ओर के मस्तिष्क का प्रयोग किया है — यह एकदम सच्ची बात है। मैंने लिखने में भी।)

(पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। लखनऊ में रहते हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।)