”एक नक्सलवादी की जेल डायरी” के इंक़लाबी लेखक कॉमरेड रामचंद्र सिंह को याद करते हुए…

आनंद स्वरूप वर्मा
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कॉमरेड रामचंद्र सिंह नहीं रहे. 2 फरवरी की रात में दिमाग की नस फट जाने से उनका निधन हो गया. उत्तर प्रदेश में नक्सलवादी आन्दोलन से जुड़े रामचंद्र सिंह को 1970 में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था. उन पर एक बड़े भूस्वामी की हत्या (बखोरा काण्ड) तथा सशस्त्र क्रान्ति द्वारा सत्ता को उखाड़ फेंकने की साजिश (सफीपुर षड्यंत्र केस) जैसे गंभीर आरोप में आजीवन कारावास की सजा हुई थी.

उन्नाव जिले के बांगरमऊ के एक निम्न किसान परिवार में जन्मे कॉमरेड रामचंद्र को 13 वर्षों की कैद के दौरान हरदोई, उन्नाव, नैनी, फतेहगढ़, लखनऊ और फैजाबाद की जेलों में रखा गया. 29 सितम्बर 1983 को उन्हें फैजाबाद जेल से रिहा किया गया. जेल जीवन की भीषण यंत्रणा भी इस कॉमरेड की प्रतिबद्धता को नहीं डिगा पायी और अपने जीवन के अंतिम समय तक वह लेखन और क्रांतिकारी राजनीति से जुड़े रहे. काफी समय तक वह सीपीआईएमएल (जनशक्ति) के साथ रहे और पिछले नौ वर्षों से वह सीपीएमएल (रेड स्टार) के किसान मोर्चे से जुड़े थे. 2010 में पार्टी की भुवनेश्वर कांग्रेस में उन्हें केन्द्रीय समिति के लिए चुना गया था.

जेल से बाहर आने के बाद कॉमरेड रामचंद्र सिंह ने राजनीतिक कर्म के साथ लेखन पर काफी ध्यान दिया. वह अत्यंत प्रतिभाशाली लेखक थे और उनकी अद्भुत विश्लेषण क्षमता थी. मेरी उनसे पहली बार मुलाक़ात 1984 में हुई जिन दिनों मैं लखनऊ में साप्ताहिक सहारा का सम्पादक था. मेरे विशेष आग्रह पर उन्होंने जेल में गुजारे गए दिनों का विवरण लिखना शुरू किया जिसे हमने 22 किस्तों में धारावाहिक प्रकाशित किया.

दरअसल जेल जीवन के दौरान ही वह चोरी छुपे नोट्स लिया करते थे जिन्हें उन्होंने अखबार के लिए एक व्यवस्थित रूप दिया था. ‘उम्र क़ैद के सीखचों से : एक नक्सलवादी की जेल डायरी’ शीर्षक यह संस्मरण बहुत पढ़ा गया. भारतीय जेलों की अत्यंत क्रूर व्यवस्था का यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. इसका अंग्रेजी में पुस्तकाकार संस्करण इसी वर्ष अप्रैल में नवयान पब्लिकेशन्स से आ रहा है जिसकी भूमिका कालों के अधिकारों के लिए संघर्षरत एंजिला डेविस ने लिखा है.

कॉमरेड रामचंद्र से मेरी फोन पर लम्बी बातचीत महज दो दिन पूर्व हुई थी. दो-तीन वर्ष पूर्व एक गंभीर दुर्घटना की वजह से उन्हें चलने-फिरने में दिक्कत होती थी लेकिन उनकी जिजीविषा और युयुत्सा में तनिक भी कमी नहीं आयी थी. अपनी डायरी में जेल से रिहा होने के बाद अपनी मां से मिलने का विवरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा:

”रिहाई के बाद सबसे पहले मैं कानपुर पहुंचा. मां वहीं थी. रात के समय मैंने चारपाई पर लेटी रुग्ण मां को आवाज दी. वह हडबडा कर उठ बैठी. कुछ क्षणों तक गुमसुम रही. फिर स्वर सुनते ही उन्होंने मुझे गोद में भर लिया. मेरी आँखों में सम्पूर्ण अतीत की एक धुंधली रेखा कौंध गयी. क्या ऐसे क्षण को, किसी मां के हर्ष, विस्मय और ममता के अपूर्व संवेग को दुनिया की कोई भाषा पूर्ण रूप से व्यक्त कर सकती है? मैं अब अपनी मां के निकट था. किन्तु यह मां के दुःख-दर्दों का अंत नहीं था. हमारे देश की तमाम मांओं के दुःख-दर्दों का तब तक अंत नहीं होगा जब तक प्यारा भारत देश शोषण, उत्पीडन, भूख और पीड़ा की खूनी व्यवस्था के चंगुल में जकड़ा रहेगा. जब तक हम क्रांति के गर्भ से पैदा शोषण विहीन समाज की सुनहरी किरणे इन माताओं के आँचल में नहीं भर देते, तब तक देश की अनगिनत माताओं के दुःख दर्दों का अंत नहीं है. इस अंत के लिए भारत मां की कोटि कोटि बेटे क्रांति पथ पर अविचल और अडिग हैं. वह मशाल जल रही है जो भगत सिंह ने जलायी थी. वह जलती रहेगी जब तक शोषण विहीन समाज की रचना नहीं होती…!”

अलविदा कॉमरेड रामचंद्र सिंह. आपको लाल सलाम.


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, तीसरी दुनिया के मामलों के जानकार हैं और मीडियाविजिल के सलाहकार संपादक हैं