
उत्तर प्रदेश के ‘समाजवादी’ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के एम.डी विनीत जैन को देखकर सुल्ताना डाकू की याद क्यों आई ? क्या 16 महीने के रिकॉर्ड समय में तैयार हुई ग्रेटर नोएडा की बेनेट युनवर्सिटी को वे वाक़ई ‘कॉरपोरेट दुकान’ मानते हैं जहाँ बड़े पैमाने पर शिक्षा की ख़रीद फ़रोख़्त होगी। क्या उन्होंने किसी किताब में डॉ.लोहिया का वह नारा पढ़ लिया है जिसमें कहा गया था कि ‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की सन्तान, सबको शिक्षा एक समान !”
क़िस्सा 21 अगस्त का है, जब लखनऊ के 5, कालीदास मार्ग यानी अपने आवास पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बैनेट युनिवर्सिटी का उद्घाटन किया। इस कार्यक्रम में यूपी के मुख्य सचिव दीपक सिंघन ने युनिवर्सिटी के चांसलर और टाइम्स ग्रुप के एमडी विनीत जैन का यूपी से पुराना रिश्ता बताते हुए उनके कुल को बिजनौर के नजीबाबाद से जोड़ा। जब बारी आई अखिलेश यादव की तो उन्होंने हँसते हुए कहा कि नजीबाबाद का ‘सुल्ताना’ भी था। किसी ने नीचे से आवाज़ लगाई कि पूरा नाम लीजिए लेकिन अखिलेश सुल्ताना के आगे ‘डाकू’ कहने से परहेज़ कर गये। वहाँ तमाम पत्रकार मौजूद थे और अखिलेश का यह तंज चर्चा का विषय बन गया।
तो क्या अखिलश की नज़र में बतौर पत्रकारिता संस्थान इस ग्रुप की कोई इज़्ज़त नहीं है ? टाइम्स ग्रुप को युनिवर्सिटी के लिए ग्रेटर नोएडा में बेशकीमती ज़मीन देने वाले अखिलेश http://www.achaten-suisse.com/ ने देखा है कि कैसे इस मेहरबानी के बाद अख़बार के सुर पूरी तरह बदल गये। जैसे-जैसे युनिवर्सिटी का काम बढ़ा, अख़बार सरकार के सामने बिछता चला गया। टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ संस्करण में तो प्रदेश सरकार के ख़िलाफ एक शब्द भी छपना कुफ़्र समझा जाने लगा। ख़ुद विनीत जैन ने ट्वीट करके अखिलेश यादव की तारीफ़ की और मुख्यमंत्री के तमाम ‘एवज़ी’ इंटरव्यू टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे। नतीजा, कभी सरकार का गिरहबान पकड़ने वाले इस अख़बार की पहचान सरकारी भोंपू की बन गई।
बहरहाल, विनीत जैन कुशल व्यापारी हैं। वे ऐलानिया बता चुके हैं कि उनका अखबार विज्ञापन के लिए छपता है। ख़बरें तो बीच की खाली जगह भरने के लिए होती हैं। यही वजह है कि टाइम्स ग्रुप, समाजवादी पार्टी के साथ-साथ बीजेपी को भी साधने में कोताही नहीं करता। बीजेपी और समाजवादी पार्टी की कोशिश यह बताने की है कि यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव में उनके बीच ही सीधा मुक़ाबला है और अख़बार इसी लाइन पर काम कर रहा है।
23 अगस्त को छपा लखनऊ एडिशन इसका सबूत है। पहले पन्ने पर ब्रजेश पाठक के बीएसपी छोड़ने की ख़बर को लीड बनाया गया है। ब्रजेश पाठक बीएसपी के मौजूदा विधायक और सांसद भी नहीं हैं और न ही संगठन में उनकी कोई ख़ास हैसियत रही है, लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया उन्हें पार्टी का ब्राह्मण चेहरा बताते हुए पहले पन्ने की लीड बनाता है जबकि आगरा में पाँच लाख लोगों की रैली करने वाली मायावती की ख़बर पेज नंबर चार पर औपचारिकता की तरह छापी जाती है। यह ‘संपादकीय विवेक’ ऐसा है जिस पर अखिलेश यादव और अमित शाह, दोनों शाबाशी देंगे।
वैसे, विनीत जैन की सुल्ताना डाकू से तुलना करना सरासर ग़लत है। लोकजीवन में सुल्ताना की छवि रॉबिनहुड सरीखे नायक की है जो अमीरों को लूटकर ग़रीबों में बाँट देता था। जबकि बेनेट युनवर्सिटी में ग़रीबों के लिए कोई जगह नहीं है। टाइम्स ग्रुप की चिंता में ग़रीब नहीं, अमीर और अमीरी ही है।
जनता के अपार समर्थन की वजह से अंग्रेज़ लंबे समय तक सुल्ताना को गिरफ़्तार नहीं कर सके थे। इसके लिए फ्रायड यंग नाम के एक पुलिस अधिकारी को लंदन से बुलाया गया था। यंग ने 300 जवानों के साथ महीनों की मेहनत के बाद 14 दिसंबर 1923 को नजीबाबाद के जंगल में सुल्ताना गिरफ्तार किया। बाद में सुल्ताना को फाँसी दे दी गई थी। टाइम्स ऑफ इंडिया तब भी छपता था और भारत में अंग्रेज़ी राज को ईश्वर का वरदान बताता रहता था।
वैसे पकड़े तो बेनेट एंड कोलमेन वाले भी गए हैं। 1946 में कंपनी खरीदने वाले कारोबारी रामकृष्ण डालमिया को हेराफेरी के जुर्म में दो साल तिहाड़ जेल में बिताने पड़े। उनके दामाद और कंपनी के सर्वेसर्वा शांति प्रसाद जैन न्यूज़प्रिंट की कालाबाज़ारी के मामले में जेल गए और उनके बेटे अशोक जैन (विनीत जैन और समीर जैन के पिता) पर मनी लांड्रिग का आरोप लगा। प्रवर्तन निदेशालय पीछे पड़ा तो वे विदेश भाग गए और कहा जाता है कि वहीं उनकी मृत्यु भी हो गई। बहरहाल, इस सबके बावजूद टाइम्स ग्रुप दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की करता रहा और आज वह देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी है।
टाइम्स की तुलना सुल्ताना से कैसे हो सकती है। उसे तो फाँसी लगी थी। नीचे देखिये, गिरफ़्तारी के बाद बेड़ियों में जकड़े सुल्ताना डाकू की एक दुर्लभ तस्वीर जो अमीरों को लूटता था और ग़रीबो में बाँटता था —
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