डमरूबाज़ अर्णव गोस्वामी को देख रहे हों तो हेलमेट पहन लें !

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सावधान! यदि आप TIMES NOW पर डमरूबाज पत्रकार अर्णव गोस्वामी को देख रहें हैं तो हेलमेट पहन लें, मेरे लिये तो इनका डिवेट ध्वनि प्रदूषण है मगर इनके कार्यक्रम में टीवी स्क्रीन पर धधक रही आग पर भुट्टा पकाने का मन करता है…..

आप अपने घर को कश्मीर होने से बचाना चाहते हैं तो सर में हेलमेट लगा लें नहीं तो चैनल्स के कुछ एंकर हाथ में पकड़े पेन को पैलेट गन की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं या उनकी ऊंगली टीवी से निकल कर आपके आंख में जा सकती है या फिर उनके हाथ पैर चलने से आपके सर फट सकते हैं। शायद आप चिल्लाने वाले, साउथ वाले एक्शन फिल्म की तरह न्यूज पढ़ने वाले पत्रकारों को अपना मशीहा या फिर क्रांतिकारी समझत होंगे, मगर हम मीडिया छात्रों के लिये इमरान हाशिमी की फिल्म नहीं ऐसे पत्रकार अश्लील होते हैं। डिवेट में कुछ चैनलों का विंडो स्क्रीन मधुमक्की के छत्ते की तरह हो जाता है और ये ऐसे चिल्लाते हैं , जैसे किसी युद्ध का एलाने हो रहा हो। यह मेरे लिये केवल ध्वनि प्रदूषण है, कभी- कभी तो इनके स्क्रीन पर सुलगते आग पर भुट्टा पकाने का मन करता है। इससे बेहतर तो पड़ोसी का झगड़ा है जो सूचनाप्रद और मजेदार होता है। इसमें रिचार्ज का भी टेंशन नहीं है और एकदम लाइव भी…. चैनल्स तो लाइव के नाम पर भी आपको 10-12 सेकेण्ड पीछे दिखाता है। न्यूज चैनल्स के पास स्क्रीन कलर, एनिमेसन, और शब्द का ऐसा हथियार होता है, जिससे आपका खून ठंडा पीते हुए भी खौल कर भाप बनने लग जाता है। यह राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रप्रेम के मामले में ज्यादा होता है। खैर हमारे देश में कुछ लोग एफबी पर इंडिया के फोटो पर कोमेन्ट्स और लाइक्स बड़ाकर अपनी देशभक्ति जाहिर करने में ज्यादा हीं विश्वास रखते हैं।

चैनल्स, अखबारों……की खबरें किसी पत्रकारिता के सिद्धांत या सामाजिक सरोकार के आधार पर नहीं विज्ञापनों के आधार पर तैयार होता है। विज्ञापन का अर्थ केवल किसी प्रोडक्ट से हीं नहीं राजनीति से भी है। क्योंकि राजनीति भी एक उद्योग है और इसका मुख्य उद्येश्य बिजनेस है। 2008-2009 में देश में आर्थिक मंदी थी मगर मीडिया इंडस्ट्री मुनाफे में चल रही थी, क्योंकि वो दौर लोकसभा चुनाव का था और उन्हें खबरों को दिखाने या दबाने के लिये नेताओं से पैसे मिल रहे थे। मीडिया का यह दौर संक्रामक दौर से गुजर रहा है, इसकी बड़ी वजह यह भी है कि विज्ञापन भी खबरों की शक्ल में आने लगी है। खासकर राजनीति खबरों में ऐसा हो रहा है।

एक गरीब आदमी का फोटो वोटर आइडी में तो जरूर आ जाता है, हो सकता है कि भूल से राशन कार्ड में भी आ जाए मगर चैनलों, अखबारों में नहीं आता, क्योंकि जब मीडिया के पास लग्जरी कारों का विज्ञापन आएगा, तो उनका खबर उनके लिये बनेगा जो इस गाड़ी को खरीद सकता है। यदि उनको फेयर एण्ड लवली का विज्ञापन देना है तो खबर उसी के लिये होग जिस वर्ग के पास इसकी पर्चेजिंग पावर है। चैनल्स को नेताओं के भाषण को टेस्ट मैच की तरह प्रसारित करने के लिये काफी पैसे दिये जाते हैं। आपके पास ब्रांडेड चीजें खरीदने के पैसे नहीं हैं तो खबर आपके सरोकार का नहीं बनेगी। आज देश के आधे दर्जन से ज्यादा चैनलों के मालिक जेल में हैं और कईयों पर केस चल रहे हैं। इन सबके बावजूद भी देश की मीडिया यह कहने से नहीं चूकती कि हम लोगतंत्र का चौथा स्तंभ है, मगर आपको बता दूं कि किसी भी संवैधानिक दस्तावेजों में इसका जिक्र नहीं किया गया है। ऐसा कहकर ये केवल अपने दागदार चेहरे पर फेनाइल मारना चाहते हैं।

देश में लगभग 800 न्यूज चैनल्स हैं, लेकिन हम 6-7 को हीं ठीक से जानते हैं। बांकी चैनल्स में कुछ रिजनल्स हैं तो कुछ नेताओं, कॉरपोरेट के काले कारनामों को धोने के लिये वॉशिंग मशीन का काम करते हैं। फ्रांसीसी अखबार ने मोदी जा का इंटरव्यूह छापने से इनकार कर दिया, देश में तो इनके भाषण को टेस्ट मैच की तरह प्रसारित किया जाता है, क्यों? पता है आपको…..। कभी-कभी न्यूज चैनल्स तो संदीप कुमार टाइप के मामले को दिखाते हुए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे ये कोई न्यूज चैनल्स नहीं पॉर्न चैनल हो। सवाल कीजिये तो ये कहते हैं, जनता यही देखना चाहती है। जिसको आप डीटीएच रिचार्ज करके देखते हैं, वो आपको हीं दोषी ठहरा दे रहे है, सोचियेगा…..। आज के दौर में न्यूज रुम बम बनाने का कारखाना हो गया है और ये आपके घरों में टीवी के माध्यम से खबरों के रुप में ब्लास्ट कर रहे है।ऐसे में आप विचारधारा, अपवाह, दबाव, उकसावे…….के रूप में घायल हो रहे हैं। मैं आपको यह नहीं कह रहा हूँ कि डीडीएच का तार खोलकर टंगनी बना लीजिये और उसपर मौजा सूखाइये। मेरे कहने का मतलब है कि आप खबरों को देखते हुए दिमाग में छंकना जरुर लगाईये………..।

आदित्य कुमार

(अम्बेडकर कालेज दिल्ली में मॉस कम्युनिकेशन के द्वितीय वर्ष के छात्र हैं आदित्य Aditya Kumar । इस लेख से पता चलता है कि भविष्य के पत्रकार आज की मुख्यधारा पत्रकारिता के बारे में क्या सोच रहे हैं।)