एक दक्षिणपंथी कभी बुद्धिजीवी क्यों नहीं हो सकता?


आम चुनाव 2019 से पहले नरेंद्र मोदी के समर्थन में लेखकों और बुद्धिजीवियों की प्रेस कॉन्‍फ्रेंस की एक तस्‍वीर


एक दक्षिणपंथी कभी बुद्धिजीवी क्यों नहीं हो सकता? या फिर अधिकतर दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों से नफरत क्यों करते हैं?  दोनों बातें एक ही सिक्के का दो पहलू हैं। अक्सर दक्षिणपंथी पांडित्य को बौद्धिकता मान लेते हैं और बताते हैं अलां साइंटिस्ट और फलां आइआइटियन हमें सपोर्ट करते हैं और हमारे विचारों को फॉलो करते हैं।

मगर इसका बौद्धिकता से कोई वास्ता नहीं है। बौद्धिक होने की कुछ शर्तें हैं। यदि कोई उसे पूरा करता है तो वह अपने-आप दक्षिणपंथ से दूर चला जाएगा।

पहली शर्त है ऑब्जेक्टिविटी। यानी वस्तुपरकता। यानी कि किसी विचार, सिद्धांत, अनुभव को अपनी निजी पूर्वाग्रह, पसंद-नापसंद, लाभ-हानि, अनुभवजन्यता से हटकर समझना और बरतना। जब हम एक वस्तुपरक सोच को अपने जीवन की कसौटी बनाते हैं तो वह हम जैसे दूसरे इनसानों के साथ दूरियां कम करता है। वैज्ञानिकता का उदय ही आत्मपरक अनुभव से हटकर सोचने के साथ हुआ।

जब गैलीलियो ने अपने प्रयोगों के माध्यम से पाया कि ब्रह्मांड में स्थित पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, तो उस समय तक का अनुभजन्य सिद्धांत यह कहता था कि ब्रहमांड के केन्द्र में पृथ्वी स्थित है और सूर्य व चन्द्रमा सहित सभी आकाशीय पिंड लगातार पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। नतीजा गैलीलियो को चर्च के कोप का शिकार होकर उम्र-कैद काटनी पड़ी।

ऑब्जेटिव होना ज्ञान के दरवाजे खोलता है। यह ‘मैं’ और ‘अन्य’ के सिद्धांत को खत्म करता है। यहीं से दृष्टिकोण बनने शुरू होते हैं। राष्ट्र की संकल्पना, प्रवासियों की समस्या, अन्य धार्मिक रीति-रिवाज सब कुछ इसी दृष्टि की वजह से तय होता है। यदि आप वस्तुनिष्ठ सोच पर यकीन रखते हैं तो आपके जीवन में अन्य के लिए जगह होगी। आपके जीवन में असहमति के लिए जगह होगी। आपके जीवन में दूसरों के द्वारा कही गई बातों के लिये जगह होगी। यदि नहीं होगी तो आप दीवारें खींचेंगे।

दक्षिणपंथ दीवारें खींचता है। देशों के बीच- राष्ट्र की श्रेष्ठता का सिद्धांत रचकर। विचारधाराओं के बीच- वैचारिक असहमतियों और अन्य के विचारों के प्रति असहष्णु होकर। जनता के बीच – धर्म, जाति, लोकाचार, रहन-सहन में विभेद करके। परिवार के बीच – परिवार में स्त्री, व कनिष्ठों जैसे युवाओं या बच्चों को निर्णय लेने के अधिकार से वंचित करके। अंततः दीवारें खींचते-खींचते एक दक्षिणपंथी अपने चारों तरफ दीवारें खींच देता है और वो कूपमंडूक बनकर रह जाता है।

बौद्धिकता की दूसरी शर्त है उर्ध्वमुखी होना। आगे की तरफ बढ़ना। गतिमान होना। प्रकृति भी सतत परिवर्तन का हिस्सा है। जीवन में बदलाव को स्वीकारना ही आगे बढ़ना है। यह आपको नई सोच, नए अनुभव, नई दृष्टि की ओर प्रेरित करता है।

गैलीलियो से पहले कोपरनिकस ने भी सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाने का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। यह धर्मग्रंथ बाइबिल के खिलाफ जाने का साहस करना था। उन्होंने वो साहस किया। नए को अपनाया। इसकी सजा भी दोनों को मिली। मगर गैलीलियो ने खगोलीय दूरबीन और गणितीय गणना के आधार पर उसी सिद्धांत को ज्यादा बेहतर ढंग से सामने रखा। वह इसलिए क्योंकि उन्होंने 16वीं सदी में बनी दूरबीन का प्रयोग करने में पहल की। मनुष्य जीवन का हर ज्ञान नए को स्वीकारने से पैदा हुआ है। नए देशों की खोज, नदी के भीतर की दुनिया की तलाश, चंद्रमा की खोज, अंतरिक्ष की खोज।

इसके विपरीत दक्षिणपंथी विचारधारा हमारी सोच को अतीत की तरफ ले जाती है। वह उन प्रतीकों पर बल देती है जिनके आधार पर मनुष्यों के समूह को किसी खांचे में बांटा जा सके, किसी दायरे में समेटा जा सके। इस प्रक्रिया में वह क्रमशः प्रश्न पूछने का निषेध करता है, तर्क-वितर्क का निषेध करता है, असहमति का निषेध करता है।

यहीं से हम बौद्धिक होने की तीसरी शर्त की तरफ मुड़ते हैं। वह है तार्किक होना। इसका आशय बहस और तर्क-वितर्क भर नहीं है। इसका आशय यह है कि कुछ भी स्वीकार करने से पहले उसे समझना, तर्कों की कसौटी पर कसना और फिर अपनाना।

वहीं दक्षिणपंथ तर्क पर नहीं बल्कि भावनाओं को उद्वेलित करने पर यकीन रखता है। इसलिए वह सामूहिक प्रतीकों का इस्तेमाल करता है। जैसे राष्ट्र, जैसे धर्म, जैसे मातृछवि, जैसे वीरता की भावना प्रधान कहानियां। इन तमाम मूल्यों के प्रति मनुष्य में स्वाभाविक संवेदना होती है, मगर दक्षिणपंथ में वह स्वाभाविक न होकर एक केंद्रीय शक्ति द्वारा संचालित होती है। वह इनसान के विवेक को खत्म करना चाहता है।

फासीवाद के इन्हीं खतरों को महसूस करते हुए जर्मन नाटककार ब्रेख़्त ने एलिएनेशन की थ्योरी विकसित की, जो नाटक का रसग्रहण करते समय में भी दर्शकों को लगातार यह बताता रहता था कि वे नाटक देख रहे हैं और जो देख रहे हैं उसका एक निश्चित दूरी बनाए रखते हुए उन्हें विश्लेषण करना होगा। सोचना और समझना होगा।

इन तीन शर्तों के बिना कोई बुद्धिजीवी हो सकता है, इस पर मुझे शक है। और इन तीनों शर्तों का पालन करने वाला दक्षिणपंथी नहीं हो सकता इस पर मुझे यकीन है।


वरिष्ठ पत्रकार दिनेश श्रीनेत की फेसबुक वॉल से साभार