हरेन पंड्या और सोहराबुद्दीन की हत्या का राज़ फ़ाश होने से डरता है कौन ?


क्या कोई पार्टी इतनी शक्तिशाली हो सकती है कि उसके अपने लोगों की हत्या को अनसुलझा छोड़ दिया जाए।




संजय कुमार सिंह

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला नहीं सुलझा। पर इस तथ्य के बावजूद नहीं सुलझा कि इसका संबंध भाजपा नेता और गुजरात के उस समय के गृहमंत्री हरेन पंड्या की हत्या से जुड़ा हो सकता है। ठीक है कि इसमें भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष अमित शाह का भी नाम आया और वे इससे बरी भी हो चुके हैं पर मामला इतना सीधा, सरल और सामान्य नहीं है कि इसे अनसुलझा छोड़ दिया जाए। एक राज्य के गृहमंत्री की हत्या हुई है उसकी पार्टी न सिर्फ उस राज्य में बल्कि केंद्र में और देश के कई दूसरों राज्यों में सत्तारूढ़ है। इसके बावजूद हत्या की गुत्थी नहीं सुलझना एक बात है और सुराग दे सकने वाले हर व्यक्ति की हत्या होते जाना बिल्कुल अलग बात है।

क्या कोई पार्टी इतनी शक्तिशाली और कायदे कानूनों से ऊपर हो सकती है कि उसके अपने लोगों की हत्या को अनसुलझा छोड़ दिया जाए। क्या यह अजीब नहीं लगता है कि पार्टी के लोगों को ही इस मामले में दिलचस्पी नहीं है। उनके परिवार को नहीं हो, डर लगता हो – बात समझ में आती है। पर पार्टी क्यों खामोश है? एक तरफ अपने नेता की हत्या का मामला है और दूसरी ओर हत्या का अभियुक्त बताया जा रहा (या हो सकने वाले) की हत्या की गुत्थी नहीं सुलझ रही है। तो बहुत सारी चीजें वैसे ही स्पष्ट हैं।

मैं ऐसी जांच या काम का विशेषज्ञ नहीं हूं पर बात मुझे समझ में आ रही है तो पेशेवर लोग कैसे चूक सकते हैं? एक हत्या (या मौत) सुलझी नहीं और दूसरे की वजह साबित नहीं हुई और कई अन्य कारणों से लग रहा है कि कुछेक प्रभावशाली लोगों के शामिल होने की वजह से यह मामला अंजाम तक नहीं पहुंचा तो क्या संबंधित लोगों का काम नहीं है (अगर वे निर्दोष हैं) कि वे कोई संतोषजनक बयान दें या देश सेवा और जनसेवा करने का दावा करने वाली उनकी पार्टी के लोग उन्हें पद से हटाकर निष्पक्ष जांच कराएं और देश की न्यायव्यवस्था पर भरोसा कायम करने के लिए काम करें।

क्या है मामला

वैसे तो, सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला फिलहाल खत्म हो चुका है। अदालत ने 22 लोगों को बरी कर दिया और यह कोई अचानक नहीं हुआ। इस मामले से जुड़े अमित शाह, गुलाब चंद कटारिया, गुजरात और राजस्थान के सीनियर आईपीएस सहित कुल 15 लोगों को सबूतों के आभाव में पहले बरी किया जा चुका है। मुंबई सीबीआई कोर्ट में प्रस्तुत हुए 45 गवाहों में से 38 अपने बयान से पलट गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने जांच पर नज़र रखते हुए 2010 में कहा था कि सीआईडी (क्राइम) की जांच अधूरी है।

इसके बाद जांच सीबीआई को सौंपी गई। ऐसे मामलों में अभियुक्तों के बरी होने के बाद सीबीआई ऊपरी कोर्ट में जाती है लेकिन अमित शाह और दूसरे बड़े लोगों के छूटने के बावजूद वह ऊपरी अदालत में नहीं गई। इसके अलावा, इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में बांबे हाई कोर्ट के पूर्व जज अभय एम थिपसे ने कहा है कि इस मामले में क़ानूनी प्रक्रियाओं का ठीक से पालन नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि गवाहों को तोड़ा जा रहा है और ये सब इशारा करता है कि इस मामले में न्याय नहीं हुआ है।

ऐसे में अभियुक्तों के छूटने का बाद मीडिया का काम था कि वह इस मामले की पड़ताल करता, पुराने तथ्यों को रखता और बताता कि न सिर्फ हत्या के अभियुक्त बरी हो गए बल्कि हत्या क्यों हुई यह भी पता नहीं चला जबकि इस हत्याकांड से संबंधित कई लोग मारे गए। यहां तक कि एक जज की भी संदिग्ध मौत हुई। उस मौत की जांच की मांग नहीं सुनी गई। जांच का आदेश हो न जाए इससे बचने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया गया और महाराष्ट्र सरकार ने वकीलों पर इतने पैसे खर्च कर दिए जितने में जांच हो जाती।

कुल मिलाकर, अभी स्थिति यह है कि सोहराबुद्दीन शेख की हत्या उसके साथी और इस केस के अहम गवाह तुलसी राम प्रजापति को भी 2006 में फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। इस मामले से किसी तरह का ज्ञात संबंध न होने के बावजूद सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी की भी हत्या हो गई। यह हत्या इस लिहाज से असामान्य है कि गुजरात के आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा के गांव इलोल में की गई थी। इस केस की जांच करने वाले गुजरात सीआईडी के इंस्पेक्टर वीएल सोलंकी ने सीबीआई को बताया था कि अमित शाह चाहते थे कि एनकाउंटर की जांच बंद कर दी जाए।

सीबीआई का आरोप था कि जब ये केस गुजरात सीआईडी के पास था, तब गुजरात के तत्कालीन डीजीपी प्रशांत चंद्र पांडे और तत्कालीन जांच अधिकारी आईपीएस गीता जौहरी और ओपी माथुर ने गुमराह करने का काम किया। केंद्र में 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद इस केस में नाटकीय बदलाव हुए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इस केस को सुन रही मुंबई सीबीआई कोर्ट ने अमित शाह सहित इस केस से जुड़े वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और राजनेताओं को ट्रायल से पहले ही बरी कर दिया।

सीबीआई कोर्ट के मुताबिक़, पुलिस वालों पर आरोप साबित नहीं हो पाया है और वह दबाव डलवाकर गवाही नहीं दिला सकते। इस केस में सीबीआई 2010 में दाख़िल हुई, फिर केस में राज्य के नेताओं के नाम अभियुक्तों के तौर पर सामने आने लगे। गुजरात सरकार ने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी के बिना शुरू की थी। इसलिए भी बांबे हाई कोर्ट ने इन्हें छोड़ दिया। ट्रायल शुरू होने से पहले ही तमाम बड़े नाम इससे बरी हो चुके थे। ऐसे ही एक अन्य मामले में गुजरात सरकार ने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति नहीं दी है इसलिए मामला आगे नहीं बढ़ पा रहा है।

इस बीच तथ्य यह भी है कि एक गवाह आज़म ख़ान ने दावा किया था, “गुजरात के पूर्व आईपीएस अधिकारी डीजी वंज़ारा ने सोहराबुद्दीन को बीजेपी नेता और गुजरात के पूर्व मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की सुपारी दी थी।” हरेन पांड्या भाजपा नेता रहे हैं। गुजरात के गृहमंत्री थे। उनकी हत्या और इस खुलासे पर भाजपा नेताओं में वैसी प्रक्रिया नहीं हुई जैसी होनी चाहिए। और तो और, ऐसा लगा ही नहीं कि भाजपा में कोई चाहता हो कि इस हत्या का राज खुले। एक तथ्य यह भी है कि 2003 में हरेन पंड्या की हत्या के बाद उनकी पत्नी जागृति पांड्या को 2016 में गुजरात सरकार ने राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग का अध्यक्ष बनाया था।

आज़म ख़ान सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति का सहयोगी है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, आज़म ख़ान ने यह दावा भी किया कि उसने 2010 में सीबीआई को यह बात बताई थी लेकिन ‘तब अधिकारियों ने इसे उसके बयान में दर्ज़ करने से इनकार कर दिया था।”जब मैंने उन्हें (सीबीआई अधिकारी एनएस राजू) को हरेन पांड्या के बारे में बताया तो उन्होंने बोला नये बखेड़े में मत डालो”। बीबीसी ने इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से लिखा है कि आज़म ख़ान ने दावा किया कि, “सोहराबुद्दीन ने बातचीत में मुझे बताया था कि नईम ख़ान और शाहिद रामपुरी के साथ उसे गुजरात के गृहमंत्री हरेन पांड्या को मारने की सुपाड़ी मिली और उन्होंने उनकी हत्या कर दी। (यह हत्या 2003 में हुई थी)। सोहराबुद्दीन ने मुझे बताया कि ये सुपाड़ी वंज़ारा ने दी थी।” अख़बार के मुताबिक आज़म ख़ान ने ये दावा भी किया कि सोहराबुद्दीन ने उसे बताया था कि ‘ऊपर से ये काम दिया गया था।’

इस मामले में सभी अभियुक्तों के बरी हो जाने के बाद डीजी वंजारा ने ट्वीट किया, (अंग्रेजी से अनुवाद) “सोहराबुद्दीन मामले में सभी 22 पुलिस अधिकारियों के बरी हो जाने से मेरे इस स्टैंड की पुष्टि हुई है कि हमारे मुठभेड़ सही थे : हमें अपना काम करने के लिए गलत फंसाया गया था। हम गांधीनगर और नई दिल्ली में उस समय राज कर रहे लोगों के बीच की राजनीतिक गोलीबारी में फंस गए”। इसपर मशहूर पत्रकार और गुजरात फाइल्स की लेखक राणा अयूब ने वंजारा के एक पुराने पत्र का हिस्सा ट्वीटर पर साझा किया जिसका अनुवाद होगा, “उन्हें (मोदी को) याद दिलाना गलत नहीं होगा कि दिल्ली की ओर बढ़ने की जल्दी में कृपया हमारा कर्ज उतारना न भूल जाएं जो उनपर जेल में बंद पुलिस अधिकारियों के हैं और जिन्होंने उन्हें बहादुर मुख्यमंत्री होने की महिमा दिलाई।”

इस मामले को सीबीआई में हुई राजनीतिक नियुक्तियों से जोड़कर देखिए। कारवां में राणा अयूब ने लिखा है, सीबीआई के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल मनीष सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में कहा था कि राकेश अस्थाना के खिलाफ जांच में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हस्तक्षेप किया था। पत्रिका के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अस्थाना के संबंध तब के हैं जब उन्होंने गोधरा में कारसेवकों की ट्रेन में आग लगाए जाने के मामले की जांच की थी। अस्थाना का निष्कर्ष था कि यह पूर्व नियोजित था और इसमें मार्च 2011 में 31 लोगों को सजा हुई थी। यह अलग बात है कि कई मीडिया रिपोर्ट में इसे दुर्घटना माना गया है।

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर में सीबीआई ने अमित शाह के खिलाफ चार्जशीट दायर की थी उन्हें मुख्य अभियुक्त बनाया था और हत्या, साजिश, वसूली तथा आपराधिक धमकी देने का आरोप लगाया था। उन्हें बरी कर दिए जाने के बाद एक पीआईएल के जवाब में सीबीआई ने इसे चुनौती नहीं देने का बचाव किया था और कारवां पत्रिका के अनुसार इसे सोचा समझा तथा वाजिब कदम कहा था। मुझे नहीं समझ में आता है कि गोदी मीडिया को ऐसी रपटें करने में क्यों डर लगता है। डर तो तब लगेगा जब पता हो कि हत्या किसने की या क्यों कराई। जनहित में न्याय व्यवस्था में आस्था कायम करने की मांग करने से कोई क्यों नाराज होगा? और होगा तो हम ऐसी बुनियादी मांग करना भी छोड़ दें?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक हैं।)