सुषमा स्वराज को किस लिए याद रखा जाना चाहिए?

अनिल जैन
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


दार्शनिक और लेखक वाल्टेयर ने कहा है- ”जो जीवित हैं, उनके प्रति हमें आदर व्यक्त करना चाहिए और जो दिवंगत हो चुके हैं, उनके बारे में हमें सच्चाई प्रकट करनी चाहिए।’’ हमारे देश में इसका ठीक उलट होता है। किसी व्यक्ति को उसके जीते जी हम भले ही आदर न दें, लेकिन उसके मरने पर उसकी तारीफ के बेइंतहा पुल बांध देते हैं। दरअसल, भावुकता के माहौल में अक्सर तथ्य और तर्क गुम या गौण हो जाते हैं और दिल-दिमाग पर भावनाएं और पाखंड काबिज हो जाते हैं। भाजपा की वरिष्ठ नेता रहीं पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को लेकर भी लगभग ऐसा ही हुआ है और हो रहा है।

उनके निधन पर दो-तीन दिन तक भावुकता मिश्रित शोक मीडिया और सोशल मीडिया पर छाया रहा। उन्हें अलग-अलग तरह से याद करते हुए शोक जताया गया। मुख्यधारा के मीडिया खासकर टीवी चैनलों ने तो उनके महिमा गान में अतिरेक सारी हदें ही लांघ दीं। उन्हें भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के बाद सर्वाधिक उदार छवि वाला लोकप्रिय और सर्वग्राह्य नेता बताया गया। उन्हें नारी शक्ति और स्त्री सशक्तिकरण का प्रतीक भी कहा गया। एक चैनल ने तो उन्हें ‘मदर इंडिया’ ही बता दिया।

बेशक सुषमा स्वराज को उनके आमतौर पर शालीन और प्रभावी भाषणों, उनकी वाकपटुता, उनके सुरुचिपूर्ण वस्त्र-विन्यास और लंबे राजनीतिक जीवन के लिए याद किया जा सकता है, लेकिन सिर्फ इसी आधार उनकी समूचे राजनीतिक व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उनसे जुड़े कई महत्वपूर्ण तथ्य और वाकये ऐसे हैं, जो उनके बारे में किए जा रहे उनके महिमा-गान और उनको दी गई उपमाओं का बेरहमी से खंडन करते हैं और उन्हें एक औसत नेता साबित करते हैं।

इस सिलसिले में सबसे अहम वाकया 2004 का है, जब भाजपा के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना के विरोध में उन्होंने सिर मुंडवा लेने और सफेद वस्त्र धारण कर आजीवन ज़मीन पर सोने की घोषणा जैसी अभद्र और शर्मनाक नौटंकी की थी। उन्होंने सोनिया गांधी का यह फूहड़ और अतार्किक विरोध इस आधार किया था कि उनका जन्म विदेश में हुआ है।

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके में आदिवासियों के सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता और शिक्षिका सोनी सोरी पर वहां भाजपा के शासनकाल में कई तरह के जुल्म हुए। उन पर तेजाब से हमला हुआ। पुलिसवालों ने उनके साथ बलात्कार किया और उनके गुप्तांगों में पत्थर डालने जैसे अत्याचार किए। उन्हें नक्सली बताकर जेल में डाल दिया गया। सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर रिहा होने बाद जब वह दिल्ली आईं और एक पत्र के माध्यम से उन्होंने सुषमा स्वराज से मिलने के लिए समय मांगा। सुषमा स्वराज ने न तो उनके पत्र का जवाब दिया और न ही उन्हें मिलने के बुलाया।

यही नहीं, हाल ही में उन्नाव के बहुचर्चित और रोंगटे खड़े कर देने वाले बलात्कार कांड में भी उन्होंने निंदा या अफसोस का एक बयान तक जारी नहीं किया क्योंकि बलात्कार का आरोपी एक भाजपा विधायक है। कोई एक साल पहले बहुचर्चित ‘मी टू’ अभियान के दौरान तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री और एक जमाने में ख्याति प्राप्त पत्रकार रहे एमजे अकबर पर उन्हीं के मातहत काम कर चुकी एक पत्रकार ने यौन शोषण का आरोप लगाया था। उस वक्त भी सुषमा स्वराज ने अपने मातहत काम करे अकबर पर लगे इस गंभीर आरोप पर चुप्पी साधे रखी थी। ऐसे में किस आधार पर उन्हें नारी शक्ति या स्त्री सशक्तिकरण की प्रतीक माना जाए?

कर्नाटक में अवैध खनन के जरिए अरबों रुपए की काली दौलत कमाने और कर्नाटक की खनिज संपदा को बर्बाद कर देने वाले बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी भाइयों से सुषमा स्वराज के रिश्ते जगजाहिर रहे हैं। दोनों रेड्डी भाइयों को उन्होंने अपना मानसपुत्र माना था और उन्हें राजनीतिक संरक्षण दिया था। देश के बैंकों का अरबों रुपए हजम कर विदेश भाग चुके कुख्यात ‘क्रिकेट कारोबारी’ ललित मोदी पर उनकी मेहरबानी के किस्से से भी उनकी तथाकथित राजनीतिक शुचिता का परिचय भली-भांति मिलता है। भारतीय एजेंसियों की मिलीभगत से देश छोडकर भागे ललित मोदी की विदेश मंत्री की हैसियत से मदद करने वाली सुषमा स्वराज ही थीं। बाद में मामले का खुलासा होने पर उन्होंने ललित मोदी की पत्नी की बीमारी का हवाला देते हुए संसद में सफाई भी दी थी और कहा था कि उन्होंने तो सिर्फ मानवीय आधार पर मोदी की मदद की थी।

यह सारे उदाहरण उनके एक ‘व्यावहारिक’ यानी यथास्थितिवादी राजनेता होने का परिचय देते हैं, न कि आदर्श राजनेता होने का। इन सबके अलावा एक राष्ट्रीय महत्व की घटना ऐसी भी है, जिसमें संघ के इशारे पर उन्होंने राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जाकर बेहद नकारात्मक भूमिका निभाई थी और वह भी उस प्रधानमंत्री के खिलाफ जिसकी सरकार में वे मंत्री थीं। इस समय कश्मीर का मामला देश-दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में नए सिरे तनाव पैदा हो गया है। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि करीब दो दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के बीच हुई शिखर वार्ता अंतिम क्षणों में किस वजह से बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई थी और इस सिलसिले में किसके इशारे पर किसने भीतरघात किया था!

अटल बिहारी वाजपेयी छह साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे। उनके समूचे कार्यकाल में और कुछ उल्लेखनीय भले ही हुआ हो या न हुआ हो, मगर इसमें कोई दो मत नहीं कि उन्होंने अपनी पार्टी और संघ की लाइन से हटकर एक स्टेट्समैन के रूप में भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार और कश्मीर मसले के समाधान की दिशा में ईमानदारी से प्रयास किए। उन्होंने अपने छह साल के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान कश्मीर के संदर्भ में अपनी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परंपरागत सोच को अपने ऊपर कतई हावी नहीं होने दिया। उनके कार्यकाल में 19 फरवरी 1999 को दिल्ली-लाहौर के बीच सदा-ए-सरहद बस सेवा शुरू हुई थी, जो कश्मीर पर केंद्र सरकार के ताजा फैसले के बाद अब बंद हो चुकी है। दिल्ली-लाहौर बस सेवा एक छोटी और प्रतीकात्मक लेकिन ईमानदार पहल थी, जिसका दोनों तरफ के आम लोगों ने व्यापक तौर पर स्वागत किया था। इस पहल के बदले पाकिस्तान की ओर से भारत को हालांकि धोखा ही मिला- पहले संसद भवन पर आतंकवादी हमला और फिर करगिल में सैन्य घुसपैठ के रूप में। इसके बावजूद वाजपेयी ने उम्मीद नहीं छोडी। पाकिस्तान में सेना द्वारा किए गए तख्तापलट के बाद जब फौजी तानाशाह जनरल परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति बने तो वाजपेयी ने फिर पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य बनाने के प्रयास शुरू किए।

इस सिलसिले में उन्होंने कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत पर आधारित बहुत ही खुले नजरिए के साथ राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा में शिखर बैठक की। साल 2001 की 15 और 16 जुलाई को हुई इस बैठक में वे पाकिस्तानी राष्ट्रपति के साथ कश्मीर मसले के समाधान के काफी करीब पहुंच गए थे। दोनों देशों के बीच एक व्यापक समझौते की जमीन तैयार हो चुकी थी। समझौते का मसौदा और दोनों नेताओं के बीच संयुक्त बयान भी लगभग तैयार हो चुका था। 17 जुलाई को समझौते पर हस्ताक्षर के लिए आगरा के होटल जेपी पैलेस में सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। वे कुर्सियां भी तैयार थीं, जिन पर बैठकर वाजपेयी और मुशर्रफ समझौते पर दस्तखत करने वाले थे। अंतरराष्ट्रीय मीडिया उस ऐतिहासिक घटना को कवर करने के लिए आगरा में जुटा हुआ था।

तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी वाजपेयी के साथ आगरा में ही मौजूद थे और उन्हें समझौते का मसौदा रास नहीं आ रहा था। इस सिलसिले में उनकी मसौदे को तैयार करने में भारत की ओर से अहम भूमिका निभाने वाले तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह के साथ कहासुनी भी हुई थी, हालांकि जसवंत सिंह जो कुछ कर रहे थे उसे वाजपेयी की पूरी सहमति हासिल थी। उसी दौरान समझौते के मसौदे की भनक आरएसएस के तत्कालीन नेतृत्व को लग चुकी थी और उसे यह समझौता मंजूर नहीं था। आडवाणी उन दिनों भाजपा में संघ के सर्वाधिक विश्वस्त और लाडले हुआ करते थे। सुषमा स्वराज उस समय वाजपेयी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री थीं। उन्हें आडवाणी की बेहद करीबी और विश्वस्त माना जाता था।

आडवाणी ने जब देखा कि उनकी असहमति को प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं तो उन्होंने खुद सार्वजनिक तौर पर कुछ न बोलते हुए सुषमा स्वराज को मोर्चे पर लगाया। सुषमा स्वराज ने दिल्ली से ही उस समझौते के मसौदे को पलीता लगाने वाला एक बयान जारी कर दिया। उनके बयान से दोनों देशों के राजनयिक हलकों में हलचल मच गई। राष्ट्रपति मुशर्रफ भी बिदक गए। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों और राजनयिकों ने मिलकर बात संभालने की कोशिश की और रात में ही दो-तीन वाक्यों के हेरफेर के साथ समझौते का नया मसौदा तैयार किया गया। लेकिन अगले दिन सुबह वाजपेयी पर सीधे संघ की ओर से पीछे हटने का दबाव आया और आखिरकार वह समझौता नहीं हो सका। मुशर्रफ अपनी पूर्व निर्धारित अजमेर यात्रा रद्द कर आगरा से ही इस्लामाबाद के लिए रवाना हो गए।

भ्रूण हत्या की गति को प्राप्त हुए समझौते की मुख्य बात यह थी कि भारत और पाकिस्तान दोनों को कश्मीर के दोनों हिस्सों का कस्टोडियन और नियंत्रण रेखा को ही वास्तविक सीमारेखा मानते हुए ऐसे कदमों पर सहमति जताई गई थी, जिनसे कि सीमा धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती चली जाए और दोनों तरफ के लोगों की सुगमतापूर्वक इधर से उधर आवाजाही हो सके। अगर वाजपेयी का वह प्रयास संघ और आडवाणी द्वारा सुषमा स्वराज के जरिए किए गए भीतरघात का शिकार नहीं होता तो संभवतया कश्मीर मसला लगभग हल हो चुका होता और पाकिस्तान पोषित आतंकवाद से भी हमें बहुत हद तक निजात मिल गई होती।

सुषमा स्वराज को उनके निधन पर एक बेहद कुशल और सक्रिय विदेश मंत्री के तौर पर भी याद किया गया जबकि वास्तविकता यह है कि विदेश मंत्री के तौर उनकी भूमिका बिल्कुल नगण्य रही। पूरे पांच साल वे कहने भर को ही विदेश मंत्री रहीं। व्यावहारिक तौर विदेश मंत्रालय का कामकाज प्रधानमंत्री कार्यालय से ही संचालित होता रहा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही खुद विदेश मंत्री की भूमिका निभाते रहे। संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक अधिवेशनों और मुस्लिम देशों के संगठन ‘इस्लामी सहयोग संगठन’ के सम्मेलन के अलावा किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुषमा स्वराज की मौजूदगी नहीं दिखी। हर जगह प्रधानमंत्री ने ही भारत की नुमाइंदगी की। हां, अपने ट्विटर हैंडल के माध्यम से सक्रिय रहते हुए कई लोगों की पासपोर्ट और वीजा संबंधी समस्याओं का निदान उन्होंने जरूर किया। हमारे टेलीविजन मीडिया ने मुख्य रूप से उनके इसी काम का उनकी सक्रियता के रूप में आकलन किया और उन्हें बेहद काबिल विदेश मंत्री बताया।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि वे खामियों और खूबियों से युक्त एक औसत या आम राजनेताओं की तरह ही थीं। इसके बावजूद उनके व्यक्तित्व और व्यवहार में एक खास आकर्षण था जो उन्हें अपनी पार्टी के दूसरे नेताओं से अलग दिखाता था। उनकी इसी खासियत के चलते उन्हें उनकी पार्टी से बाहर अन्य तमाम पार्टियों के नेताओं से भी भरपूर सम्मान और स्नेह मिला। इस मायने में वे भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और भैरोंसिंह शेखावत के कद की नेता थीं। उन्हें इसी रूप में याद किया जाएगा।