सीबीआई के बहाने अपहृत लोकतन्त्र में एक नागरिक


CBI HQ / Delhi


                                                                                सत्यम श्रीवास्तव

द टेलीग्राफ में सीबीआई को लेकर 24 अक्‍टूबर की रात में हुए घटनाक्रम का ब्यौरा प्रकाशित हुआ है। पता नहीं देश के कितने नागरिकों ने पढ़ा है, लेकिन जिसने भी पढ़ा है और दिये गए ब्यौरे के आधार पर एक चित्र खींचने की कोशिश की है, वह अंदर से बहुत डर गया होगा।

मैं इस कार्यवाही से बहुत डर गया हूँ। मुझे लग रहा है कि मैं एक ‘अपहृत लोकतन्त्र के नागरिक’ की औकात में धकेल दिया हूँ। इसलिए नहीं कि ‘जब देश की सबसे बड़ी और विश्वनीय संस्था के प्रमुख’ के साथ ऐसा हो सकता है तो आम आदमी के साथ क्या-क्या नहीं हो सकता? जैसा कि अमूमन हर ऐसे मामले में कहा जाता है बल्कि मैं इसलिए डर गया क्योंकि यह जो कुछ भी हुआ वह सरकार द्वारा दिये जा रहे बयानों की मंशा का भार ढो नहीं पा रहा है। इस कार्यवाही की अंतरध्वनि कुछ और है और जो बहुत डरावनी है। भय से प्रेरित मेरी दिलचस्पी यह जानने में है कि सीबीआई जैसी एजेंसी के आंतरिक विवाद को सुलझाने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की वास्तव में कोई भूमिका होना चाहिए? यह मेरा व्यक्तिगत पूर्वग्रह या डर हो सकता है पर अजित दोभाल की बढ़ती हस्ती इस देश के लोकतन्त्र के लिए बहुत घातक है। अमित शाह तो खैर!!

चलिये पहले ब्यौरा पढ़ते हैं-

[ब्यौरा शुरू] – रात को 10 बजे से यह घटनाक्रम शुरू हुआ जिसमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने उनके आवास पर गए। इसके आधे घंटे बाद यानी रात 10:30 बजे यह निर्णय लिया गया कि सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा और उनके डेप्युटी राकेश अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया जाये। इसके बाद रात 12:45 पर पुलिस ने सीबाई दफ्तर को सील कर दिया। ठीक एक घंटे बाद दोनों निदेशकों के छुट्टी के आदेश जारी किए गए। ठीक 15 मिनिट बाद रात के 2 बजे पुलिस के संरक्षण में सीबाई के संयुक्त निदेशक एम. नागेश्वर राव को सीबाई दफ्तर में प्रवेश कराया गया जहां उन्होंने एजेंसी के निदेशक का प्रभार सँभाला। सुबह 7 बजे आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के दफ्तर सील कर दिये गए। सुबह 10 बजे आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना को यह इत्तिला दी गयी कि उन्हें छुट्टी पर भेजा रहा है और अब उन्हें सीबीआई के दफ्तर में जाने की इजाजत नहीं है। इसी समय यानी सुबह दस बजे उन तमाम अधिकारियों को भी सीबीआई हेड क्वार्टर से हटा लिया गया जो निदेशक आलोक वर्मा की टीम का हिस्सा होते हुए राकेश अस्थाना के खिलाफ जांच में शामिल थे। इनमें से एक अफसर को पोर्ट ब्लेयर भेजा गया। [ब्यौरा समाप्त]

लोक मान्यता है कि रात का काम शैतान का होता है। कई धार्मिक मान्यताएँ भी यही हैं कि रात के समय शैतानी शक्तियाँ सक्रिय होतीं हैं। एक आम नागरिक के तौर पर मुझे यह पूरी कार्यवाही इतनी षणयंत्रकारी क्यों लग रही है? वह कौन सा डर था कि ये सारी कार्यवाही इतनी त्वरित और गोपनीय ढंग से सम्पन्न हुई। अगर आलोक वर्मा द्वारा लगाए गए आरोप गलत हैं तो राकेश अस्थाना के पास तमाम न्यायिक रास्ते खुले हुए हैं। किसी दफ्तर में सबसे प्रमुख अधिकारी होने के नाते आलोक वर्मा के पास यह अधिकार हैं कि वो अपने मातहत के खिलाफ विभागीय मर्यादायों में कार्यवाही कर सकते हैं। एक नागरिक के तौर पर आलोक वर्मा के अधीनसठों के पास वो सारे अधिकार सुरक्षित हैं कि उनके खिलाफ जाया जा सके। इसलिए इस विवाद को दो अधिकारियों के आपसी झगड़े की वजह से संस्थान की बिगड़ती छवि के तौर पर देखना बहुत मासूम तर्क मालूम पड़ता है। और यह उस बड़ी षड्यंत्रकारी कार्यवाही का अनुमोदन भी करता है जो तीन लोगों द्वारा की गयी। विवाद की वजह से संस्थान की छवि का बिगड़ना बहुत पितृसत्तात्मक तर्क है। घर की बात घर में ही रखना किसी लोकतान्त्रिक व्यवहार की गुंजाईश को कम करता है। सीबीआई एक लोकतान्त्रिक संस्था है तो इसकी कार्यसंस्कृति भी लोकतान्त्रिक होगी और झगड़े या असहमति का तरीका गोपनीय नहीं होगा।

सवाल दूसरा है और वो यह कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अजित दोभाल ने इसमें किस मंशा से हस्तक्षेप किया और क्या वाकई इस हस्तक्षेप से सीबीआई की छवि संरक्षित हो जाएगी? जैसा कि सरकार के प्रवक्ता कह रहे हैं। एक नागरिक के तौर पर मेरा जवाब होगा- नहीं। बल्कि इससे आम जनता में यह संदेश स्पष्ट रूप से जाएगा कि पिछले 7 दशकों में निर्मित हुई लोकतान्त्रिक व्यवस्था जो अपने संस्थानों के माध्यम से व्यवहार में आई उसे तीन लोगों ने अपहृत कर लिया। और इन लोगों को लेकर आम राय कभी भी असंदिग्ध नहीं रही। अपने लगभग साढ़े चार साल के कार्यकाल में इस सरकार ने जिस तरह से तमाम संस्थानों को नष्ट करने, उनकी विश्वसनीयता को खंडित करने, उनकी छवि को लांछित करने और उन्हें काम नहीं करने देने के कुत्सित प्रायस किए हैं इस कार्यवाही ने उस पर पुख्तगी की मोहर ही लगाई है।

अगर राकेश अस्थाना पर आलोक वर्मा द्वारा लगाए आरोप सही हैं और ये खबर भी सही है कि आलोक वर्मा कुछ बहुत ही संवेदनशील मामलों में जांच कर रहे थे जिनमें राफेल डील, मेडीकल कौंसिल, कॉलगेट, प्रधानमंत्री के सचिव के खिलाफ शिकायतों, स्टर्लिंग बायोटेक आदि तब इस संदेह को ठोस व्यावहारिक ज़मीन मिल जाती कि क्यों राकेश अस्थाना को सीबीआई में बैठाया गया था और क्यों आलोक वर्मा को तत्काल प्रभाव से उनके पद से हटाना या उन्हें काम से मुक्त करना ज़रूरी हो गया था है। इस पूरी कार्यवाही का असल मकसद सामने आता है। हालांकि अखिल भारतीय गोदी (चाहें तो मोदी भी पढ़ सकते हैं) मीडिया इस पूरे मामले को जनहित में किए गए मोदी जी के ऐतिहासिक योगदान के तौर पर ही दिखाने की कोशिश करेगा जैसा कि तमाम अधिकारियों के ट्रांसफर आदेशों में ‘पब्लिक इन्टरेस्ट’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है।

इस कार्यवाही से एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि मामला सीबीआई बनाम सीबीआई नहीं है बल्कि यह मामला एक संस्था प्रमुख बनाम सत्तासीन कुछ व्यक्तियों का है और जिसमें एक पक्ष अपनी अजेय शक्तियों के साथ दूसरे को नेस्तनाबूद करने की कार्यवाहियाँ कर रहा है। एक नागरिक के तौर पर ज़ाहिर तौर मैं कमजोर के साथ खड़ा हूँ।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं