‘कब आएँगे बंजारे’ उर्फ़ आज़ाद भारत में विश्वासघात की एक करुण कथा !


बंजारों की त्रासदी है कि उन्हें तमाशा बनाकर लोग विदेश घूम रहे हैं जबकि उनके जीवन में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया।




अश्विनी कबीर

राजस्थान के रेगिस्तान से गुजरते गधों ओर ऊंटों की खेप से उड़ती धूल ऐसे लगती है मानो आसमान ने सतरंगी चद्दर ओढ़ ली हो। खेप में किसी की पीठ पर मुल्तानी मिट्टी तो किसी की पीठ पर अरबी कपड़े लदे हैं। लंबे कान वाले ऊंटों की पीठ पर जरूरत की चीजों की गठरी टँगी हैं। बच्चे गधों की पीठ पर बैठे हैं ओर पीछे पीछे कुत्ते चल रहे हैं।

बिंजारी लोक गीत गाती हुई चल रही हैं-
” बिंजारी हंस हंस क बोल,  दुनियां सु न्यारी बोल
  मिठी मीठी बोल, आच्छी आच्छी बोल
   के बातां थारी रह ज्यासी”

सूरज बादलों के साथ ऐसे अठखेलिया कर रहा है जैसे कोई प्रेमिका रूठी हुई हो और प्रेमी उसे मनाने का भरकस प्रयास कर रहा हो। डेरा पड़ने का भी समय हो गया है। डेरा तो दिन ढलते ही पड़ जाता है ओर भोर होते ही सब कूच कर जाते थे।

लेकिन आज की रात कई मायनों में ख़ास है। कल का भोर महीनो से चली आ रही यात्रा के मुसाफ़िरों के बिछुड़ने का दिन है, खेप कई हिस्सों में बंट जाएगी कोई हरियाणा, पंजाब की ओर रुख करेगी तो कोई मध्य प्रेदेश होते हुए छत्तीसगढ़ की ओर निकलेगी, कुछ महाराष्ट्र होते हुए कर्नाटक की ओर रुख करेंगे। उन सौदागरों के अपने जीवन के सहयात्री के तौर पर साथ गुजारे पलों को आज रात भर जीने का अंतिम दिन है।

डेरा भी वहीं पड़ेगा जहां चाँदमल के दादा नोलखा ने बावड़ी बनाई थी। इस बार के जन्मे बच्चों का मत्था टिका कर लाना है और अपने बुजर्गों ओर पुरखों से नई पीढ़ी को जोड़ना जो है। चांदमल कह रहे हैं की हमारे पुरख़े कितने गुनी लोग थे, कितनी हिम्मत ओर ज्ञान से बावड़ी बनाई है। जो उस पूरे क्षेत्र के जीने के लिए पानी का स्त्रोत है। मैं तो एक जोहड़ ही बना पाया

सभी बंजारे एक दूसरे के गले मिल रहे हैं, बधाइयां दे रहे हैं। वो आज रात भर एक दूसरे के नजदीक बैठकर रिश्तों को तापेंगे, अपने मन की बात कहेंगे।  उधड़े रिश्तों की सिलाई करेंगे। रात भर नाच गाना चलेगा।

केला बाई ओर भूरिया बहुत खुश हैं। उनका नया रिश्ता जो बना है। जो रिश्ते नही बन पाए वो अपने आप को भूलकर आज की रात के आगोश में समा जाना चाहते हैं। उनकी महक भी चहुं ओर बहेगी।

इस खेप/काबिले के सरदार चाँदमल हैं, खेप के सभी लोग  उनके अनुभव, सहज ओर समाज के उपयोगी ज्ञान को अपने जीवन मे उतार रहे हैं, यह उनका सिखा हुआ ज्ञान ही है जो महीनो की कठिन यात्रा को उत्सव मनाते हुए, नाच- जाते हुए कब पूरा किया पता ही नही चला।

यह यात्रा महज व्यापार भर नही है बल्कि उस यात्रा के जरिए दो संस्कृतियों उनके विचार, परम्परा  को जोड़ रहे हैं।

सरदार  ‘भूरिया’ से कह रहे हैं कि नजदीक गावँ के चौधरी को हेली (हवेली) में संदेश भिजवा दो कि बंजारों की खेप आ गई है। आज रात भर नाच गाना चलेगा। हमारे उत्सव में आएं। गोदना ओर कसीदाकारी भी होगी।

उत्सव की सूचना गावँ में उल्लास ओर उमंग का संदेश लेकर आई है। सब लोग जल्दी जल्दी अपना काम निपटा कर डोंगरी के उस पार जा रहे हैं। किसी पास बाजरे की रोटी, लहसुन की चटनी तो किसी के पास बथुवे ओर खाटे का साग है ,पूरी खेप को खाना जो खिलाना है। सैकड़ों की संख्या में लोग होंगे।

बूढ़ों के हाथ मे चिलम है आज सारी रात हुक्का जो सुपड़ेंगे। इस उहा पोह में कमला देवी की जूती नही मिल रही, उसने आसमान सर पर उठाया हुआ है। उठाए भी क्यों न उसे बंजारों की अग्रिम पूजा जो करनी हैं। उसकी पूजा से ही कार्यक्रम की सुरुवात होगी। वो एक पैर में जूती ओर एक पैर खाली ही सरपट दौड़ी जा रही है। सब लोग क्या कहेंगे, मेरे पुरख़े क्या कहेंगे?

गावँ की चंचल महिलाएं गोदना करवा रही हैं, कुछ बिंजारी गा बजा रही हैं, रात कैसे गुजर गई पता ही नही चला। भोर में सरदार के नगाड़ा की धुन बजते ही खेप अपने अपने तय हिस्सों में कूच को तैयार हो रही हैं। बंजारों की आंखों में बिछुड़ने का दर्द साफ झलक रहा है।

मोहिनी बहुत हड़बड़ी में अपने गधे का बाजूबंद तलाश रही है जो उसको मुल्तान में एक पठान ने दिया था। कितना सुंदर था वो पठान, कितनी मोटी थी उसकी आंखें। उसके पास ले देकर उसकी यही एक याद रहेगी। अब उनके खेपें अलग अलग दिशा में चल पड़ी हैं। गीत जरूर गाए जा रहे हैं लेकिन आंखों में पानी के साथ।

“बस्ती- बस्ती पर्वत- पर्वत गाता जाए बंजारा
लेकर दिल का एक तारा”

कुछ लावना बंजारे की  खेप गुजरात के तट से लूण (नमक) बोरों में भरकर खेप चली जा रही है। गांवों में लोग मुल्तानी मिट्टी, अरबी कपड़े और नमक खरीद रहे हैं। और बदले में धान, ज्वार ओर गेहूं दे रहे हैं। कुछ बिंजारी कसीदाकारी कर रही हैं, गावँ की  महिलाएं गोदना करवा रही हैं।

शाम को सभी बंजारे गावँ के काकड़ पर बनी सराय में ठहरेगे , अलाव जलाकर सभी लोग साथ बैठेंगे बिंजारी लोक गीत गाएंगी, कुछ बिंजारी ढपली की थाप पर नाचेंगी। फुल्लों बिंजारी बहुत ही मीठा गाती है उसके चर्चे दूर दूर के गाँवों में फैले हैं।

सरदार, भूरिया से कह रहे हैं कि यहां हस्तशिल्प का सामान बहुत अच्छा और सुंदर हैं हम  इकट्ठे हुए अनाज के बदले कुछ हस्तशिल्प का सामान भी खरीदेंगे। अरबी लोग बड़े चाव से ले जाते हैं।

गावँ के मुखिया गोविंद के साथ कुछ बुजर्ग आए हैं , वो कह रहे हैं कि गावँ में टांका बनाना है ताकि बारिश का पानी रुक सके। बारिश कम हो रही है। खेती का काम सही से नही चल रहा। 

खेप का सरदार कह रहे हैं कि ‘अबकी बार प्रदेश (अरब मुल्क)  जाते समय इधर से गुजरेंगे तो यह काम करते हुए जाएंगे। पिछली दफा जब इधर से गुजरे थे तो यहीं पर हमारे गधों ओर ऊंटों की रेस भी हुई थी। गावँ वालों ने बहुत मदद की थी हमारी।’

ऐसी मान्यता है कि बंजारे राजस्थान जिले से भारत के हर कोने में फैले जिन्हें आंध्र प्रेदेश में लम्बारी, कर्नाटक में लम्बाणी, महाराष्ट्र में बंजारी ओर राजस्थान, हरियाणा में बंजारा कहा जाता है। इन्हें किसी राज्य में ओ .बी .सी का तो किसी मे एस. सी. ओर एस. टी. का दर्जा प्राप्त हैं। ये लोग अपने इतिहास को राजपूत जाति, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान ओर शिवाजी महाराज से जोड़ते हैं।

एक सवाल  जो हमे विचलित कर सकता है की जो बंजारे कभी राजाओं की सेना के लिए रसद पहुचाते थे, भारत भर मे अनाज की आपूर्ति करते थे। जिनकी महिलाएँ गोदना ओर कशीदाकारी से लेकर नृत्य और गान में जो महारात हाशिल है जिनके चर्चे अरब से लेकर मुल्तान तक रहे। जो हिंदुस्तान की खूबसूरती और पहचान का आधार रहे आज वो बंजारे दर दर की ठोकर खाने पर मजबूर क्यों हैं?

दअरसल ब्रिटिश कंपनी जो की एक व्यापारिक कंपनी थी। उसने अपने व्यापार में टक्कर देने वाले सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी बंजारों को रोकने के लिए 1871 में एक कानून बनाया जिसमे बंजारों को जन्मजात क्रिमिनल घोषित कर दिया। इससे वो केवल नमक में सिमट गए। आगे चलकर  ब्रिटिश सरकार ने नमक के व्यापार पर भी रोक लगा दी। भले ही 1951 में भारत सरकार ने क्रिमिनल एक्ट को खारिज कर दिया हो, लेकिन समाज ने उनके योगदान को भुला दिया।

पुष्कर में तंबू डालकर मुफ़लिसी का जीवन जी रहे टोडरमल बंजारा, जिसकी उम्र करब 80 वर्ष रही होगी , झब्बा पहने, सर पर पगड़ी, कान में मुरकी ओर धोती बांधे, चिलम का सुट्टा मारते हुए बता रहा था कि जब वह छोटा था तो उसके दादा प्रदेश जाते थे।

‘हम दिन भर उनके पास बैठकर उनकी बातों को सुनते। वो हमे बताते की हमारे खेप में करीब 300 लोग थे। कई बार तो लौटने में दो चौमासा( 13-14 महीने) बीत जाते थे।  हमारा ब्याह ओर गौना भी रास्ते में तय हो जाते थे। हम गधों, बैलों ओर ऊंटों पर बैठकर गाते बजाते हुए जाय करते थे। हमारी यात्रा उदयपुर में रुणा जी के मत्था टेकने से सुरु होती थी। ओर जैसलमेर होते निकल जाती थी। शाम को जिस गावँ में ठहरते वहां के लोग हमारे खाने पीने का प्रबंध करते, हमारा नाच गाना देखते। उनकी महिलाएं गोदना ओर कशीदाकारी करवातीं। कहीं कहीं पर गधों ओर ऊंटों की रेश होती। गधा- ऊंट भी खरीदते।

जिस गावँ में हम एक पखवाड़ा (15 दिन) रुकते वहाँ पर एक बैलों की जोड़ी उस गावँ को देकर आगे बढ़ते। हमारे बुजर्ग तो जड़ी बूटी भी लाते थे। हमारे पास फुस के घोड़े, रावणहत्था, मिट्टी की मूर्तियां, हाथ का बना समान रहता, अरब में हमारा समान खरीदने, नृत्य देखने के लिए दूर दूर से लोग झुंड बनाकर आते थे। अरबी लोग बड़े चाव से हमारे से समान खरीदते। हमारा बहुत सम्मान होता था। हम महीनों वहां रुकते। कई अरबी पठान तो हमारे बहुत गहरे मित्र बन गए थे।’

टोडरमल की आंखें भर आईं ,’आज हमारी पहचान ही खो गई है। मैंने अब तक कितने जोहड़ बनाए, बहुत से कुएं खोदे ओर कितने घरों की नींव डाली लेकिन आज जिसको जी में आता है हमे उजाड़ देता है। कहते हैं कि तुम्हारे पास जमीन का पट्टा नही है। मेरी पत्नी ने कितनी महिलओं के गोदना किया , कितना सुरीला गाती थी लेकिन जब वो मरी तो गावँ वालों ने श्मशान में दफनाने भी नही दिया। …यहां पर अधिकारी वोट डालने के लिए लोगों की लंबी शृंखला बनवाते हैं। किताबों में नाम छपवाते हैं। ओर हम उस शृंखला को टुकुर टुकुर देख रहे थे। वो इस बात  के लिए शृंखला क्यों नही बनवाते कि हमारे समाज के एक भी बच्चे को स्कूल से बाहर नही रहने देंगे?  हमे धान मिलेगा, बुढापा पेंशन मिलेगी। हमारे टोलों से एक भी बच्चा स्कूल नही जाता।’

राजस्थान के हर जिले की यही स्थिति है भिलवाड़ा के अमर सिंह बंजारे ने बताया कि  ‘यहां हर रोज नया खेल देखते हैं । लोक कला के संरक्षण के नाम पर स्कूल, कॉलेज में लाखों रुपए खर्च होते हैं। ओर लोक कला के कद्रदानों को दुत्कार दिया, हमारे हाथ मे भीख मांगने का कटोरा है या बेलदारी है।’

बंजारों के जीवन कि त्रासदी यह है कि उनकी विरासत के नाम पर सैकड़ों फाउंडेशन चल रहे हैं। उनमे उनके जीवन का तमाशा बन रहा है और सब लोग उसे बड़े चाव से देख  रहे हैं। बंजारों के जीवन मे तो रत्ती भर भी बदलाव नही आया, लेकिन इससे वो लोग उनके नाम पर विदेशों में घूम रहे हैं।

सरकार को चाहिए कि हर जिले में किसी अधिकारी को ड्यूटी बाउंड करे। जो तय समय सीमा में यह तय करें यदि घुमंन्तु समाज का एक भी बच्चा स्कूल से पीछे छूटता है या किसी सरकारी स्कीम का लाभ नही मिलता है, तो उस अधिकारी को तत्काल ससपेंड कर किया जाए।

पाली जिले के शाहपुरा ब्लॉक के टिकोला गावँ में बंजारों के 42 घर जला दिए ,मध्य प्रेदेश में 60 घरों की बस्ती को उजाड़ दिया गया, क्या कार्यवाही हुई? आखिर घुमंन्तु समुदाय के विरुद्ध अपराध को sc ओर st एक्ट के तहत क्यों नही लाया जाता ? 

घुमन्तू समाज की स्थिति और उनके  भविष्य की सम्भवनाओं को तलाशने हेतु केंद्र सरकार ने बालकृष्णन रैनके  की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट जून 2008 में दी। लेकिन आज 10 साल बाद भी वो रिपोर्ट धूल फांक रही है।  उस रिपोर्ट को संसद की पटल पर क्यों नही रखा गया। उसपर कोई दल बात क्यो नही कर रहा ? उसको लागू करने में क्या दिक्कत है?

आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष रहे रैमके कहते हैं कि इस लोकशाही में ताकतवर की चलती है जो सांगठित ओर जागरूक है। उसके सामने लोकशाही नाचती है। राज्य सरकारें घुमंन्तु बोर्ड तो बना देती हैं लेकिन उनको बजट ही नही देती। 

रिपोर्ट के अनुसार कुल आबादी का 10 फीसदी हिस्सा घुमंन्तु लोगों का है जिसमे 98 फीसदी बिना जमीन के रहते हैं, 57 फीसदी झोपड़ी बनाकर रहते हैं और 94 फीसदी घुमंन्तु बीपीएल की श्रेणी से बाहर हैं।

घुमंन्तु के आवास ओर पशुबाड़ों के लिए होम स्टेट एक्ट बने जैसे कि केरल और आंध्र प्रदेश की सरकार ने बनाया है। जब कॉर्पोरेट जगत को पट्टे देने को भू अधिकरण कांनून बन सकता है तो घुमंन्तु को पट्टे देने में क्या दिक्कत है ?

बच्चों के लिए आवशयुक्त स्कूल निर्मित हों जहां वो पढ़ाई के साथ साथ अपनी पारम्परिक कला एवं जीवन शैली को सीख पाए।उनकी कला एवं साहित्य संरक्षण के लिए ठीक वैसा ही केंद्र बनाने की जरूरत है जैसा प्रो गणेश देवी के नेतृत्व में वडोडा में बनाया गया है।

बंजारों के जीवन कि त्रासदी यह है कि उनकी विरासत के नाम पर सैकड़ों फाउंडेशन चल रहे हैं, उनमे उनके जीवन का तमाशा हो रहा है और सब लोग उसे बड़े चाव से देख  रहे हैं। बंजारों के जीवन मे तो रत्ती भर भी बदलाव नही आया लेकिन इससे वो लोग उनके नाम पर विदेशों में घूम रहे हैं।

सरकार को चाहिए कि हर जिले में किसी अधिकारी को ड्यूटी बाउंड करे। जो तय समय सीमा में यह तय करें यदि घुमंन्तु समाज का एक भी बच्चा स्कूल से पीछे छूटता है या किसी सरकारी स्कीम का लाभ नही मिलता है तो उस अधिकारी को तत्काल ससपेंड कर किया जाए।

पाली जिले के शाहपुरा ब्लॉक के टिकोला गावँ में बंजारों के 42 घर जला दिए ,मध्य प्रेदेश में 60 घरों की बस्ती को उजाड़ दिया क्या कार्यवाही हुई? आखिर घुमंन्तु समुदाय के विरुद्ध अपराध को sc ओर st एक्ट के तहत क्यों नही लाया जाता ? 

घुमन्तू समाज की स्थिती और उनके  भविष्य की सम्भवनाओं को तलाशने हेतु केंद्र सरकार ने बालकृष्णन रैनके  की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट जून 2008 में दी। लेकिन आज 10 साल बाद भी वो रिपोर्ट धूल फांक रही है।  उस रिपोर्ट को संसद की पटल पर क्यों नही रखा गया। उसपर कोई दल बात क्यो नही कर रहा ? उसको लागू करने में क्या दिक्कत है?

आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष रहे रैमके कहते हैं कि इस लोकशाही में ताकतवर की चलती है जो सांगठित ओर जागरूक है। उसके सामने लोकशाही नाचती है। राज्य सरकारें घुमंन्तु बोर्ड तो बना देती हैं लेकिन उनको बजट ही नही देती। 

रिपोर्ट के अनुसार कुल आबादी का 10 फीसदी हिस्सा घुमंन्तु लोगों का हैं जिसमे 98 फीसदी बिना जमीन के रहते हैं, 57 फीसदी झोपड़ी बनाकर रहते हैं और 94 फीसदी घुमंन्तु बीपीएल की श्रेणी से बाहर हैं।

घुमंन्तु के आवास ओर पशुबाडों के लिए होम स्टेट एक्ट बने जैसे कि केरल और आंध्र प्रेदेश की सरकार ने बनाया है। जब कोर्पोर्ट जगत को पट्टे देने को भू अधिकरण कांनून बन सकता है तो घुमंन्तु को पट्टे देने में क्या दिक्कत है ?

बच्चों के लिए आवशयुक्त स्कूल निर्मित हों जहां वो पढ़ाई के साथ साथ अपनी पारम्परिक कला एवं जीवन शैली को सीख पाए।उनकी कला एवं साहित्य संरक्षण के लिए ठीक वैसा ही केंद्र बनाने की जरूरत है जैसा प्रो गणेश देवी के नेतृत्व में वडोडा में बनाया गया है।

समाज के साथ उनकी होने वाली जुगलबन्दी को समाज के समक्ष लाने के लिए ऊंचे दर्जे के शोध एवं अनुसन्धान की अत्यंत आवश्यकता है।जिनके गीतों में खेत- खलिहान और नदी नाले गाते हैं, पपीहा सुर छेड़ता है। हवा ताना बुनती हैं। उन लोगों की नदी की तरहं बहने वाली जिंदगी ठहर गई है। बंजारे तो समाज को चलाने वाले लोग रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो वो दिन दूर नही जब सुरमई सी आंखों वाली बंजारन को देखने के लिए राह तका करेगा जमाना सारा।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘नई दिशाएँ’ के संयोजक हैं।