असल लड़ाई उदार और कट्टर हिंदू के बीच है, हिंदू-मुस्लिम की नहीं


A Hindu activist walks past a temple wall, where devotees have written in Hindi characters the name of Hindu god-king Lord Ram, in the Indian holy city Ayodhya October 18, 2003. Tens of thousands of Hindu activists have gathered in Ayodhya to participate in a rally on Saturday, to demand a temple to be built over a historic mosque razed by a Hindu mob in 1992. REUTERS/Roy Madhur RM/FA - RTR56DI


जिस तरह ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष को आतंक और हिंसा का पर्याय बना दिया गया है, वह भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। एक सामान्य भारतीय हिन्दू मंदिर जाकर मत्था टेकता है, हर मज़हब के मिलने वालों से राम–राम या सीताराम का सम्बोधन करके कुशल-क्षेम पूछता है, भाईचारा और आत्मीयता प्रकट करता है। इसके ठीक उलट कट्टर हिन्दुत्व हवा में मुट्ठी तानते हुए जय श्रीराम, जय श्रीराम का उद्घोष करेगा, माथे पर भगवा गमछा बांधेगा, त्रिशूल और लाठी भांजने का प्रशिक्षण लेगा, मुस्लिमों को सबक सिखाने की फिराक में रहेगा, एक तरफ हिन्दू धर्म पर गर्व करना सिखाएगा तो दूसरी तरफ हिन्दू धर्म को खतरे में बताएगा। खुद की मां भले वृद्धाश्रम में हो लेकिन गाय को माता मानते हुए दूसरे धर्म वाले का वह निःसंकोच प्राण भी ले लेगा।

राम मनोहर लोहिया ने 1950 में लिखे अपने लेख ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ में संकेत दिया है कि भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई है। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ्ने पर देश हमेशा सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। इसमें कोई शक नहीं है कि देश में एकता तभी रही जब हिन्दू मानस में उदार विचारों का प्रभाव था। महात्मा गांधी की हत्या के वक्‍त हिन्दू-मुस्लिम झगड़े की घटना उतनी नहीं होती थी जितना टकराव हिन्दू धर्म के भीतर उदार और कट्टरपंथी धारा के बीच था। लोहिया कहते हैं कि कट्टरपंथी हिन्दू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, वे भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे- न सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रान्तों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिन्दू ही राज्य को कायम रख सकते हैं। हिंदुस्तान के लोगों की हस्ती इस बात पर निर्भर है कि हिन्दू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।

इधर कुछ वर्षों से कई ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं जिसमें ‘जय श्रीराम’ का नारा केंद्रबिन्दु बना हुआ है। यह नारा दूसरे धर्मावलम्बी के मन में खौफ़ और दहशत पैदा करने के लिए लिया जा रहा है। उन्हें चिढ़ाने, उकसाने या मारने का हथियार बन गया है। वैसे तो इस नारे का प्रयोग बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय अपने चरमोत्कर्ष पर था जिस पर मशहूर डॉक्युमेंटरी फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन ने ‘राम के नाम’ नामक फिल्‍म बनायी थी। उनका भी मानना था कि उस दौरान हुई हिंसा या दंगे राम के नाम पर ही हुए हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि भगवान राम यदि सचमुच मनुष्य के रूप में इस धरती पर होते तो क्या अपने नाम का दुरुपयोग करने की इतनी छूट देते। यहां तो सामान्य से सामान्य आदमी भी किसी छोटी से घटना में अपना नाम घसीटे जाने पर आहत हो जाता है और कह देता है कि भाई मेरा नाम आपने बेवजह क्यों घसीट लिया, इस घटना से मेरा क्या ताल्लुक है, आदि इत्‍यादि। यदि वह ताकतवर व्‍यक्ति या नेता निकला तो अपना नाम घसीटे जाने पर कोर्ट में मानहानि का दावा भी ठोंक सकता है।

हद तो तब हो गई जब देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्‍था संसद के भीतर असदुद्दीन ओवैसी के शपथ ग्रहण के दौरान भाजपा नेताओं ने सिर्फ चिढ़ाने के उद्देश्य से जय श्रीराम का नारा लगाया। अब यह नारा सड़क से संसद के सदन तक पहुंच गया है। कोई यह भी सवाल उठा सकता है कि क्या जय श्रीराम का नारा लगाना अपराध है। इसके जवाब में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि उसके पीछे जो मंशा छिपी है वह खतरनाक है वरना नाम तो भगवान कृष्ण का भी लिया जा सकता है, लेकिन कृष्ण के नाम से न तो उन्माद पैदा किया जा सकता था और न ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए उसे हथियार बनाया जा सकता था।

ताज्जुब की बात यह भी है कि जय श्रीराम के नाम पर की जाने वाली हत्याओं पर किसी बड़े हिन्दू संत या हिन्दू संगठन ने निंदा या विरोध नहीं जताया है जबकि देश के बाहर होने वाली आतंकी घटनाओं के लिए वे चाहते हैं कि यहां के मुस्लिम विरोध जताएं। यानी हम दूसरे की इंसानियत की परीक्षा तो लेना चाहते हैं लेकिन अपनी नहीं देंगे।

ऐसी परिस्थितियों में उदार हिन्दू के ऊपर इस बात की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि फिरकापरस्त और सांप्रदायिक सोच वाले कट्टर हिन्दुत्व का मुक़ाबला वह कैसे करे। एक सामान्य हिन्दू के अंदर जो कट्टर हिन्दुत्व घुसने की कोशिश कर रहा है उसे कैसा रोका जाए। उसे अमानवीय होने से कैसे बचाया जाए। यह एक ऐसी लड़ाई है जिसमें कट्टरता सत्ता समर्थित होने के कारण और ताकतवर हो गई है। इसके उलट उदार हिन्दू की परंपरा और जड़ें काफी पुरानी और समृद्ध हैं। उसके पास एक तरफ कबीर, रैदास, नानक, रसखान और जायसी की विरासत है तो दूसरी तरफ संविधान की वह बुनियाद है जिस पर उदार हिन्दू की छाप है। यह लड़ाई ऊपरी तौर पर भले हिन्दू-मुस्लिम के बीच दिखाई दे रही हो लेकिन बुनियादी लड़ाई हिन्दू धर्म के भीतर उसकी कट्टरता और उदारता के बीच है। इतिहास में ऐसे बहुत से दौर आए हैं जब उदारवादी हिन्दू ने मानवता की रक्षा के लिए अपनी जान तक दे दी है। महात्मा गांधी और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक नाम इस फेहरिस्‍त में लिए जा सकते हैं।

यह दौर हमारी आस्थाओं के राजनीतिकरण और बाजारीकरण का है। जिस तरह बाबाओं ने हमारी आस्था को बाजार का रूप दे दिया है, ठीक वैसे ही नेताओं ने हमारी आस्था को राजनीति का रूप दे दिया है। इसका सबसे सटीक उदाहरण गाय और भगवान राम हैं। एक सामान्य से सामान्य हिन्दू को इस राजनीति के पीछे छुपी गहरी चाल को समझना होगा और धर्म की निजता को बचाते हुए राजनीति से अलग रखना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं होगा जब हमारे भी हालात तालिबान जैसे हो जाएंगे जहां कानून के बजाय धर्म की कट्टरता हमारे जीवन को नियंत्रित करने लगेगी।

जिस तरह कभी पाकिस्तान में सुनने को मिलता था कि ईश निंदा करने पर भीड़ ने व्यक्ति को जिंदा जलाया, ठीक उसी तरह गाय के नाम पर या धार्मिक पहचान की वजह से की गई हत्या एक मुस्लिम राष्ट्र और इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के बुनियादी फर्क को मिटा देगी। दूसरे, अगर ऐसे ही मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं का प्रचलन बढ़ता रहा तो एक समय ऐसा भी आएगा कि जो घटना हमें आज झकझोर रही है उसका हमारे ऊपर से असर धीरे–धीरे खत्म हो जाएगा और वह भी तब किसी आम अपराध की तरह एक अखबारी खबर बनकर रह जाएगी।


जितेंद्र यादव दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं