वाजपेयी के माफ़ीनामे से जुड़े सवाल पर राज्यसभा टीवी ऐंकर को मिले मेमो का संकेत गंभीर है!




“..यह भी दीग़र बात है कि नीलू व्यास ने जो प्रश्न पैनलिस्ट से पूछा था उसमें लगाया गया आरोप, ‘अप्रमाणिक आरोप’ (unsubstantiated allegation) नहीं था बल्कि इसके ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं. लेकिन यहां इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता के पैसे से चलने वाले ‘राज्यसभा टीवी’ जैसे चैनल में कैसे किसी एंकर को नेताओं/नौकरशाहों के दबाव में वाज़िब और एतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सवाल पूछने से रोका जा सकता है?..”

 

रोहित जोशी

 

दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे पब्लिक ब्रॉडकास्टर के सरकारी भोंपू में तब्दील हो जाने के लंबे समय बाद जब पब्लिक ब्रॉडकास्टर के बतौर लोकसभा और राज्यसभा टेलीविज़न की शुरूआत हुई थी तो इन्हें नई उम्मीद की नज़रों से देखा गया था और अपेक्षा की गई थी कि ये असल अर्थों में स्वायत्त संस्थान बनकर ब्रॉडकास्टिंग कर सकेंगे और भारतीय लोकतंत्र में निष्पक्ष और सरोकारी पत्रकारिता का ‘मिसिंग एलिमेंट’ बहाल हो पाएगा. इसके लिए इन दोनों ही ब्रॉडकास्टर्स को सरकार के किसी मंत्रालय के अधीन ना रखकर सीधे संसद के दोनों सदनों के मातहत रखा गया और इसके लिए वित्त की व्यवस्था भी संसद की समेकित निधि से की गई जो कि सीधे भारतीय रिजर्व बैंक से आती है.

काफी हद तक इन दोनों ही ब्रॉडकास्टरर्स ने इस भूमिका को अदा भी किया और खासकर 26 अगस्त 2011 को लांच हुए राज्यसभा टीवी में इस उम्मीद और ज़्यादा साकार होते देखा गया क्योंकि सिर्फ विश्लेषणों और ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों के बजाय इसमें न्यूज़ मीडिया का पुट ज्यादा था. किसी मंत्रालय के अधीन सराकार के भोंपू हो जाने और कॉरपोरेट निवेश के मुनाफ़े बटोरने के इन दोनों ही दबावों के इतर मोटे तौर पर यह चैनल एक मुक़म्मल पब्लिक ब्रॉडकास्टर की शक़्ल लेता गया और इसकी स्वीकार्यता भी बढ़ी।

लेकिन बीते कुछ समय से यह उम्मीद अब धुंधला रही है. इसके बारे में पिछले दिनों में सुनने को बहुत कुछ आया था लेकिन एक ताज़ा वाक़िए ने इसे और पुष्ट कर दिया है कि यह सपना चूर-चूर होने लगा है.

बीते 16 अगस्त को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने निधन के दिन राज्यसभा टीवी में चल रहे एक लाइव चर्चा के कार्यक्रम में चैनल की एक वरिष्ठ एंकर नीलू व्यास को अटल बिहारी बाजपेयी के एक जीवनीकार विजय त्रिवेदी से अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटिश हुक़ूमत से लिखित माफ़ी मांगने पर एक सवाल पूछना महंगा पड़ गया.

सवाल था, ”उन्होंने इस तथ्य को कैसे स्वीकार किया कि मैं अब (अंग्रेजों के खिलाफ) नारे नहीं लगाऊंगा, क्योंकि वे हमेशा अपने राष्ट्रवादी रुझान के लिए जाने जाते थे.”

इतिहास से उठाए गए इस तथ्यात्मक सवाल पर राज्यसभा टीवी प्रबंधन ने ना सिर्फ इस एंकर को फटकार लगाई जबकि उसे तब से आॅफ एयर भी कर दिया है.

22 अगस्त, 2018 को राज्यसभा टीवी के संपादक राहुल महाजन ने एक आधिकारिक मैमो जारी कर नीलू व्यास पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के ख़िलाफ ‘अप्रमाणिक आरोप’ (unsubstantiated allegation) लगाने का आरोप लगाया.

मेमो में कहा गया था कि ‘जिस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी मृत्युशय्या पर थे, उस समय आपके द्वारा बिना किसी संदर्भ का आरोप लगाया गया.’ मेमो में यह भी कहा गया था कि ‘इतने अहम मसले पर चर्चा करते हुए आपके ग़ैर-ज़िम्मेदार रवैये के कारण राज्यसभा टीवी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा और इसके लिए माफी मांगी मांगनी पड़ी.’

न्यूज़ वैबसाइट ‘दि वायर’ ने इस संदर्भ में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें बताया गया है कि ‘राज्यसभा सचिवालय के अतिरिक्त सचिव एए राव और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के क़रीबी माने जानेवाले एक नौकरशाह ने चैनल से इस मामले में कार्रवाई करने की मांग की. राज्यसभा सचिवालय के स्रोतों के मुताबिक जब यह माला नायडू के संज्ञान में लाया गया, तब उन्होंने चैनल को एक माफीनामा जारी करने का आदेश दिया. इसके तुरंत बाद महाजन ने एक मेमो जारी करके नीलू व्यास से स्पष्टीकरण देने के लिए कहा.’

राज्यसभा ने 22 अगस्त को अपने प्रसारण के दौरान एंकर द्वारा पूछे गए सवाल के लिए माफी मांगनेवाला एक टिकर भी चलाया. जिसमें कहा गया था.

”16 अगस्त को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन और योगदान पर एक लाइव चर्चा के दौरान राज्यसभा टीवी की एक वरिष्ठ एंकर ने श्री वाजपेयी के बारे में कुछ बिना संदर्भ के और तथ्यात्मक तौर पर हवाले दिए. राज्यसभा टीवी इसके लिए खेद प्रकट करता और इसके लिए माफी मांगता है.”

(‘दि वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में इससे जुड़े कुछ दूसरे प्रसंगों का भी ज़िक्र किया है जिसे ‘दि वायर’ में जा कर पढ़ा जा सकता है.)

यह दीग़र बात है कि व्यास ने जो प्रश्न पैनलिस्ट से पूछा था उसमें लगाया गया आरोप,  unsubstantiated allegation नहीं था बल्कि इसके ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं. लेकिन यहां इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्यसभा टीवी जैसे चैनल में कैसे किसी एंकर को नेताओं, नौकरशाहों के दबाव में वाज़िब और एतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सवाल पूछने से रोका जा सकता है?

हालांकि यह सवाल पत्रकारिता के लिहाज़ से कितना वाज़िब था यह समझना बेहद महत्वपूर्ण है. जहां एक ओर अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक जीवन के शुरूआत की इस घटना से बेहद कम लोग वाक़िफ़ हैं. वहीं जिन लोगों को इस घटना का पता भी है वो भी इस पर कई बार सतही जानकारी और समझ रखते हैं. ऐसे में एक आधिकारिक जीवनीकार से यह सवाल पूछा जाना पत्रकारीय दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण था जिसके लिए नीना व्यास की तारीफ़ की जानी चाहिए. वहीं दूसरी ओर पैनलिस्ट जीवनीकार विजय त्रिवेदी ने भी इस सवाल पर जो जवाब दिया वह काफ़ी रेश्नल था.

इस सवाल पर त्रिवेदी ने माना कि युवा वाजपेयी की गिरफ़्तारी और उनके द्वारा एक शपथ पत्र पर दस्तखत करके अंग्रेजों का विरोध न करने का वादा, करने वाली घटना सच में हुई थी. लेकिन वे आगे कहते हैं, ”आपको यह याद रखना होगा कि यह घटना कब हुई थी. उस समय अटल जी की उम्र 17 साल थी. मैंने इस पर विस्तारपूर्वक शोध किया है. मैं आगरा के नज़दीक, बटेश्वर नामक जगह पर गया हूं, जहां की यह घटना है. एक छोटा सा आंदोलन चल रहा था और वे भी वहां मौजूद थे…जब पुलिस ने उन्हें पकड़ा और यह सब हुआ और एक एक चिट्ठी लिखी गई जिस पर उन्होंने किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के प्रभाव में आकर दस्तखत किए.”

त्रिवेदी कहते हैं कि इस बात का सवाल नहीं उठता था वाजपेयी बाद के अपने जीवन के साथ उस समय हुई घटना का सामंजस्य बिठा सकें.

”उन्होंने कभी इसका खंडन नहीं किया, न ही कभी इसकी पुष्टि की, न ही उन्होंने इसके बारे में कभी बात की. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई उनके राष्ट्रवादी चरित्र पर सवाल उठा सकता है.”

यह चर्चा आगे भी चलती रही और वाजपेयी के जीवन के विविध पहलूओं पर चर्चा जारी रही. राज्यसभा टीवी के भीतर एक सार्थक चर्चा जिस तरह से एंकर पर हमला बोल कर टारगेट किया गया यह बानगी है कि राज्यसभा टीवी में भी दूरदर्शन की तरह ही घुसपैठ हो गई है और इसे सरकार के इशारों पर चलने वाला भोंपू बनाए जाने की कवायद शुरू हो चुकी है.

यह सिलसिला असल में, वैंकया नायडू के उपराष्ट्रपति बनने के साथ ही शुरू हो चुका था. उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा टीवी का पदेन अध्यक्ष होता है. और इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो सरकार निजी चैनलों को भी अपने एजेंडे से ही चलाना चाह रही हो वह कैसे राज्यसभा जैसे चैनलों को अपने ऐजेंडे से इतर खुला छोड़ सकती है. लेकिन यह उस सपने का चूर चूर हो जाना है जिसमें भारत में एक असल अर्थों के स्वायत्त मीडिया संस्थान की परिकल्पना की गई थी जो कि भारतीय लोकतंत्र में शुरुआत से ही मिसींग एलीमेंट रहा था.