कश्‍मीर की सड़कों पर बग़ावत की वापसी कैसे हुई



जलील राठौर / श्रीनगर  

पिछले हफ्ते दिल्‍ली में मैं पत्रकारों के ऊपर हो रहे हमले पर आयोजित एक राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में शिरकत करने गया था। वहां मुझसे कश्‍मीर के हालात पर सवाल पूछे गए। सबसे अहम सवाल यह था कि अच्‍छे-खासे संपन्‍न परिवारों से आने वाले पढ़े-लिखे नौजवान, जिनमें कई तो शैक्षणिक रूप से काफी योग्‍य हैं, आखिर बंदूक क्‍यों उठा रहे हैं।

यह सवाल कश्‍मीर के भीतर उतना ही अहम है जितना भारत के दूसरे हिस्‍सों के लिए। इसके जवाब तक पहुंचने के लिए हमें अस्‍सी के दशक के अंत में पैदा हुए आतंकवाद के इतिहास में जाकर कुछ तथ्‍यों का विश्‍लेषण करना होगा।

नब्‍बे के दशक के आरंभ में अकसर ऐसा होता था कि हजारों की तादाद में लोग सड़कों पर निकल आते थे, रैलियां निकालते थे जिसमें औरतों और बच्‍चों की संख्‍या पुरुषों से भी ज्‍यादा होती। वे आज़ादी के हक़ में और भारत के खिलाफ नारे लगाते थे।

लोग अपने गांवों कस्‍बों से काफी लंबी दूरी तय कर के श्रीनगर आते और वहां स्थित युनाइटेड नेशंस मिलिटरी ऑब्‍जर्वर्स ग्रुप इन इंडिया एंड पाकिस्‍तान (यूएनएमओजीआइपी) के कार्यालय में अपना ज्ञापन सौंपते थे, जो वहां एलओसी के आरपार संघर्ष विराम की निगरानी करने के लिए तैनात था।

आम लोगों की इस वैश्विक संस्‍था तक आसान पहुंच हुआ करती थी जबकि आतंकवादी हर इलाके में मौजूद थे। गुप्‍तचर एजेंसियां निष्क्रिय हो चुकी थीं। उन्‍हें अंदाजा ही नहीं था कि घाटी में क्‍या चल रहा है। फारुख अब्‍दुल्‍ला की नेशनल कॉन्‍फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन वाली सरकार जनता के व्‍यवहार में इस बदलाव को देखकर चौंकी हुई थी। पर्यवेक्षकों का मानना है कि 1987 के चुनाव में बड़े पैमाने पर हुई हेरफेर से लोग बहुत नाराज़ थे जिसके चलते ऐसी विनाशक स्थिति पैदा हुई। चुनाव के दौरान नई उभरी पार्टी मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) परंपरागत दलों नेशनल कॉन्‍फ्रेंस और कांग्रेस को कड़ी टक्‍कर दे रही थी।

यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि चुनाव खत्‍म हो जाने के बाद एमयूएफ के जीते हुए प्रत्‍याशियों को न केवल हारा हुआ घोषित कर दिया गया बल्कि दंडित भी किया गया। अधिकतर को कैद कर लिया गया जहां उनकी न केवल पुलिस ने बल्कि एनसी के नेताओं ने भी पिटाई की।

इनमें एक मोहम्‍मद यूसुफ़ शाह थे जो अमीर कदल क्षेत्र से एमयूएफ के प्रत्‍याशी रहे, जो आज सैयद सलाउद्दीन के नाम से जाने जाते हैं और युनाइटेड जिहाद काउंसिल (यूजेसी) के प्रमुख हैं। चुनावों में हेरफेर और उसके बाद के घटनाक्रम ने एक विनाशक स्थिति पैदा कर दी। एमयूएफ के लोगों के साथ ऐसी ज्‍यादती हुई कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इनकी आस्‍था जाती रही और इन्‍होंने बाद में सामने से उग्रवाद का नेतृत्‍व किया। इन्‍हीं में मोहम्‍मद यासीन मलिक, अशफ़ाक़ लोन और अब्‍दुल हामिद शेख थे, जिन्‍होंने चुनाव के दौरान सक्रिय भूमिका निभायी थी।

पाकिस्‍तान ने इस हालात का फायदा उठाते हुए नाराज़ युवाओं के लिए अपनी बांहें फैला दीं और समूचे पाक अधिकृत कश्‍मीर में प्रशिक्षण शिविर खोल दिए। हज़ारों की संख्‍या में नौजवान सरहद पार कर के गए और हथियारों का प्रशिक्षण लेकर वापस आ गए।

हालात इतने नाजुक थे कि समूचा सरकारी तंत्र नाकाम हो गया और प्रशासन निष्क्रिय। लोग सड़कों पर थे जबकि नेता या तो घाटी से निकल लिए थे या भूमिगत हो गए थे। ऐसा लगता था गोया राज्‍य ने कश्‍मीर से पल्‍ला झाड़कर सड़क पर घूम रहे हज़ारों नौजवानों के रहम पर छोड़ दिया हो।

दिल्‍ली के लिए 1996 का आम चुनाव कराना टेढ़ी खीर था और यह सच साबित हुआ जब कम मतदान ने साबित कर दिया कि भारत ने कश्‍मीर में, खासकर पीर पंचाल और घाटी के इलाके में अपनी ज़मीन गंवा दी है।

वक्‍त बीता, सुरक्षा एजेंसियों ने हालात पर काबू किया और सरकार के हक में हालात तब्‍दील होने लगे। रैलियों के साथ सख्‍ती बरती जाने लगी और आतंकवादियों की धरपकड़ ने फल देने शुरू कर दिए। इस सिलसिले में कोई सत्‍तर हज़ार कश्‍मीरियों की जान चली गई, जिनमें 219 पंडित भी थे।

इस खूनी टकराव का सबसे बदनुमा हिस्‍सा अल्‍पसंख्‍यक कश्‍मीरी पंडितों का घाटी से पलायन था। वे खुद डर के मारे भाग गए या फिुर तत्‍कालीन राज्‍यपाल जगमोहन के कहने पर, यह आज तक दोनों समुदायों के बीच तय नहीं हो सका है। कड़वा तथ्‍य यह है कि इस अंधेरे दौर के ज़ख्‍मों को भरने में सदियां लग जाएंगी जब कश्‍मीर के बहुसंख्‍यक और अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के बीच उभरी खायी पाटी जा सकेगी, वरना तो दोनों एक ही विरासत और खून से आते हैं।

जो पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि नब्‍बे के दशक के बाद के वर्षों में आतंकियों के मुकाबले सुरक्षा बलों की कामयाबी कठोर नीति को अपनाए जाने और गुप्‍तचर तंत्र मजबूत किए जाने का नतीजा है, वे मौजूदा हालात को उसी का विस्‍तार मानते हैं जब इसके बजाय दरअसल राजनीतिक नज़रिये की ज्‍यादा दरकार है। इसके बजाय पूर्ववर्ती महबूबा मुफ्ती की सरकार और अभी राज्‍यपाल के माध्‍यम से केंद्र सरकार का राज अब अलगाववादी आंदोलन और उसके समर्थकों के सामने मुश्किल होता जा रहा है।

सेना के शीर्ष कमांडर जनरल बिपिन रावत ने तो सड़क पर प्रदर्शन कर रहे नागरिकों को ही आतंकवादी करार दे दिया है। उन्‍होंने चेतावनी जारी की कि इन्‍हें अब नागरिक नहीं माना जाएगा बल्कि अलगाववादियों का कार्यकर्ता मानकर इनके साथ कठोरता से निपटा जाएगा। यह कोई  खोखली चेतावनी नहीं थी चूंकि इसके जारी होने के बाद सुरक्षा बलों ने आतंकियों के खिलाफ अपनी कार्रवाई के क्रम में इसे साकार कर दिखाया।

मुठभेड़ों के दौरान छुपे हुए आतंकवादियों के समर्थन में बाहर निकलने वाले प्रदर्शनकारियों को गोली मारी गई और अब तो उनके खिलाफ़ पैलेट गन का इस्‍तेमाल आम बात हो चली है। रोज़ाना ही नागरिकों के मारे जाने या अंधा किए जाने की खबरें आती हैं। सैकड़ों लोग पुलिस की गोलीबारी में अब तक जान गंवा चुके हैं और हज़ारों की आंखों की रोशनी पैलेट गन से जा चुकी है। बावजूद इसके घाटी के विभिन्‍न हिस्‍सों, खासकर दक्षिण कश्‍मीर में सैकड़ों नौजवान सुरक्षाबलों और आतंकियों के बीच मुठभेड़ के दौरान आतंकियों को बचाने के लिए निकल कर बाहर आ जा रहे हैं।

आश्‍चर्य होता है इतनी सख्‍ती के बावजूद जनता क्‍यों बाहर निकलकर अपनी जान जोखिम में डाल रही है जबकि ऐसा पीछे कभी नहीं देखा गया। युवा आबादी में आखिर जान जाने का कोई डर अब क्‍यों नहीं रह गया है? इसे समझने के लिए आपको उग्रवाद की जड़ तक जाकर उसका पंचनामा करने की ज़रूरत है। ऐसा करने पर हम पाते हैं कि शुरुआत में अधिकतर लोगों ने आतंक का ग्‍लैमर के लिए चुना न कि किसी संकल्‍प के चलते। पहले आतंकी संगठन भी काडर भर्ती करने के लिए कोई कसौटी नहीं अपनाते थे। किसी का भी वहां स्‍वागत था जो उन्‍हें मजबूती दे सके। इसका नतीजा उग्रवाद के लिए घातक साबित हुआ क्‍योंकि हर किस्‍म के व्‍यक्ति ने बंदूक उठा ली और इनमें से ज्‍यादातर जनता को ही प्रताडि़त करने और वसूली करने में जुट गए। जो कोई ऐसे उग्रवाद का समर्थन करता, वह खुद को जंगल और खाई के बीच फंसा पाता था।

नतीजा यह हुआ कि उग्रवाद को समर्थन कम होने लगा, यहां तक कि उन्‍हें भी जो सच्‍ची जंग लड़ रहे थे। इस बदलाव के चलते सत्‍ता प्रतिष्‍श्‍ठान को हालात से निपटने में आसानी हुई और उसने सुरक्षाबलों की पकड़ को दोबारा कायम कर दिया। कुल मिलाकर लागों की राजनीतिक महत्‍वाकांक्षाएं अधूरी रह गई थीं। लोग सियासी संकट का एक न्‍यायपूर्ण समाधान चाहते थे।

इस अहम मोड़ पर जनता की वास्‍तविक शिकायतों को संबोधित करते हुए और एक स्‍थायी समाधान की ओर प्रयास करते हुए किसी भी सरकार को काम करना चाहिए था लेकिन इसके बजाय जनता के बदले हुए मूड का फायदा उठाकर केंद्र और राज्‍य की सरकारों ने अपनी कामयाबी की सनक में सख्‍ती की नीति जारी रखी और खुद शुतुरमुर्ग की तरह सिर छुपाकर बैइ गईं।

एक ओर खुद तैनात किए मध्‍यस्‍थों व वार्ताकारों की सिफारिशें कूड़ेदान के हवाले कर दी गईं, दूसरी ओर राजनीतिक असहमति और विरोध की जगह सिकुड गई।

इस आंग में घी का काम किया 2008 में अमरनाथ यात्रा के बाद 2009, 2010 और 2016 के उभार ने, जब पुलिस और सुरक्षाबलों ने नौजवानों के ऊपर आतंक तारी कर दिया। सैकड़ों नागरिकों की पुलिस गोलीबारी में मौत हो गई जबकि निर्दोष युवाओं को पकड़ कर बेतरह पीटा गया और हिरासत में नगा कर के परेड करवायी गई।

माछिल की फर्जी मुठभेड़ और बिना किसी जवाबदेही के स्‍कूली बच्‍चों को गोली मारा जाना, ऐसी घटनाओं ने युवाओं की समूची मानसिकता को ही बदल डाला। इसका युवा पीढ़ी के सोच पर असर पड़ा और उसकी हताशा का स्‍तर बढ़ता ही गया।

प्रताडि़ना के शिकार युवाओं ने खुद को जब निस्‍सहाय और फंसा हुआ पाया तो इन्‍होंने बंदूक उठा ली और सुरक्षाबलों से प्रतिशोध लेने लगे।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। बुरहान वानी जैसा मेधावी छात्र जो अच्‍छे खासे शिक्षित परिवार से आता था उसने बंदूक उठा ली ताकि अपपने गुस्‍से को रास्‍ता दे सके और शर्मिंदगी का बदला चुका सके।

पहले ज़माने के उग्रवादियों से उलट इन लड़कों में जबरदस्‍त इच्‍छाशक्ति होती है। वे सूचना प्रौद्योगिकी और आधुनिक गजटों का इस्‍तेमाल करना भी खूब जानते हैं। इसके इस्‍तेमाल से वे और लड़कों को अपनी जमात में शामिल होने के लिए प्रोत्‍साहित करते हैं। पिछले दो या तीन साल के दौरान काफी तेजी से इन्‍हें खत्‍म किए जाने के बावजूद इस चलन में कोई कमी नहीं आई है। इनके समर्थन में लोग भारी संख्‍या में अपने घरों से अब निकल रहे हैं, जान जोखिम में डाल रहे हैं, जिससे हर दिन बीतते हालात बदतर होते जा रहे हैं। हर एनकाउंटर के बाद दोनों पक्षों से जान जाती है। यह बेहद ख़तरनाक स्थिति है।

इस खूनी टकराव का दुर्भाग्‍यवश कोई अंत नहीं दिखता। केंद्र सरकार फिलहाल इस समस्‍या को संबोधित करने में कोई दिलचस्‍पी नहीं रखती बल्कि वह इस समस्‍या को ज़ोर-जबर से निपटाना चाहती है।

यहां राज्‍य सरकार की भूमिका अहम हो जाती है कि वह दिल्‍ली को सुधारात्‍मक उपाय और एक अमन नीति सुझा सकती थी, लेकिन निलंबित विधानसभा और राज्‍यपाल का राज होने के चलते फिलहाल अमन की बहाली दूर का सपना जान पड़ती है।

बीजेपी जहां 2019 का चुनाव जीतने के लिए इस समस्‍या को और कठोर नीतियों के रास्‍ते बरतना चाहती है वहीं नेशनल कॉन्‍फ्रेंस और कांग्रेस फिलहाल अपने वजूद के लिए लड़ रही हैं चूंकि दोनों के पास जनसमर्थन चुक गया है और दोनों किसी भी कीमत पर कुर्सी पर बने रहना चाहती हैं।

इस मोड़ पर यह याद रखा जाना होगा कि इन दलों ने मौजूदा वक्‍त में जो नज़रिया अपनाया हुआ है, उसके लिए इतिहास इन्‍हें कभी माफ नहीं करेगा।

इस बीच दिल्‍ली और श्रीनगर के बीच कायम संवादहीनता और अपनायी जा रही कठोर नीति की कश्‍मीर को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। यह हेठी हमें कहीं नहीं ले जाने वाली बल्कि इससे अमन की बहाली में और देर ही होगी, साथ ही और ज्‍यादा जिंदगियां तबाह होंगी।

वह जिंदगी चाहे किसी कश्‍मीरी की हो या वर्दीधारी जवान की।


लेखक कश्‍मीर के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं