प्राइवेट मेंबर बिल की नौटंकी पर श्रीराम अगर नाराज़ हुए तो?



विष्णु राजगढ़िया


श्रीराम अगर नाराज हुए, तो उनका पहला तीर किसे चुभेगा? भाजपा सांसद राकेश सिन्हा को!

और दूसरा तीर? भाजपा सांसद मनोज तिवारी को!

क्यों?

क्योंकि राममंदिर पर भक्तों को मूर्ख बना रही है भाजपा। यह श्रीराम के साथ भी छल है।

इन्हें मालूम है कि स्वयं श्रीराम के लिए मंदिर-मस्जिद कोई मुद्दा नहीं। इसीलिए इन्हें श्रीराम का डर नहीं!

दिल्ली में सीलिंग का बड़ा मामला है। व्यवसायियों की मांग है कि केंद्र इस पर अध्यादेश लाए। लेकिन दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का दोहरा दायित्व संभाल रहे मनोज तिवारी इस पर चुप हैं। उनके लिए राजनीति भी एक रंगमंच है। मुद्दों से मतलब नहीं। जो भूमिका मिले, कर लेंगे। बस, जनता का मनोरंजन होता रहे।

अकारण नहीं कि सांसद और दिल्ली बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष जैसे दो बड़े दायित्व के बावजूद मनोज तिवारी अक्सर भजन मंडलियों या मस्ती भरे गीतों के रंगारंग कार्यक्रमों में दिख जाते हैं। रीयल इस्टेट के प्रोजेक्ट और किसी उत्पाद के विज्ञापनों में भी दिखते हैं। दशहरे के मौके पर रामलीला कार्यक्रम में अंगद, सुग्रीव या रावण जैसे किसी भी पात्र की भूमिका में उछल-कूद कर सकते हैं। भले ही किसी विद्यालय समारोह में शिक्षिका अगर सम्मानपूर्वक गीत सुनाने का आग्रह करे, तो उसे अपमानित करें। नोटबंदी के बाद वह देशभक्तों का मजाक उड़ाते हैं। सिग्नेचर ब्रिज का उद्धाटन हो तो आमंत्रण नहीं मिलने के बावजूद 1200 लोगों के साथ एक घंटे पहुंचकर मंच पर चढ़ सकते हैं, धक्के खा सकते हैं और पुलिस अफसर की कॉलर पकड़ सकते हैं।

इस लंबे परिचय का आशय का आशय यह बताना है कि भारतीय लोकतंत्र में ऐसे सांसदों के लिए दिल्ली की सीलिंग और राम मंदिर का मुद्दा वैसा ही होता है, जैसा अंगद, सुग्रीव या रावण का अभिनय करना। मुद्दों से सरोकार होता, तो ऐसा खिलवाड़ नहीं होता। मनोज तिवारी ने सीलिंग का ताला तोड़ने की नौटँकी नहीं की होती। सुप्रीम कोर्ट ने डांट नहीं लगाई होती।

इस पृष्ठभूमि में देखें कैसे हुआ श्रीराम के साथ छल!

मनोज तिवारी ने राममंदिर पर लोकसभा में निजी विधेयक लाने का ऐलान किया है। इससे पहले राकेश सिन्हा भी राज्यसभा में निजी विधेयक लाने की घोषणा कर चुके हैं। कर्नाटक के धारवाड़ लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद प्रहलाद जोशी भी ऐसा ही करने वाले हैं। यानी सत्तापक्ष के ही तीन सांसद ऐसे निजी विधेयक लाएंगे, जो कभी पारित नहीं होंगे।

निजी विधेयक का यह कैसा खेल है? इसका उद्देश्य सिर्फ भक्तों और श्रीराम के साथ छल करना है।

क्या होता है निजी विधेयक? संसद में कोई कानून बनाने या संशोधन के लिए सरकार द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को विधेयक कहते हैं। कोई सांसद किसी विषय पर कानून बनाना चाहे, तो निजी विधेयक लाता है। आजादी से अब तक ज्यादातर निजी विधेयक मात्र प्रचार का अंग रहे। ज्यादातर पर चर्चा तक नहीं होती।

सत्ता पक्ष का कोई सांसद अगर निजी विधेयक लाए, तो इसका मतलब यह हुआ कि ऐसा कानून बनाने में सरकार की दिलचस्पी नहीं। अगर सरकार को वैसा कानून बनाना होता, तो वह खुद ले आती सरकारी विधेयक।

भाजपा अगर वास्तव में राम मंदिर पर कानून बनाना चाहती है, तो खुद क्यों नहीं लाती विधेयक?

जाहिर है कि निजी विधेयक सस्ती लोकप्रियता के लिए बंदरों जैसी उछलकूद के सिवा कुछ नहीं।

श्रीराम क्यों चलाएंगे मनोज तिवारी और राकेश सिन्हा की छाती पर तीर?

क्योंकि इन दोनों को लगता है कि श्रीराम को संसदीय प्रणाली की जानकारी नहीं।

सरकारी हो या निजी विधेयक, उसे दोनों सदनों से पास कराना है। एक सदन में जो विधेयक पारित होगा, उसे दूसरे सदन में भेजते हैं। यानी जो विधेयक एक सदन से पारित होगा, ठीक उसी प्रारूप पर दूसरे सदन में भी चर्चा होगी। अलग-अलग सदन में अलग-अलग विधेयक पारित करके कुछ नहीं मिलेगा।

ऐसे में भाजपा के तीन सांसदों द्वारा अलग-अलग विधेयक पेश करने की बात हास्यास्पद है।

निजी विधेयक का यह मामला मीडिया की टीआरपी और राजनीति की गंदगी का दिलचस्प उदाहरण है। किस्सा सुनिए।

कुछ दिनों पहले एक टीवी चैनल की बहस में भाजपा सांसद राकेश सिन्हा मौजूद थे। एंकर ने पूछा कि क्या आप संसद में राम मंदिर पर संसद में निजी विधेयक लाएंगे?

राकेश सिन्हा कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे सके। दोबारा पूछने पर टालने के अंदाज में धीरे से कहा कि अगर जरूरत होगी तो लाएंगे।

यानी उस वक्त तक राकेश सिन्हा का ऐसा इरादा नहीं था। लेकिन उनके जवाब पर एंकर ने चीखते हुए ब्रेकिंग न्यूज़ लगा दी- “हमारे चैनल से राकेश सिन्हा बड़ा ऐलान, राम मंदिर पर निजी विधेयक लाएंगे।”

उस वक्त राकेश सिन्हा का चेहरा उड़ा हुआ दिख रहा था। लेकिन कुछ ही घंटों में यह नेशनल न्यूज़ बन गया। भक्तों के लिए मानो कायरों के जीवन में रोमांच का क्षण आ गया हो।

राकेश सिन्हा को अंधे के हाथ बटेर लग गई थी। उन्होंने ट्विटा ट्विटी खेलना शुरू किया। हजारों शेयर मिले। राकेश सिन्हा रातोंरात भक्तों के भगवान बन गए। किसी ने नहीं पूछा कि क्या मोदी सरकार ने राममंदिर पर कानून बनाने से साफ़ इंकार कर दिया है, जो एक नामालूम सांसद को निजी विधेयक लाना पड़े।

राकेश सिन्हा की इस टीआरपी ने मनोज तिवारी में भी उत्साह ला दिया। दिल्ली में एमसीडी की विफलता और अन्य मुद्दों से निजात का अच्छा अवसर मिला। दिल्ली पूर्ण राज्य के मुद्दे पर उनके ढुलमुल रवैये और दिल्ली भाजपा संगठन में तीखी आंतरिक कलह ने भी परेशानी खड़ी कर रखी है। वैसे भी उन्हें मुद्दों से सरोकार नहीं, जो भूमिका मिलेगी, कर लेंगे।

भाजपा किस तरह छल कर रही है, इसे आसानी से समझें।

राम मंदिर का हल कैसे करेगी भाजपा, इस पर भक्तों को मूर्ख बनाते रहना है। रावण के दस मुंह की तरह दस बात कह रहे हैं भाजपा नेता। एक कहता है-  अध्यादेश लाओ। दूसरा कहता है- संसद में विधेयक लाओ।

केंद्र सरकार जब चाहे तब अध्यादेश ला सकती है। लेकिन नहीं ला रही। वह संसद में विधेयक भी पेश नहीं कर रही।

तब आखिर हिंदुओं के स्वयंभू नेता बार बार ऐसी मांग क्यों कर रहे हैं? मीडिया क्यों नहीं लिखता  कि “मोहन भागवत ने कहा अध्यादेश लाओ, मोदी ने इंकार किया।”

इस पर भी चर्चा नहीं होती कि जब भाजपा आरएसएस के बड़े नेता राम मंदिर पर कानून बनाने की बात कर रहे हैं, तो संसद में सरकारी विधेयक लाने की बजाय निजी विधेयक की नौटंकी क्यों हो रही है?

भाजपा का एक नेता कहता है कि कानून के जरिए रास्ता निकलेगा। दूसरा कहता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करो। तीसरा कहता है कि हम तो चढ़कर बना लेंगे। चौथा कहता है आम सहमति बने। पांचवां कहता है अध्यादेश लाओ। छठा कहता है सरकारी विधेयक लाओ। सातवां कहता है निजी विधेयक लाएंगे। आठवां कहता है धैर्य रखो। नौवां कहता है अब बर्दाश्त नहीं होगा। दसवां कहता है क़ुरबानी देनी होगी।

हालांकि क़ुरबानी देने के वक्त भाजपा के सांसद विधायक नहीं जाते। वहां बेरोजगारों की वह भीड़ जाती है, जो गुजरात महाराष्ट्र में दिहाड़ी मजूरी करके गालियां खाती है, और राम मंदिर पर निजी विधेयक की नौटँकी से मूर्ख बनती है।

क्या है यह सब? क्या है? क्या है यह? हूँ? क्या है?

क्यों कर रहे हो भाई, किसे मूर्ख बना रहे हो? सिर्फ भक्तों को? या श्रीराम को भी छल रहे हो?

चार साल में मोदी सरकार ने मंदिर-मस्जिद, श्मशान और कब्रिस्तान की राजनीति करके देश को उलझाया है। एक नागरिक के नाते यह हमारे लिए दुःस्वप्न जैसा है।

जबकि इसी देश की दिल्ली में तमाम शक्तियां छीन लिए जाने और केंद्र की तमाम बाधाओं के बावजूद आम आदमी पार्टी की सरकार ने स्कूल, अस्पताल, विकास और सुशासन को संभव बनाया है। इस पर चर्चा होनी चाहिए। हम जिस भी राजनीति से प्रभावित हों, विकास पहला एजेंडा रहे। वरना हम अपने बच्चों को साक्षात नरक में धकेल रहे होंगे, खुद के साथ तो जो हुआ, सो हुआ!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। राँची में रहते हैं।