पार्टियों ने फिर दिखाया सूचना आयोग को ठेंगा, मीडिया के लिए खबर नहीं !



(मीडिया विजिल लगातार जनहित के ऐसे मामले उजागर कर रहा है, जिस पर मीडिया की कथित मुख्यधारा खामोश  है। वैकल्पिक मीडिया की जरूरत इसी के लिए है। फिलहाल देश की राजनीतिक पार्टियों ने केंद्रीय सूचना आयोग को पंगु बनाने के लिए अपवित्र गंठजोड़ बना रखा है। सात सितंबर की एक खबर, जिसे मीडिया ने छुपाए रखा।)

विष्णु राजगढ़िया

 

देश की राजनीतिक पार्टियों ने एक बार फिर केंद्रीय सूचना आयोग को ठेंगा दिखाया। आयोग ने सात सितंबर को सभी सांसद विधायक के फंड की सूचना वेबसाइट पर सार्वजनिक करने पर सभी पार्टियों का जवाब मांगा था। लेकिन इस आदेश की सबने उपेक्षा करके साबित कर दिया कि उन्हें देश के कानून की परवाह नहीं है।

हैरानी की बात यह है कि मामूली विषयों पर लंबा कवरेज करने वाले इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लिए यह कोई समाचार नहीं बना। जबकि यह मामला देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकने और विकास कार्यों में पारदर्शिता के साथ ही देश में कानून का राज स्थापित करने से भी जुड़ा है। ऐसे गंभीर विषयों को मीडिया द्वारा पूरी तरह नजरअंदाज कर देना देश में लोकतंत्र पर एक बड़े खतरे की घंटी है। आइये, देखें कि यह मामला क्या है।

केंद्रीय सूचना आयोग ने 18 अगस्त को एक अंतरिम फैसले में यह महत्वपूर्ण निर्देश दिया था। सूचना का अधिकार के अंतर्गत एक नागरिक विष्णुदेव भंडारी ने भारत सरकार के सांख्यिकी एवं योजना विभाग से मधुबनी (बिहार) में सांसद मद के कामों की सूचना मांगी थी। मधुबनी लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव हैं। सूचना नहीं मिलने पर मामला केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा। केंद्रीय सूचना आयुक्त प्रो. एम. श्रीधर आचार्युलु ने इस पर अंतरिम आदेश में लोकसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक अथवा नेता से पूछा था कि क्यों न भाजपा संसदीय दल को ‘लोक प्राधिकार‘ का दरजा दे दिया जाए। आयोग ने भाजपा के साथ ही अन्य सभी दलों के सांसद औऱ विधायकों को अपने क्षेत्रीय विकास मद के सभी काम के चयन के मापदंड, चयनित कायों की सूची तथा प्रगति की सूचना वेबसाइट पर देने का निर्देश दिया था।

आयोग ने इन विषयों पर सभी दलों के साथ ही सामाजिक संगठनों तथा नागरिकों की भी राय मांगी थी। विषय था- क्या सभी विधानमंडल और संसदीय दलों को सूचना कानून के दायरे में लाया जाए?

लेकिन सभी राजनीतिक दलों ने इस आदेश पर चुप्पी साध ली। जबकि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत राजनीतिक दलों की पारदर्शिता पर सूचना आयोग का स्पष्ट फैसला आ चुका है। केंद्रीय सूचना आयोग ने तीन जून 2013 को देश के छह राष्ट्रीय दलों को सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत ‘लोक प्राधिकार‘ घोषित किया था। लेकिन यह आदेश चार साल बाद भी अब तक लागू नहीं हो पाया है। कांग्रेस, भाजपा, बसपा, एनसीपी, सीपीएम और सीपीआइ को लोक प्राधिकार के तौर पर सूचना देने के मामले की विशेष सुनवाई 16 से 18 अगस्त 2017 से रखी गई थी। लेकिन तकनीकी कारण से उसे स्थगित कर दिया गया।

राजनीतिक दलों का सूचना कानून के प्रति ऐसा नकारात्मक रवैया हैरान करने वाला है। वामदलों की भय-ग्रंथि भी समझ से परे है। इसके कारण वाम कार्यकर्ताओं के एक बड़े हिस्से को आरटीआइ से दूर रखा गया। उल्टे, सीपीआई और सीपीएम ने इसके दायरे में आने से बचने के लिए कांग्रेस, भाजपा, बसपा और एनसीपी के साथ अपवित्र गंठबंधन बना लिया। इस पर वामपंथी कार्यकर्ताओं को शर्मिंदा होना पड़ रहा है।

इस बीच एक हैरान करने वाला तथ्य सामने आया। इससे पता चलता है कि सीपीआई, सीपीएम जैसी पार्टियों को भी RTI से डर क्यों लगता है। RTI से पता चला है कि संसद से सबसे ज्यादा यात्रा भत्ता लेने वाले टॉप के दो नाम सीपीआई और सी.पी.एम. के हैं। सीपीएम सांसद रिताब्रत बनर्जी ने एक साल में 69 लाख रुपये का टीए-डीए वसूला जो सबसे ज्यादा है। दूसरे नंबर पर 65 लाख वसूलने वाले सीपीआई सांसद डी राजा हैं। आरटीआई कार्यकर्ता दिनेश चड्ढा ने यह सूचना निकाली। पता चला कि सीपीएम सांसद रिताब्रत बनर्जी ने कोलकाता से दिल्ली सिर्फ एक तरफ जाने के एयर टिकट का हर बिल 49205 रुपया क्लेम किया।  इस पर अन्य भत्ता जोड़कर सिर्फ कोलकाता से दिल्ली पहुंचने का 70 हजार रुपया वसूल लिया। जबकि कोलकाता से दिल्ली की हवाई यात्रा मात्र सात हजार में होती है। यानी दस गुना ज्यादा।

इसी तरह, सीपीआई सांसद डी राजा ने दिल्ली से चेन्नई जाने के नाम पर 82,301 रुपये वसूल लिए। जबकि यह टिकट सात-आठ हजार में मिल जाती है।

अब ऐसे मामले आरटीआई से उजागर होने से कम्युनिस्ट नेताओं की भी सादगी की पोल खुल रही है। यही कारण है कि सीपीआई सी.पी.एम. ने RTI कानून को कमजोर करने के लिए भाजपा, कांग्रेस, एनसीपी और बसपा से सांठगांठ कर रखी है।

इस संबंध में सीपीआइ सांसद डी राजा का यह स्टेटमेंट भी हास्यास्पद है कि सरकार इस बाबत संशोधन लाए तो वह समर्थन करेंगे। यह तर्क वैसा ही है, जैसे कोई चोरी करते हुए पकड़े जाने के बाद कहे कि अगर कानून बना दो तो मैं चोरी करना बंद कर दूंगा।

यह उदाहरण देश में वामपंथी आंदोलन की कमजोरी का प्रतीक है। जनता के धन का दुरुपयोग ऐसी महंगी यात्रा के नाम पर न हो, इसके लिए खुद ही कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को ऐसा संशोधन प्रस्तावित करना चाहिए था। इस पर सवाल उठाना तो दूर, खुद सीपीआइ और सीपीएम नेताओं ने सबसे ज्यादा यात्रा भत्ता लेने का रिकॉर्ड बनाकर वाम आंदोलन का मजाक उड़ाया है।

राजनीतिक दलों द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग की उपेक्षा भी चिंताजनक है। चुनाव आयोग की ही तरह सूचना आयोग भी एक स्वायत्त संस्था है। लेकिन चुनाव आयोग के आगे थर-थर कांपने वाली पार्टियां सूचना आयोग को ठेंगा दिखा रही हैं। जबकि दोनों की वैधानिक स्थिति समान है।

दिल्ली निवासी चर्चित आरटीआई कार्यकर्ता श्री सुभाषचंद्र अग्रवाल ने कहा कि राजनीतिक दलों को पारदर्शी बनाने के अभियान के अंतर्गत मैं सात सितंबर को इस मामले की सुनवाई देखने आयोग गया था। लेकिन वहां किसी पार्टी का प्रतिनिधि नहीं आया। श्री अग्रवाल ने सुझाव दिया कि आयोग के पास अगर राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों तथा कार्यकर्ताओं के विचार आए हों, तो सबको विधिवत दस्तावेज में शामिल करके सार्वजनिक करना चाहिए ताकि इस पर समुचित निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके।

मीडिया विजिल ऐसे मामले आप तक पहुंचाता रहेगा ताकि आप मीडिया औऱ राजनीतिक दलों से जरूरी सवाल पूछ सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता हैं)