बंगाल में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या, ‘रोबो पब्लिक’ और लहूलुहान लोकतंत्र के ख़तरे!



रवीश कुमार

 

इससे पहले की तमाम हत्याओं पर चुप रहने वाले और उनसे सहानुभूति रखने वाले ज़ोम्बी जगत के लोग बंगाल में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या को लेकर पूछने आ जाएं, बंगाल की हिंसा पर किसी औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि वाकई कुछ किए जाने के लिए लिखा और बोला जाना चाहिए। यह घटना शर्मनाक है।

भीड़ की राजनीति हर जगह अब जगह ले चुकी है। इसके विस्तारकों के लिए इस तरह की हत्याएं एक मौक़े से ज़्यादा कुछ नहीं है। मगर भीड़ मुक्त अहिंसक लोकतंत्र में यक़ीन रखने वालों के लिए यह ख़तरनाक संकेत है। इस तरह की घटनाएं राजनीति का रास्ता कुछ ख़ास लोगों के लिए सुरक्षित कर रही हैं। जिनके पास पैसा है और जिनके पास ताकत है।

बंगाल की यह घटना बताती है कि ज़मीन पर राजनीति करना उतना ही मुश्किल होता जा रहा है जितना पैसे वालों के दबाव से मुक्त होकर राजनीति करना। बीजेपी के इस दलित कार्यकर्ता को इसलिए मार कर टांग दिया गया क्योंकि यह पार्टी की तरफ़दारी कर रहा था। किसी भी लिहाज़ से वह लोकतंत्र में एक वैधानिक काम कर रहा था। किसी दल का समर्थन करना ग़ैर कानूनी या अनैतिक कार्य तो नहीं है।

राजनीतिक हिंसा के चपेटे में बंगाल में हर दल के कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं। बिल्कुल केरल की तरह। इन दोनों राज्य में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के हाथ में हिंसा का हथियार है। फर्क सिर्फ इतना है कि जिसके पास सत्ता है उसके पास क्रूरता के कई तरीके हैं और वो ज़्यादा क्रूर है। विपक्ष भी वही खेल खेल रहा है। मारे जा रहे हैं आम लोग जो फ्रंटलाइन पर किसी पार्टी के लिए काम करते हैं।

बंगाल के पंचायत चुनावों के पहले और बाद में हुई हिंसा को लेकर कितनी आलोचना हुई, मगर उसका कुछ असर नहीं हुआ। चुनाव के बाद भी हिंसा जारी है। राज्य के राजनीतिक दल कभी हिंसा को लेकर ईमानदार नहीं रहे। किसी ने धार्मिक जुलूस को बहाना बनाया तो किसी ने अकेले में घात लगाया तो किसी ने घर ही फूंक देने का प्लान बनाया। ममता बनर्जी आग से खेल रही हैं। लंबे समय से वही सत्ता में हैं इसलिए हिंसा की इस संस्कृति को न रोक पाने की जवाबदेही उन्हीं की है। यह भी शर्मनाक है कि उनका ही कार्यकर्ता क्यों मारा जाता है, क्या उनके कार्यकर्ता भी सुरक्षित नहीं हैं। या इतने बेलगाम हो चुके हैं कि बीजेपी के कार्यकर्ता सुरक्षित नहीं हैं।

अफसोस है कि इस हत्या के बाद भी हिंसा को ख़त्म करने पर सहमति नहीं बनेगी, इसका इस्तमाल होगा, दूसरी जगहों की हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए। कार्यकर्ताओं को समझना चाहिए कि बड़े नेताओं के खेल में उसका इस्तमाल हो रहा है। उसकी जान की कीमत पर या फिर उसे मुकदमों में फंसा कर कुछ लोगों के सत्ता सुख भोगने का इंतज़ाम हो रहा है। काश एक बार ये कार्यकर्ता ही विद्रोह कर देते।

26 मई के हिन्दू में सुभोजित बागची की ख़बर है कि बंगाल झारग्राम और पुरुलिया ज़िले में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा है। झारग्राम के एक ब्लाक में बीजेपी ने आदिवासी समन्वय मंच के लिए सीट छोड़ दी। इसे सीपीआई माओवादी का समर्थन हासिल है। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने भी रिपोर्टर से माना है कि आदिवासी समन्वय मंच से समझौता था। हमारा कोई औपचारिक समझौता नहीं है मगर हम दोनों टीएमसी से लड़ रहे थे। हम उन्हें जानते हैं और भविष्य में काम भी कर सकते हैं। घोष ने माओवादी से समझौते की बात से इंकार किया है। लेकिन माओवादियों ने आदिवासी समन्वय मंच को वोट देने के लिए उन जगहों पर अपील जारी की थी जहां बीजेपी ने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। पोस्टर भी लगाए थे।

अगर ऐसा है तो बंगाल में अभी ख़ून ख़राबा और होना तय है। वाम सरकार के ज़माने से इसकी ख़ूनी राजनीति अपनी जगह पर बनी हुई है। बस इसे निभाने वाले किरदार बदलते रहते हैं। बीजेपी के दलित कार्यकर्ता की पुरुलिया में ही हत्या हुई है जिसे मार कर पेड़ से टांग दिया गया है। लाश पर चेतावनी चिपका दी गई है कि बीजेपी का समर्थन करने पर यही हश्र होगा।

तीन दिन पहले हैदराबाद में भीड़ ने एक ट्रांस-महिला को मार दिया, क्योंकि व्हाट्स अप से अफ़वाह फैल गई कि वो बच्चा चुराती है। पुलिस ने दो छात्रों को इस मामले में गिरफ्तार किया है। इन पर आरोप है कि इन्होंने फेक वीडियो बनाकर व्हाट्स अप वायरल किया है। इसी तरह की घटना पिछले साल झारखंड में हो चुकी है। व्हाट्स से फैले अफ़वाह के कारण एक भीड़ बन गई है और उसने खोज कर कुछ लोगों की हत्या कर दी और कुछ को घायल कर दिया।

भारत वाक़ई ज़ोम्बिस्तान बनते जा रहा है। हर जगह एक पब्लिक तैयार है, जिसे मैं रोबो पब्लिक कहता हूं। उस पब्लिक को एक अफवाह की ज़रूरत होती है, उकसावे की ज़रूरत होती है वह भभक उठती है। किसी पर टूट पड़ती है। इस भीड़ को कभी विचारधारा और झूठे प्रोपेगैंडा से भभकाया जाता है तो कभी सत्ता के वर्चस्व के झूठे अहंकार के ज़रिए। मगर इन दोनों तरह की भीड़ एक होती जा रही है।

इसलिए हिंसा का विरोध कीजिए, सिर्फ घटना का नहीं, उस घटना के आस पास होने वाली प्रक्रिया को भी समझिए। चाहे वो किसी दल की सरकार वाले राज्य में होती हो, चाहे उसमे किसी विचारधारा से प्रेरित लोग शामिल हों या फिर अचानक आए गुस्से से तैश में आकर हिंसा करने वाले लोग हों। आप लिखें तब भी विरोध करें, न लिख पाएं तब भी विरोध करें। यह मामला हाथ से जा चुका है, इसे रोकने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। नेतवा सब नहीं करेगा, आपको करना पड़ेगा।

 

रवीश कुमार मशहूर टी.वी.पत्रकार हैं।