भारत में ‘जोकपाल’ ही बना पर चीन ने बना दिया लोकपाल !



भारत का मीडिया, ख़ासतौर पर हिंदी के अख़बार और चैनल कई दिनों से चीन के राष्ट्रपति राष्ट्रपति शी चिनफिंग आजीवन पद पर बने रहने की हेडलाइन चला रहे हैं, जबकि चीनी संसद ने इस पद पर अधिकतम दो बार रहने की सीमा को ही ख़त्म किया है, न कि चिनफिंग को हमेशा के लिए सम्राट चुना है। भविष्य में उन्हें पद से हटाया भी जा सकता है। चीनी संसद का ये फ़ैसला जिस ख़ास परिस्थितियों में हुआ , उसे जानना चाहिए। इसकी एक बड़ी वजह भ्रष्टाचार है और चिनफिंग ने इस पर लगाम लगाने के लिए हर स्तर पर लोकायुक्त या लोकपाल जैसी व्यवस्था करने का फैसला लिया है। तो ‘तानाशाह चिनफिंग’ वह कर रहे हैं जिसके ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक भारत के प्रधानसेवक मोदी जी पूरी ताक़त लगाए हुए हैं। आज से नहीं तब से  ही, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। तब भी उन्होंने गुजरात में लोकायुक्त नियुक्त नहीं होने दिया था और केंद्र में चार साल बिता लेने के बावजूद लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने दी। वे भूल गए कि केंद्र में उनकी सरकार जंतर-मंतर में लोकपाल के नाम पर उमड़ी जनता के आक्रोश का भी नतीजा है। पेश है इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण की एक टिप्पणी –

 

भ्रष्टाचार, तानाशाही और शी चिनफिंग का चीन

 

चीनी संसद के फिलहाल जारी सत्र के जिस एक फैसले की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है, वह है सत्ता शीर्ष पर पांच-पांच साल के अधिकतम दो कार्यकालों की समय-सीमा समाप्त कर दिया जाना। निश्चित रूप से यह खुद में एक बहुत बड़ा मामला है, जिस पर हम बाद में बात करेंगे। लेकिन इससे ज्यादा बड़ा फैसला वहां लोकपाल और लोकायुक्त की तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोधी संवैधानिक संस्था के रूप में सुपरवाइजरी कमिशनों की स्थापना का है, जिसपर कोई बात ही नहीं हो रही है।

भ्रष्टाचार अभी पूरी दुनिया के लिए और खास तौर पर भारत-चीन जैसे विकासशील देशों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। यह एक विडंबना है कि 2011-12 में जितना बड़ा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भारत में चला, उसके नजदीक पहुंचने वाली कोई सुनगुन तक कभी चीन में देखने को नहीं मिली। लेकिन भारत में केंद्रीय सत्ता आज भी संसद द्वारा पारित किए जा चुके लोकपाल बिल को अमल में उतारने में आनाकानी कर रही है। यहां तक कि इस बारे में कई बार आई सुप्रीम कोर्ट की हिदायत की भी अनदेखी कर रही है।

इसके विपरीत चीन में वहां की सरकार ने तीन-स्तरीय (केंद्र, प्रांत और काउंटी स्तर पर) लोकपाल और लोकायुक्त जैसे ही सुपरवाइजरी कमिशन की स्थापना का फैसला कर लिया है। एक कम्युनिस्ट मुल्क में फैसले और अमल के बीच कोई फासला कभी देखने को नहीं मिलता। लिहाजा इसमें कोई शक नहीं कि यह साल बीतने से पहले ही ये कमीशन वहां कामकाजी स्थिति में नजर आने लगेंगे। इनके बल पर चीन में भ्रष्टाचार का समापन हो सकेगा या नहीं, यह बात और है क्योंकि बीमारी वहां बहुत गहरी है।

मौजूदा चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के हाल ही में समाप्त हुए पांच वर्षों के पहले कार्यकाल में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के 15 लाख से भी ज्यादा सदस्य भ्रष्टाचार के आरोप में दंडित किए गए हैं। पार्टी का दिमाग कहलाने वाले पॉलित ब्यूरो के सात सदस्यों को ऐसे ही आरोपों में अदालतों द्वारा अलग-अलग सजाएं सुनाई गई हैं। और तो और, शीर्ष स्तर से भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 35 सदस्यीय सेंट्रल डिसिप्लिनरी कमिटी के भी 9 सदस्य ऐसे ही आरोपों में किसी न किस्म की सजा भुगत रहे हैं।

चीनी संसद में पारित कानून के मुताबिक सुपरवाइजरी कमिशन वहां केंद्रीय मंत्रिमंडल और केंद्रीय सैन्य आयोग जैसी ही, लेकिन वरीयता क्रम में तीसरे नंबर की संवैधानिक संस्था होगा। इसकी इकाइयों की दोहरी जवाबदेही तय की गई है। वे अपने से ऊपर वाली इकाई के अलावा अपनी विधायी संस्था के प्रति भी जवाबदेह होंगी। अभी चीन में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम सरकारी तथ्यों और आंकड़ों को अधिक पारदर्शी बनाने के रूप में चल रही है, जिसका स्वरूप अपने देश में मौजूद सूचना के अधिकार जैसा है। देखना है, सुपरवाइजरी कमिशन इस प्रक्रिया को कितना आगे ले जाते हैं।

रही बात दस साल के कार्यकाल की अधिकतम सीमा समाप्त हो जाने के बाद शी चिनफिंग को आजीवन राज करने की इजाजत मिल जाने की, तो इस आशंका में बड़ा अतिरेक है। बतौर राजनेता शी फिलहाल चीन में काफी लोकप्रिय हैं लेकिन सत्ता शीर्ष पर कार्यकाल की सीमा समाप्त करने की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी संसद की पहल का न तो उनकी लोकप्रियता से कुछ लेना-देना है, न ही बतौर राजनेता उनकी हनक का। सचाई यह है कि चीन की पूरी व्यवस्था इस सदी में मूलभूत जड़ता की एक कहीं ज्यादा गहरी समस्या का सामना कर रही है, जिससे निपटने के लिए उसे कड़वी दवा का यह घूंट अपने गले उतारना पड़ा है।

माओ त्सेतुंग के अंतिम दौर की घनघोर अराजकता से चीन को अकेले दम पर बाहर निकाल लाने वाले नेता तंग श्याओफिंग की पहल पर 1982 में वहां यह संविधान संशोधन किया गया था कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पदों पर कोई भी व्यक्ति दस साल से ज्यादा नहीं रह सकता। कई लोगों को यह संशोधन खुद में बेमानी लगता था, क्योंकि इन पदों पर पहले भी कोई व्यक्ति वहां दस साल से ज्यादा नहीं रहा था। लेकिन असल पेच यहां नहीं, इस बात में था कि कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही देश का कार्यकारी नेतृत्व भी संभालेगा।

1965 से 1975 तक चले सांस्कृतिक क्रांति के दौर में आधुनिक चीन के राष्ट्रपिता जैसे दर्जे वाले माओ त्सेतुंग ने गड़बड़ यही की कि इन दस वर्षों में किसी भी कार्यकारी पद पर न होने के बावजूद पार्टी पर अपनी एकछत्र सत्ता के बल पर उन्होंने सरकार को कठपुतली बना छोड़ा और उनके अंतिम वर्षों में तो चीन में कानून-व्यवस्था जैसी कोई चीज ही नहीं बची। इसी राष्ट्रीय आत्मघात के दोहराव से बचने के लिए चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लिए ही सरकार चलाने का कानून बना, ताकि कार्यकारी सत्ता से ऊपर या उसके समानांतर और कोई भी सत्ता वहां न पनपने पाए।

अभी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को लग रहा है कि भीतर-बाहर तेज तकनीकी तरक्की और भारी उथल-पुथल के मौजूदा दौर में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व संभालने के लिए, उसे कोई दूरगामी दिशा देने के लिए दस साल का वक्त बहुत कम है। इस बीमारी का एक इलाज बीच-बीच में पार्टी और सरकार का नेतृत्व अलग-अलग रखना भी हो सकता था, लेकिन इसके खतरों से चीनी कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह वाकिफ हैं। ऐसे में चोटी के सरकारी पदों के लिए दस वर्षों के कार्यकाल की ऊपरी सीमा समाप्त करने के सिवाय कोई चारा उनके पास नहीं था, भले ही इसका नतीजा कुछ भी क्यों न हो।