फ़ेक न्यूज़ और ख़तरे में लोकतंत्र


फेक न्यूज के लिए डिसइनफॉर्मेशन शब्द का इस्तेमाल करने लगे हैं,




गीता यादव

भारत में लोकतंत्र देर से आया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि तमाम झंझावातों के बीच यह टिका हुआ है. 1940 और 1950 के बीच उपनिवेशवाद की जकड़न तोड़कर आजाद हुए कई देशों ने लंबे समय तक सैनिक शासन देखा या अराजकता में डूबे रहे. इस समय आजाद हुए कई देश बिखर भी गए. अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के मुकाबले भारत का लोकतंत्र का सफर लगभग 150 साल देर से शुरू हुआ. भारतीय लोकतंत्र न सिर्फ देर से आया है बल्कि ये एक ऐसे समाज में आया है जिसकी अपनी कमियां-खामियां भी हैं. इनमें से कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जिनसे पुराने लोकतंत्रों का वास्ता नहीं पड़ा है.

1947 में भारत के आजाद होने के बाद संविधान सभा ने संविधान बनाने का काम शुरू किया. संविधान सभा ने भारतीय लोकतंत्र के लिए कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियों को चिन्हित किया. इसमें व्यक्ति पूजा, अपनी मांगों को पूरा करने के लिए अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल और भारतीय समाज की आर्थिक और सामाजिक असमानता को महत्वपूर्ण चुनौती और खतरा माना. इसमे से तीसरे बिंदु पर ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. बी. आर. आंबेडकर का काफी जोर था और उनका मानना था कि अगर इन असमानताओ को दूर नहीं किया गया तो इतनी मेहनत से तैयार किया गया संवैधानिक लोकतंत्र का ढांचा नहीं बचेगा.

खतरे की घंटी बजाए जाने के बावजूद भारत में व्यक्ति पूजा बंद नहीं हुई और अलोकतांत्रिक और कई बार हिंसक तरीके से अपनी मांग मंगवाना भी बंद नहीं हुआ. आर्थिक असमानता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ी है और सामाजिक और जातीय भेद खत्म नहीं हुए हैं. लेकिन भारतीय लोकतंत्र इन खतरों को झेल गया. बहरहाल आजादी के बाद की लोकतंत्र की यात्रा में कई नई चुनौतियां सामने आईं. इनमें चुनाव में धन का बढ़ता असर, राजनीति का अपराधीकरण, धर्म, भाषा और जाति के नाम पर मतदाताओं को ध्रुवीकरण जैसी समस्याओं का उल्लेख आवश्यक है.

क्या है फेक न्यूज की समस्या?

हाल के वर्षों में भारतीय लोकतंत्र एक नई समस्या के मुकाबिल है. यह समस्या डिसइनफॉर्मेशन या फेक न्यूज की है, जिसके जरिए जनमत को प्रभावित करने की संगठित तरीके से कोशिश की जा रही है.पश्चिमी देशों में ये समस्या बहुत बड़े रूप में सामने आई है और वहां के राष्ट्रीयविमर्श में फेक न्यूज एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. समस्या की गंभीरता का अंदाजा इसबात से लगाया जा सकता है कि ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस, यूरोपियन यूनियन और संयुक्त राष्ट्र में इस बारे में बाकायदा स्टडी हो चुकी है और रिपोर्ट आ चुकी है तथा सरकारेंइस बारे में विचार कर रही हैं. अमेरिका में इस बात की जांच हो रही है किराष्ट्रपति चुनाव में रूस से आने वाली फर्जी खबरों ने कितनी भूमिका निभाई.

ये सभी जांच और रिपोर्ट डिजिटल माध्यम से फैलाई जा रही संगठित गड़बड़ियों के बारे में है.

फेक न्यूज की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं बन पाई है. बल्कि अब ज्यादातर पक्ष इस बारे में सहमत होने लगे हैं कि फेक न्यूज शब्द से समस्या को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता. क्योंकि फेक न्यूज कईबार पूरी तरह फर्जी या काल्पनिक नहीं होती. इसमें अक्सर चुने हुए तथ्यों को भीशामिल किया जाता है, ताकि पढ़ने या देखने वाले की नजर में उसकी विश्वसनीयतास्थापित हो. इसमें ऑटोमेटेडएकाउंट से माहौल बनाने से लेकर, मार्फ्ड फोटो, डॉक्टर्ड वीडियो, चुने हुए लोगों तक खास बात को पहुंचाना, किसी के बारे में गलत जानकारी को बार-बार एक समुदाय तक ले जाना, किसी की संगठित ट्रोलिंग यानी सोशल मीडिया परकिसी को बदनाम करने से लेकर उसे धमकी देना आदि शामिल है.

इसके जरिए अक्सर बातचीत के पूरे दायरे को ही बदल दिया जाता है. इसका मतलब सिर्फ खास तरह के रूझान वाले अर्धसत्य या पूरी तरह से झूठी सूचनाओं को निर्माण ही नहीं, इसका प्रचार-प्रसार भी शामिल है. ये अखबारों और रेडियो-टीवी के दौर के आगे की बात है क्योंकि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने टार्गेटेड मिसइनफॉर्मेशन के रास्ते खोल दिए हैं. ये पुरानी मीडिया में इतने वैज्ञानिक तरीके से नहीं हो सकता.

अब ज्यादातर रिसर्चर और विद्वान फेक न्यूज के लिए डिसइनफॉर्मेशन शब्द का इस्तेमाल करने लगे हैं, क्योंकि ये शब्द इस समस्या के विस्तार को बेहतर तरीके से समेटता है.

इसके दायरे में ब्लैकमेलिंग, हिंसा भड़काने वाली खबरों का प्रसार, डिफेमेशन आदि को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि इन बातों को लेकर पहले से कानून मौजूद हैं. इसके अलावा व्यंग्य और हास्य के लिए सूचनाओं का इस्तेमाल, जिसमें लोगों को पता हो कि वह व्यंग्य या हास्य सामग्री पढ़ रहा है, भी फेक न्यूज या डिसइनफॉर्मेशन में शामिल नहीं है.

क्या भारतीय लोकतंत्र के लिए भी फेक न्यूज या गलत जानकारियों का विस्तार कोई खतरा है?

किसी भी बड़े लोकतंत्र में जनमत निर्माण में मास मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका होती है. कुछ विद्वानों का मानना है कि मीडिया ही समाज के मुद्दे तय करता. इसे एजेंडा सेटिंग थ्योरी कहा जाता है. इस थ्योरी के मुताबिक मीडिया बेशक ये तय नहीं कर पाता कि नागरिक किस मुद्दे पर किस तरह से सोचें, लेकिन वे किन मुद्दों के बारे में सोचें, ये काफी हद तक मीडिया ही तय करता है. ऐसे भी भारत जैसे बड़े देश में जहां लोकसभा सीटों में अक्सर 10 लाख या उससे भी ज्यादा मतदाता होते हैं, नेताओं और राजनीतिक दलों के कामकाज और कमजोरियों के बारे में लोगों को जानकारी मीडिया से ही मिलती है.

कोई भी लोकतंत्र ठीक से काम करे और लोग अपने फैसले सही और लोकतांत्रिक तरीके से ले सकें, जिसमें वोटिंग का फैसला शामिल है, के लिए चार जरूरी शर्तें हैं. एक, पारदर्शिता. नागरिकों को पता होना चाहिए कि समाचार का स्रोत क्या है और जो सूचना दे रहा है, उसे अपना काम के लिए धन कहां से मिल रहा है. दो, विविधता. ऑनलाइन और परंपरागत दोनों माध्यमों में विचारों और सूचनाओं की विविधता होनी चाहिए ताकि लोग सोच समझकर कोई राय बना सकें और पक्ष और विपक्ष दोनों पहलुओं को ध्यान में रखें. तीन, विश्वसनीयता. लोगों को पता होना चाहिए कि उन्हें जो जानकारी दी जा रही है, वह भरोसा करने योग्य है और कोई उन्हें गलत जानकारियां देकर उनकी राय को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर रहा है. और चार, समावेश या इनक्लूसन. तमाम पक्षों की बातों और उनकी राय का ध्यान सूचनाएं और समाचार देते समय किया जाना चाहिए.

ऐसा भी नहीं है कि पारंपरिक मीडिया इस काम को शानदार तरीके से कर रहा था. पारंपरिक मीडिया प्लेटफॉर्म का भी नेताओं, राजनीतिक दलों और जातीय तथा धार्मिक समूहों के पक्ष और विपक्ष में रुझान होता है. वे किसी के पक्ष और किसी के विपक्ष में सूचनाएं और समाचार प्रसारित करते हैं. आर्थिक और अन्य लाभ या लोभ के लिए समाचारों के साथ खिलवाड़ भी आम बात है, जिसे राडिया टेप कांड और फिर पेड न्यूज को लेकर चली चर्चा और संसद में हुई बहस में देखा गया. पेड न्यूज तो एक ऐसी समस्या है, जिसे लेकर प्रेस कौंसिल ने रिपोर्ट भी तैयार की है.

फेक न्यूज क्यों है बड़ी समस्या?

लेकिन फेक न्यूज एक नई तरह की समस्या है और इसका असर भी ज्यादा गहरा है. वैश्विक अध्ययनों में ये बात उभरकर सामने आई है कि दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतें इनका ज्यादा और बेहतर इस्तेमाल करती हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य विचारों के दल मिसइनफॉर्मेशन का अभियान नहीं चलाते.

इसका असर गहरा इसलिए है क्योंकि पश्चिमी देशों की ही तरह भारत के लोग भी तेजी से डिजिटल वातावरण का हिस्सा बन रहे हैं. लगभग 45 करोड़ लोगों के जीवन में किसी न किसी तरह से इंटरनेट की दखल है. फेसबुक और ह्वाट्सऐप इन दो डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़े लोगों की संख्या भारत में 25 करोड़ को पार कर चुकी है. ये ही वे लोग हैं जो बाकी जनता के लिए ओपिनियन लीडर हैं. यानी देश में विचार के निर्माण में डिजिटल मीडिया का अब बड़ा रोल है. इंटरनेट का दायरा आने वाले दिनों में और बढ़ेगा.

इसका ये भी मतलब है कि डिसइनफॉर्मेशन भी अब ज्यादा तेजी से और बहुत आसानी से पूरे देश में या टारगेटेड ऑडियंश में फैल सकता है. इसकी वजह से सूचना और झूठ के बीच की सीमाएं धुंधली हो रही हैं. हम जिन बातों को पढ़ या देख रहे हैं, उनमें क्या असली है और क्या फेक न्यूज, इसका पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है. सूचनाओं के प्रवाह में इतनी तेजी है और सूचनाएं इतनी बेशुमार हैं कि ठहरकर सोचना असंभव है. चूंकि ये सूचनाएं सोशल मीडिया पर अक्सर लोगों तक किसी परिचित के माध्यम से पहुंचता है, इसलिए इन पर शक करना और भी मुश्किल हो जाता है.

यह न सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया, बल्कि कानून और व्यवस्था, समाज के सौहार्द और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा है. भारत जैसे देश के लिए ये और भी गंभीर है क्योंकि यहां मीडिया साक्षरता लगभग शून्य है. मीडिया, सूचना और समाचारों को लेकर आम लोगों में जानकारियों के अभाव के कारण फेक न्यूज यहां जनमत को प्रभावित करने की ज्यादा क्षमता रखते हैं. हालांकि इस बारे में अभी और शोध की आवश्यकता है.

(लेखिका इसी विषय पर गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में रिसर्च कर रही हैं.)