नोटबंदी के फ़ैसले ने पौन तीन करोड़ लोगों से छीना रोज़गार !



(मीडिया विजिल ब्यूरो)


दो साल पहले जिस नोटबंदी को प्रधानमंत्री मोदी ने मास्टरस्ट्रोक की तरह चला था, वह दो साल बाद दु:स्वप्न साबित हो रही है। अर्थव्यवस्था ज़ख्मी पड़ी  है और आतंकवाद से लेकर काले धन तक को ख़त्म करने की डायलॉगबाज़ी किसी फूहड़ फ़िल्म की याद दिला रही है जिसने लोगों का वक़्त ही ख़राब नहीं किया, लाइन में लगने वाले 80-90 लोगों की बलि भी ले ली। रोज़गार का अभूतपूर्व संकट अलग पैदा हुआ। करीब पौने तीन करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए। चलती गाड़ी के टायर पर निशाना लगाकर पंक्चर करने का मुहावरा सही साबित हुआ।

ठीक दो साल पहले, 8 नवबंर 2016 को महाबली मोदी ने उत्तेजना पैदा की थी- ‘भाइयों..बहनों…रात आँठ बजे से हज़ार और पाँच सौ के नोट कागज़ के टुकड़े हो गए…मुझे सिर्फ 50 दिन दीजिए, वरना चौराहे पर ज़िंदा जला दीजिएगा….’

आत्मविश्वास का आलम यह था कि सिर्फ़ नोटबंदी के दाँव से नक्सलवाद से लेकर कश्मीर तक की समस्या हल कर लेने का दावा किया जा रहा था। ऊपर से नीचे तक बयानबाज़ी का तूफ़ान खड़ा कर दिया गया था। लेकिन आज यह हक़ीक़त किससे छिपी है कि 99.3 फ़ीसदी करेंसी बैंकिंग सिस्टम में वापस आ गई। यह काले धन के नाम पर खड़े किए गए फ़र्ज़ीवाड़े का पर्दाफाश भी है। काला धन नोट की शक्ल में तकिए या गद्दे के अंदर रखा जाता है, यह चवन्नी छाप फ़िल्मों का सिद्ध दर्शक ही सोच सकता है।

मोदी ने देश से सिर्फ़ 50 दिन माँगे थे। इतने दिन में काला धन खत्म हो जाना था, नक्सलवादियो से लेकर आतंकवादियों तक की कमर टूट जानी थी। कश्मीर के पत्थरबाज़ों को फ़ना हो जाना था। लेकिन हक़ीक़त सामने आई तो गोलपोस्ट ही बदल दिया गया। अब डिजिटल इंडिया और आयकर दाताओं की तादाद में बढ़ोतरी का राग अलापना शुरू कर दिया गया। वित्तमंत्री अरुण जेटली ब्लॉग लिखकर बता रहे हैं कि चार साल में आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या बढ़कर 6.86 करोड़ हो गई जबकि मई 2014 यह संख्या 3.8 करोड़ थी। काला धन ख़त्म करने का वादा अब उन्हें याद नहीं आ रहा है।

वहीं, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी भविष्यवाणी के सही साबित होने की याद दिलाते हुए मोदी सरकार को आर्थिक मोर्चे पर अनिश्चितिता पैदा करने का ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। नोटबदी को वे त्रुटिपूर्ण कदम बता रहे हैं। मनमोहन के मुताबिक नोटबंदी से हर व्यक्ति प्रभावित हुआ है चाहे जिस उम्र, लिंग, धर्म या समूह का हो। समय के साथ ज़ख्म भर जाते हैं, लेकिन नोटबंदी का घाव अब तक नहीं भरा है। तबाही स्पष्ट है। अर्थव्यवस्था संकट में है और बेरोज़गारी भयावह रूप  ले रही है।

मनमोहन की इस बात की तस्दीक रोज़गार के आँकड़े करते हैं। आर्थिक मसलों के जानकार मुकेश असीम ने फ़ेसबुक पर CMIE (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी) का चार्ट छापा है जिसके मुताबिक अक्तूबर 2018 में देश भर में कुल रोजगार रत लोगों की तादाद घटकर 39 करोड़ 70 लाख ही रह गई। नोटबंदी के पहले यह 42 करोड़ हुआ करती थी। अर्थात इस दौरान लगभग पौने तीन करोड़ लोग अपना रोजगार खो बैठे हैं।

(इस बीच इस आँकड़े में उतार-चढ़ाव आया है। लेकिन दो साल पहले और आज के आँकड़े का फ़र्क़ बहुत स्पष्ट है।)

मुकेश लिखते हैं– बेरोजगारों की इस भारी फौज का ही नतीजा है – शहर हो या गांव, न सिर्फ मजदूरी मिलने वाले दिन कम हो गए हैं बल्कि मुद्रास्फीति के साथ तुलना करने पर वास्तविक मज़दूरी भी घट गई है।

मज़दूरी घटने से शीर्ष के कुछ पूँजीपतियों की दौलत तो बेतहाशा बढ़ी है, पर देश के बाकी लोगों की ज़िंदगी में इसने हाहाकार मचा दिया है। सबसे भयंकर स्थिति तो नौजवानों के सामने है क्योंकि 15-30 वर्ष के बीच वाली पीढ़ी में एक तिहाई से ज्यादा न तो  तो शिक्षा में हैं न रोजगार में – पूर्ण अंधकारमय जीवन!