बेरोज़गारी,शिक्षा और स्वास्थ्य के आँकड़े चिंताजनक पर सब अंधराष्ट्रवाद की भट्ठी में!


एनएसएसओ के सर्वे से पता चलता है कि रोज़गार के मौक़े कमतर होते जा रहे हैं और दूसरी तरफ़ लोगों के हाथ से काम छीन भी रहा है.




प्रकाश के रे

चुनावी मौसम के सियासी शोर तो ख़ूब है, पार्टियाँ एक-दूसरे पर इल्ज़ाम भी ख़ूब लगा रही हैं और दावों-वादों के खोखले बयान भी ख़ूब गूँज रहे हैं. ऐसा पहली बार नहीं है. मसलों पर ठोस बातचीत और उन्हें हल करने की तरतीब पर बहस और चर्चा का न होना एक परिपाटी ही बन चुकी है. मीडिया की ज़िम्मेदारी भी शोर-गुल में कहीं गुम हो चुकी है. बहरहाल, उन कुछ अहम मसलों को पहचाना जाना ज़रूरी है, जिनके हल होने या न होने का सीधा जुड़ाव हिंदुस्तान के बनने-बिगड़ने से है. 

रोज़गार से जुड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के सर्वे को सरकार द्वारा छुपाने पर पिछले कुछ दिनों से बवाल मचा हुआ है. इस सर्वे के बाबत जो अख़बारों में छपा है, उससे पता चलता है कि एक तो रोज़गार के मौक़े कमतर होते जा रहे हैं और दूसरी तरफ़ लोगों के हाथ से काम छीन भी रहा है. साल 2017-18 में 28.6 करोड़ कामगार मर्द थे, जबकि 2011-12 में यह तादाद 30.4 करोड़ थी. यह कमी गंवई इलाक़ों में 6.4 फ़ीसदी और शहरी इलाक़ों में 4.7 फ़ीसदी रही है. साल 1993-94 के बाद अभी यह सबसे कम तादाद है. औरतों की बात करें, तो सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी, 2016 में कुल कार्यबल में इनकी हिस्सेदारी 16.81 फ़ीसदी थी, जो फ़रवरी, 2019 में घटकर 10.97 फ़ीसदी रह गयी है. जनवरी, 2016 में मर्द और औरत मिलाकर कार्यबल में हिस्सेदारी 47.70 फ़ीसदी थी, जो फ़रवरी, 2019 में 42.74 फ़ीसदी हो गयी. इसका मतलब यह है कि काम कर सकनेवाली पूरी आबादी के इतने हिस्से के पास या तो काम है या वे काम की तलाश में है. ध्यान रहे, भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा युवा है तथा हिंदी पट्टी और पूर्वी राज्यों में आबादी की बढ़वार के मद्देनज़र इस तबके के लिए रोज़गार की ज़रूरत लगातार बढ़ती ही जायेगी. अनेक अध्ययन इंगित कर रहे हैं कि बेरोज़गारी दर 8-9 फ़ीसदी के आसपास और शिक्षित बेरोज़गारी दर 16 फ़ीसदी के क़रीब है. 

यह बात सभी को मालूम है कि हमारे देश में शिक्षा की बदहाली बेहद शोचनीय है. अगर हम शिक्षा- प्राथमिक से उच्च तक और कौशल विकास- पर ध्यान नहीं देंगे, तो रोज़गार कर पाने लायक लोग भी तैयार नहीं कर सकेंगे. ऐसे में उद्योगों और उद्यमों के विस्तार की संभावनाएँ भी लगातार कम होती जायेंगी तथा रोज़गार के अवसर पैदा कर पाना मुश्किल होता जायेगा. इसका दूसरा नतीज़ा यह होगा कि हम आयात पर अधिकाधिक निर्भर होते जायेंगे और इसका पूरा फ़ायदा चीन जैसे देशों को होगा. पिछले साल हमने चीन से 65 बिलियन डॉलर मूल्य के सामान की ख़रीद की है. आयात पर निर्भरता हमारे उद्योग-धंधों के फल-फूल पाने की उम्मीदों को और भी कुंद करेगी. इससे निर्यात से होनेवाली कमाई भी घटती जायेगी. कहने का मतलब यह है कि शिक्षा, रोज़गार, अर्थव्यवस्था और विकास एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. इसलिए पार्टियों के बीच इन मुद्दों पर बात होनी चाहिए और उन्हें जुमलों व नारों की जगह हालात सुधारने के अपने-अपने उपायों को लोगों के सामने रखना चाहिए. इस मसले का हल कुछ लोगों के ख़ाते में कुछ हज़ार रुपए डालकर या मामूली भत्ता देकर नहीं किया जा सकता है. 

कुछ और ख़ास आँकड़ों पर नज़र डालते हैं. रिज़र्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, घरेलू बचत की दर (सकल घरेलू उत्पादन के अनुपात में) 2012 के वित्त वर्ष में 34.6 फ़ीसदी थी. यह दर 2018 में घटकर 30.5 फ़ीसदी हो गयी. पारिवारिक बचत दर 2012 में 23.6 फ़ीसदी थी, जो 2018 में 17.2 फ़ीसदी हो गयी. दूसरी तरफ़ पारिवारिक उपभोग की दर पिछले साल 59 फीसदी रही थी, जो 2017 की तुलना में तीन फ़ीसदी अधिक थी. अनुमान है कि यह दर चालू वित्त वर्ष में भी बढ़ेगी. इसका मतलब यह हुआ कि बचत में कमी का सिलसिला बना रहेगा. नतीज़तन निवेश के लिए पूँजी की उपलब्धता कम होगी और हमें बाहर से क़र्ज़ उठाना होगा. हम पहले से ही दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो बड़े पैमाने पर क़र्ज़ लेते हैं. जनवरी में वित्त मंत्रालय ने जानकारी दी थी कि वर्तमान सरकार के कार्यकाल में सरकार के क़र्ज़ में क़रीब 50 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और यह राशि 82 लाख करोड़ तक जा पहुँची है. राजकोषीय घाटे और अंतरराष्ट्रीय व्यापार घाटे में भी बढ़त होती जा रही है. इस संदर्भ में पारिवारिक क़र्ज़ का आँकड़ा भी चिंताजनक है. सकल घरेलू उत्पादन के अनुपात में यह 2012 में 3.3 फ़ीसदी था, जो 2018 में बढ़कर 4.3 फ़ीसदी हो गया है. इससे यही पता चलता है कि परिवार से लेकर सरकार तक उधार की ज़िंदगी चल रही है तथा उधार को लौटाने की कोई तुरंता सूरत भी नज़र नहीं आ रही है. दुनियाभर के बाज़ारों की उठापटक और वित्तीय संकट की आहटों के बीच ये आँकड़े डरावने हैं. यह बड़े अचंभे की बात है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के रवैए में बेचैनी बिलकुल ही नहीं है. अगर है भी, तो उस पर गंभीरता से सोच-विचार की जगह बयान देकर काम चला लिया जा रहा है. 

रोज़गार और शिक्षा के साथ तीसरी बड़ी चिंता स्वास्थ्य के मोर्चे पर है. भारत इस मद में सबसे कम ख़र्च करनेवाले देशों में है. सकल घरेलू उत्पादन का सिर्फ़ 1.13 फ़ीसदी हिस्सा ही सरकारें स्वास्थ्य पर ख़र्च करती हैं. सरकारी स्वास्थ्य केंद्र बदहाल हैं और लोगों को निजी अस्पतालों से भारी क़ीमत पर इलाज कराना पड़ता है. क़रीब पाँच करोड़ लोग इस वजह से हर साल ग़रीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं. कुपोषण, बीमारी और ग़रीबी से देश की बड़ी आबादी लाचार है. क्या इसके भरोसे देश दुनिया के ताक़तवर मुल्कों में शुमार हो सकता है? हवा, पानी और जमीन में प्रदूषण का ज़हर, जंगलों और नदियों को तबाह करने का सिलसिला, जलवायु परिवर्तन और धरती के तापमान में बढ़त एवं इसके कारण प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती संख्या, नगरीकरण की समस्याएँ, कृषि संकट, आर्थिक ग़ैर-बराबरी जैसे मुद्दे भी बहुत अहम हैं. ऐसे में समाज में धर्म और जाति का भेद पैदा करना, अंध-राष्ट्रवाद की भट्ठी में युवाओं को झोंकना, विदेश नीति और कूटनीति के खोखलेपन को बतोलेबाज़ी से ढाँपने की कोशिश करना बेहद ख़तरनाक है.  

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।