काँग्रेस की ‘केजरीवाल ग्रंथि’ से राहुल के लिए ‘दिल्ली दूर’ बताती एक तस्वीर !



 

यह तस्वीर बताती है कि काँग्रेस की कमनज़री उसे कितना नुकसान पहुँचा रही है। तस्वीर 16 जून की है जिसमें काँग्रेस की कृपा से कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने एच.डी कुमारस्वामी तीन अन्य मुख्यमंत्रियों के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर हैं और उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल से मोदी सरकार के अन्याय की कहानी सुन रहे हैं।

तस्वीर में मौजूद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का नारा फेडरल फ्रंट है जो काँग्रेस के बीजेपी विरोधी राष्ट्रीय मोर्चे के विचार को खारिज करके ही बन सकता है। ममता इसमें आँध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और अपनी धुर विरोधी पार्टी यानी सीपीएम के नेता और केरल के मुख्यमंत्री पिनियारी विजयन के साथ हैं। इसके पहले चारों मुख्यमंत्रियों ने एलजी हाउस जाकर केजरीवाल से मुलाक़ात करने का प्रयास किया था, जिसकी इजाज़त नहीं दी गई।

यानी ममता दिल्ली संकट को अपने ‘फेडरल फ्रंट’ को शक्ल देने का मौक़ा मान रही हैं। इसके लिए वे लेफ्ट जैसे विरोधी के साथ एक मंच पर हैं।

साफ़ है कि ममता बनर्जी, राजनीतिक उद्देश्यों को पाने के लिहाज़ से राहुल गाँधी से ज़्यादा माहिर साबित हो रही हैं। उनका इरादा 2019 में तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों को एकजुट करके दिल्ली पर दावेदारी करने और कांग्रेस को उसे समर्थन देने के लिए मजबूर करने की है। केजरीवाल के घर पर चार मुख्यमंत्रियों की तस्वीर किसी योजना का हिस्सा न भी हों, लेकिन उसकी दिशा वही है जिधर मौजूदा राजनीति की धारा को ममता बनर्जी ले जाना चाहती हैं।

ज़ाहिर है, यह काँग्रेस के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। लेकिन उसकी ‘केजरीवाल ग्रंथि’ उसे ‘बड़ी रेखा’ खींचने से रोक रही है। निश्चित ही केजरीवाल ने दिल्ली में कांग्रेस के जनाधार को ही हड़पा है। यही नहीं, अन्य राज्यों में भी उसका यही इरादा  दिखता है। लेकिन यह केजरीवाल की ‘साज़िश’ न होकर आम आदमी पार्टी की ‘राजनीतिक पोजीशनिंग’ की वजह से है। आम आदमी पार्टी भले ही राजनीतिक विचारधारा को लेकर कोई स्पष्ट घोषणा न करे, लेकिन वह ‘लेफ्ट टू द सेंटर’ ही है। ऐसे में अगर ‘साम्प्रदायिक बीजेपी’ को रोकने के लिए काँग्रेस समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी से लेकर वामपंथियों को साथ लाने में जुटी है तो फिर केजरीवाल से दुश्मनी सिर्फ़ अपरिपक्वता ही कही जाएगी। चुनाव तो उसने कुमारस्वामी के ख़िलाफ़ भी लड़ा था लेकिन ‘बड़े दुश्मन’ को रोकने के नाम पर उसने कर्नाटक में जो किया, वह दिल्ली में क्यों नहीं हो सकता?

तो क्या ‘दिल्ली राज्य’ में अपनी हैसियत को लेकर परेशान काँग्रेस ‘देश की राजधानी दिल्ली’ का रास्ता मुश्किल बना रही है। अगर किसी बड़े सिद्धांत की ख़ातिर ऐसा किया जा रहा होता तो बात समझ में आ सकती थी, लेकिन हद तो ये है कि इस मसले पर वह लगातार झूठ का सहारा भी ले रही है। कौन नहीं जानता कि दिल्ली को पूर्ण राज्य की हैसियत देने का वायदा बीजेपी के साथ-साथ काँग्रेस भी करती रही है। लेकिन केजरीवाल पर हमले की झोंक में अब उसकी नेता शीला दीक्षित कह रही हैं कि यह माँग पूरी होना मुमकिन नहीं। यही नहीं, वे यह भी कह रही हैं कि बतौर मुख्यमंत्री उन्हें दिल्ली चलाने में दिक्कत नहीं हुई तो फिर केजरीवाल को क्या दिक्कत है।

शीला दीक्षित बड़ी सफ़ाई से यह बात छिपा लेती हैं कि उनके पास एसीबी जैसी पुलिस एजेंसी थी और नौकरशाहों पर नियंत्रण करने वाला कार्मिक विभाग भी। 2015 में सरकार जब केजरीवाल ने सरकार बनाई तो मोदी सरकार ने इन दोनों चीज़ों को बाक़ायदा छीन लिया। कहते हैं कि अपनी पहली सरकार में केजरीवाल ने कारपोरेट सम्राट मुकेश अंबानी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराके जिस ‘दुस्साहस’ का परिचय दिया था, उसने पूरी व्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। ऐसे में जिन पार्टियों को बड़े अंबानी खुलेआम अपनी दुकानें बना चुके हैं, उन्हें पलटवार तो करना ही था। मोदी जी ने केजरीवाल का ‘हाथ काटकर’ फ़र्ज़ निभा दिया।

हद तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार के अधिकार पर सुनवाई छह महीने पहले ही पूरी कर चुका है, लेकिन फ़ैसला सुनाया नहीं गया, सुरक्षित रखा गया है। क्यों ?

वैसे, जो शिकायत केजरीवाल कर रहे हैं, वही शिकायत पडुचेरी में काँग्रेस के मुख्यमंत्री नारायण सामी की भी है। वे भी उपराज्यपाल किरण बेदी पर वैसे ही आरोप लगा रहे हैं, जैसे कि दिल्ली में अनिल बैजल पर लग रहे हैं। उन्होंने केजरीवाल के धरने के समर्थन में ट्वीट भी किया था, लेकिन बाद में उसे हटा लिया गया। इससे काँग्रेस की ‘दिल्ली नीति’ हास्यास्पद हो रही थी। लेकिन क्या इससे नारायण सामी की तक़लीफ़ कम हो जाएगी? या चुने हुए लोगों द्वारा शासन को लोकतंत्र कहने का सिद्धांत ?

इन दिनों, राहुल गाँधी यूँ काँग्रेस को नई सामाजिक-वैचारिक देने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं, लेकिन वे भूल गए हैं कि नुकसान उठाकर भी सही बात कहने वाले ही ‘स्टेट्समैन’ होते हैं। याद कीजिए, नेहरू से लेकर पटेल तक,आज़ादी के बाद पाकिस्तान को वादे के मुताबिक 55 करोड़ रुपये देने को तैयार नहीं थे। आशंका ये थी कि इस पैसे का इस्तेमाल कश्मीर में हमले के लिए होगा। लेकिन गाँधी जी अड़ गए। उन्होंने यह पैसा दिलाने के लिए अनशन कर दिया। बाद में नेहरू ने यह कहते हुए अपनी ग़लती मानी कि ‘हम लोग भूल गए कि महात्मा गाँधी सचमुच में महात्मा हैं।’

तो फिर दिल्ली के साथ हो रहे अन्याय को अन्याय कहने में राहुल गाँधी को कौन रोक रहा है? सवाल बस इतना है कि दिल्ली पर जनता के चुने हुए लोगों का शासन होगा या केंद्र सरकार की ओर से चुने गए उपराज्यपाल का। यह लोकतंत्र से जुड़ा एक सैद्धांतिक प्रश्न है जिस पर लोकतंत्र की दुहाई देने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी या तो मौन है, या फिर पीडित पर ही हमला करती नज़र आ रही है।

इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि अगर केजरीवाल के ड्रॉइंगरूम में चार मुख्यमंत्रियों के साथ राहुल गाँधी भी होते तो क्या संदेश जाता। तब शायद 2019 में मोदी विरोधी मोर्चे को लेकर बात ममता या फेडरल फ्रंट की नहीं, राहुल गाँधी और यूपीए की होती।

राहुल गाँधी के सामने बड़ी रेखा खींचने का मौक़ा है पर वे हिचक रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि अजय माकन की क्षुद्र महात्वाकाँक्षाओं पर काँग्रेस की राष्ट्रीय संभावनाएँ ही कुर्बान हो जाएँ !

 

पुनश्च: 17 जून की शाम आम आदमी पार्टी के विरोध मार्च में जहाँ सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और पार्टी कार्यकर्ता शामिल हुए, वहीं बीजेपी की सहयोगी शिवसेना और डीएमके नेता एम.स्टालिन ने भी केजरीवाल का समर्थन किया है। शिवसेना सांसद संजय राउत ने कहा है कि चुनी हुई सरकार को अधिकार होना ही चाहिए, वहीं स्टालिन ने बीजेपी पर संघीय व्यस्था को ध्वस्त करने का आरोप लगाया। गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलश यादव और बीजेपी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव पहले ही केजरीवाल की माँगों का समर्थन कर चुके हैं। यानी दिल्ली में बीजेपी विरोधी मोर्चे के केंद्र में फिलहाल अरविंद केजरीवाल नज़र आ रहे हैं, न कि राहुल गाँधी।

 

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