मांगटा कांडः सवर्णों की जातिगत हिंसा के खिलाफ़ ट्विटर तक सिमटा सामाजिक न्याय



’’भाजपाई कार्यकर्ताओं के गुंडाराज की एक और शर्मनाक घटना में कानपुर देहात के माटंगा गाॅंव में दलितों को जमकर पीटा गया जिसमें 23 दलित ज़ख़्मी हुए हैं. प्रदेश में पुलिस को अपनी रक्षात्मक भूमिका के विपरीत कार्य करने को बाध्य किया जा रहा है. हम इस लड़ाई में हर कदम दलितों के साथ हैं.’’

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव का ट्वीट

उत्तर प्रदेश के कानपुर नगर जिले के मांगटा गांव में आंबेडकर और गौतम बुद्ध पर दलित समुदाय द्वारा आयोजित किए गए एक कार्यक्रम के खिलाफ गांव के ब्राम्हणों और क्षत्रियों ने उन पर सामूहिक हमला कर दिया। इस हमले में कई दलित परिवार गंभीर रूप से घायल हो गए। घटना के खिलाफ जहां कांग्रेस ने योगी सरकार और भाजपा पर दलितों को उत्पीड़ित करने का आरोप लगाया और आरोपियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की मांग सहित घायलों से मुलाकात की, वहीं सपा और बसपा ने भी ’ट्वीट’ करके घटना की निंदा की। बसपा ने इसे जहां दुर्भाग्यपूर्ण बताया वहीं समाजवादी पार्टी ने पीड़ित दलितों के साथ खड़ा होने की बात कही। सपा और बसपा के नेता इस घटना के घायलों से मुलाकात करने नहीं गए।

अगर हम समाजवादी पार्टी द्वारा इस घटना की निंदा में किए गए ’ट्वीट’ को देखें तब यह बात साफ हो जाती है कि अखिलेश यादव ने पीड़ित दलित परिवारों के साथ खड़ा होने की बात भले कही, लेकिन हिंसा के सवर्ण आरोपियों पर कानूनी कार्यवाही की मांग नहीं की। आखिर ऐसा क्यों है कि समाजवादी पार्टी इन सवर्ण हमलावरों पर इस तरह का साॅफ्ट कार्नर रख रही है? क्या वह यह मान रही है कि पीड़ित उसे वोट नहीं देते इसलिए ’मानवता’ के नाते घटना की ’निंदा’ भर पर्याप्त है? या फिर उसे डर हैै कि कानूनी कार्यवाही की मांग कर देने से सवर्ण (ब्राम्हण और क्षत्रिय) समुदाय के वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित के उसके प्रयास को नुकसान हो सकता है?

दरअसल, अपने ’ट्वीट’ में सपा के मुखिया का इस घटना पर कानूनी कार्यवाही की मांग नहीं करना एक ऐसी राजनीति है जिसे 2022 के विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखने-समझने की जरूरत है। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश के ब्राम्हणों और क्षत्रियों को अपने साथ जोड़ना चाहती है जो कि 2012 के विधानसभा चुनाव में उसके साथ बड़े पैमाने पर थे और बाद में भाजपा के साथ चले गए।

गौरतलब है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में बंपर जीत के बाद जब भाजपा ने उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की, तब सबसे ज्यादा निराशा उत्तर प्रदेश के ब्राम्हणों को हुई थी। योगी आदित्यनाथ की ’अड़ियल’ और स्वजाति को प्राथमिकता देने की कार्यशैली ने प्रदेश के ब्राम्हणों में बहुत असंतोष भरा है। यह बात उत्तर प्रदेश में किसी से भी छिपी नहीं है कि योगी आदित्यनाथ से भाजपा समर्थक ब्राम्हण मतदाता बहुत नाराज है। इसी नाराजगी को अखिलेश यादव अपनी तरफ आकर्षित करना चाहते हैं।

असल में सपा के पास वर्तमान समय में उनके जातिगत बेस ’यादव’ को छोड़कर किसी अन्य ओबीसी जाति का वोट नहीं रह गया है। अपने पिछले कार्यकाल में अखिलेश यादव ने बसपा को उजाड़ने का जो खेल भाजपा के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में खेला था, उससे सपा को भी बहुत नुकसान हुआ। इस खेल से हिन्दू गौरव का प्रसार केवल प्रदेश के दलित मतदाताओं में नहीं हुआ बल्कि ओबीसी भी ’पक्के’ हिन्दू बन गए। अखिलेश यादव ने अपनी नीति पर कोई पुर्नविचार नहीं किया और सपा की ’हिन्दुत्व’ की राजनीति जारी रही। सपा की इस राजनीति के चलते प्रदेश का मुसलमान अखिलेश यादव के साथ कब तक रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के नाराज ब्राम्हणों और ठेका पट्टा में हिस्सेदारी नहीं मिलने से नाराज़  क्षत्रियों को 2022 के विधानसभा चुनाव तक अपने पास जोड़ कर रख पाते हैं तब मुसलमानों को वोट उन्हें मिल जाएगा- ऐसा सपा के लोग मानते हैं। यही वजह है कि अखिलेश यादव सवर्ण ब्राम्हणों और क्षत्रियों के खिलाफ कुछ भी बोलने से बाज आ रहे हैं।

हाल ही में योगी आदित्यनाथ की हिन्दू युवा वाहिनी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील सिंह को समाजवादी पार्टी में शामिल किया गया। अखिलेश यादव पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ से नाराज सवर्णों और क्षत्रियों को पार्टी में ’स्पेस’ इसी कारण दे रहे हैं कि गैर यादव ओबीसी के भाजपा में चले जाने का कुछ हद तक ’घाटा’ हिन्दुत्व के आइने में पूरा किया जा सके। यह सारा प्रयास इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वह अपनी राजनीति पर गंभीर खतरा आगामी चुनाव में देख रहे हैं। अगर इस बार अखिलेश यादव फेल हो गए तब उनका साथ ’यादव’ भी छोड़ देगा। सुनील सिंह यह संदेश देने के लिए पूर्वांचल में सक्रिय किया गया कि सपा भी ’हिन्दुत्व’ की सियासत करती है और योगी सरकार से नाराज या उपेक्षित लोगों को कहीं और जगह खोजने की जरूरत नहीं है। सपा उनकी हिन्दुत्व की आकाक्षांओं को पूरा कर सकती है।

अखिलेश यादव के इस प्रयास के बाद भी सपा के लिए हालात सामान्य नहीं दिख रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने लिए जमीन तलाश रही है। इसके लिए वह अपने परंपरागत वोटर जैसे दलित और मुसलमानों के बीच बहुत काम कर रही है। कांग्रेस मानकर चल रही है कि अगर वह इन दो समुदायों को अपने साथ ले पायी तब ब्राम्हण खुद उसके साथ खड़ा हो जाएगा, और इस तरह से वह भाजपा को चुनाव में शिकस्त दे पाएगी। इसीलिए कांग्रेस योगी सरकार को दलितों और मुसलमानों पर हुए किसी भी हमले में तत्काल घेरती है। मुसलमानों का विश्वास जीतने के लिए नागरिकता संशोधन कानून पर जहां कांग्रेस खुलकर खड़ी हुई, वहीं प्रदेश में दलितों के किसी भी उत्पीड़न पर कांग्रेस के लोग मदद के लिए तत्काल उपलब्ध रहते हैं।

अब सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव अपनी खोई जमीन सवर्ण वोटर्स को साथ लेकर हासिल कर पाएंगे? क्या वह दलितों के खिलाफ ’सवर्णो’ं की इस जातीय हिंसा पर चुप रहकर उन्हें अपने साथ जोड़ पाएंगे? क्या पिछड़ों की सामाजिक न्याय की आकांक्षाएं और सवर्ण मतदाताओं की हिंदुत्व मिश्रित जातीय श्रेष्ठता का ’अहम’ एक साथ संतुष्ट हो सकेगा?

दरअसल, असलियत यह है कि सामाजिक न्याय के नाम पर जाति को जाड़ने की राजनीति यही करती है। वह जातियों के नेता पैदा करती है और उनके चेहरे पर वोट मांगती है। अखिलेश यादव का सवर्णों को ओबीसी के साथ जोड़कर चलने या दोनों के ’हितों’ को एकसाथ मजबूत करने की यह राजनीति ’मंडल’ कमीशन की असलियत को बयां कर देती है। मंडल की राजनीति का कुल लब्बोलुआब यह था कि ओबीसी को हिन्दुत्व के दायरे में जाति व्यवस्था के उत्पीड़न के खिलाफ सत्ता में ’सम्मानजनक’ स्थान चाहिए। अगर यह स्थान उसे मिल जाए तो वह हिन्दुत्व के साथ कदम-ताल को तैयार है। मंडल कंाग्रेस को कमोजर करने का हिन्दुत्व का एक ’प्रयोग’ था। इसीलिए ज्यादातर मंडलवादी भाजपा के लिए सदैव मददगार रहे। अखिलेश यादव अपनी पूरी राजनीति में यही कर रहे हैं। इसीलिए वह दो भिन्न ’हितों’ वाली जातियों को जोड़कर सत्ता में पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। यह कटु सत्य है कि भारत में जातियों का अस्तित्व है और उनके हित ’समान’ नहीं हैं। लेकिन जाति के नाम पर संगठित राजनीति को जब किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए तब वह किसी भी स्तर तक गिरकर ’समझौता’ कर सकती है।

अखिलेश यादव सामाजिक न्याय के नाम पर ’यादव’ अस्मिता को बचाने के लिए ब्राम्हणों, क्षत्रियों को एक बार फिर से सपा से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए वह मांगटा गांव के हमलावर सवर्ण ब्राम्हणों और क्षत्रियों के खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्यवाही की मांग नहीं करते हैं लेकिन ऐसा करके क्या वह 2022 में भाजपा की हिन्दुत्व’ राजनीति का मुकाबला कर पाएंगे?


Photo Courtesy The Wire 


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