जनतंत्र के महापर्व में बहुसंख्‍य और घेटो के बीच की नागरिकता का अप्रासंगिक हो जाना


संख्या का पैमाना और उसका बल एक निरपेक्ष शासन व्यवस्था और विशेष रूप से जनतंत्र जैसी व्यवस्था का सबसे बड़ा शत्रु है



Party flags of Bharatiya Janta Party (BJP) and Shiv Sena are on dispaly during Lal Krishna Advani,NDA's Prime ministrial candidate address during an election rally in the western indian city of Mumbai on 6th March,2008


सत्यम श्रीवास्तव

ऐसे समय में देश में आम चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका हो, देश चुनावमय हो चुका हो, जहां यह पहले से तय कर दिया गया हो कि इस बार चुनाव की थीम क्या होगी और किन मामलों के इर्द-गिर्द अगले दो-सवा दो महीने देश को मुब्तिला रहना है; बुनियादी सवालों पर लौटने की जुर्रत करना, उन्हें इस उम्मीद से हवा देते रहना कि देश की चुनावी फिज़ा में कहीं इन सवालों को भी जगह मिले, कई बार गैर-ज़रूरी लगता है। यह ठीक वैसे ही है जब रात को नौ बजे चौबीस गुणा सात वाले न्यूज़ चैनल अपने सर्वश्रेष्ठ एंकर को दर्शकों के समक्ष पेश करते हैं, दर्शकों को पता है किस चैनल पर किस एंकर को किस विषय पर बात करना है, पैनल में बैठे मेहमानों को क्या तर्क-कुतर्क करने हैं, शो में बैठे दर्शकों को कहाँ कहाँ तालियाँ बजाना है, अगर दर्शकों के पास एंकर का माइक चला गया तो उन्हें क्या कहना है और अंतत: एंकर को किस निष्कर्ष पर शो को बंद करना है। ऐसे समय में रवीश कुमार नाम के पत्रकार को अपने शो में बेरोजगारी, किसान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पेंशन जैसे मुद्दे प्राइम रखना है। एक दर्शक के तौर पर उत्तेजना का भी विषय बदल जाता है। किसी और की क्या कहें, मुझे भी एक दर्शक के तौर पर लगता है कि ठीक है ये मुद्दे बुनियादी तो हैं पर इनको दिखाकर क्या हो जाएगा। एक पत्रकार को हम भी निष्पक्ष नहीं रहने देते। हमें भी लगता है कि रवीश को इस तरफ से आक्रामक खेलना चाहिए। अगर हिन्दू-मुसलमान पर बाकी चैनलों पर बहस चल रही है तो रवीश क्यों नहीं अपने शो में उसका जवाब देते दिखाई देते हैं?

ठीक है वो बहुत ज़रूरी बात कर रहे हैं, बहुत बुनियादी सवाल उठा रहे हैं पर मौका और दस्तूर कुछ और है जिस पर बात होना चाहिए। क्या यह मीडिया का बहुसंख्यकवाद है जिसके सामने रवीश जैसे इक्का दुक्का एंकर अल्पसंख्‍यक हैं? हम इस बहुसंख्‍य के दबाव में अपनी चेतना के विपरीत जाकर अपने पसंदीदा और संजीदा एंकर से क्या-क्या अपेक्षाएँ करने लगते हैं? जब वाकई हमारे सामाजिक और राजनैतिक जीवन में बहुसंख्यकवाद खुलकर अपनी संख्या बल का इज़हार करता है तब मुकम्मल विवेक और चेतना से लैस व्यक्ति किस तरह अपनी निरपेक्षता बचा कर रख पाता होगा? पसंद और नापसंद का समाजशास्त्र ही नहीं उसका राजनीतिशास्त्र भी होता है और ये ज़्यादा आक्रामक होता है। जब देश के प्रधानमंत्री की रैली में जय श्रीराम का नारा गूँजता है तब कितने निरपेक्षों के स्वर उसके साथ न हो जाते होंगे? फिर ऐसे में उस ज़िम्मेदारी का निर्वहन वे कैसे कर सकेंगे जो उन्हें संविधान ने दी है कि ‘कभी भी अल्पसंख्यकों को अपनी संख्या के बल पर निर्बलता का एहसास न होने देना।‘ और अल्पसंख्यकों को भी दी गयी वह सलाह कि ‘वो हर समय खुद को अल्पसंख्यक ही न मानते रहें और बहुसंख्यकों को शंका से न देखें, उनसे भयभीत न हों, संविधान के नज़रिये से खुद को और उनको देखने की आदत डालें जहां दोनों समान हैं।‘

यह समय संख्या से ज़्यादा बहुसंख्या का है, हालांकि हर किसी की आधार संख्या बराबर अंकों की है और मतदाता पत्र में भी लिखी गयी कूट संख्या बराबर ही है पर बहुसंख्यक उन्माद असर डालता है। एक ज़रूरी मुद्दा यह भी है जो इस चुनाव का बुनियादी मुद्दा होने की पूरी सामर्थ्य रखता है। कोई राजनैतिक दल कहे कि देश की व्यवस्था का निर्धारण बहुसंख्यकों के दबाव में नहीं होगा, बहुसंख्यकों की आस्थाओं को ‘एक अकेले व्यक्ति की आस्था’ से ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाएगी और देश का विवेक, देश का मूड संख्या तय नहीं करेगी। लेकिन ऐसी बातें हमारे सार्वजनिक विवेक से लगभग बाहर खदेड़ दी गईं हैं।

यह 2014 के बाद के नए भारत का ही किस्सा और हकीकत नहीं हैं। इसे धीरे-धीरे धकेलने की प्रक्रिया को 2014 में बलात बाहर किया गया। जो 31 प्रतिशत (जिसे चुनाव विश्लेषकों ने देश का बहुसंख्यक समुदाय बताया) 2019 आते-आते न केवल मुखर हुआ बल्कि इनमें भी जो तटस्थ थे, निरपेक्ष थे उन्होंने खुद को इसी संख्या में जोड़ लिया। आज देश की सबसे बड़ी चुनौती यही है। यह भी दिलचस्प है कि जो धार्मिक समुदाय खुद को अल्पसंख्यक मनवाने के लिए हर तरह से पैरवी करता रहा और अंतत: अल्पसंख्यक  का दर्जा भी हासिल कर सका वो भी अपनी इस पहचान को बहुसंख्यक पहचान और उसके विवेक और उसके उन्माद में पनाह लेते हुए दिखलाई देता है। जैन,पारसी, सिख और इस तरह के कई समुदायों का सामाजिक व धार्मिक ओहदा कुछ भी रहा हो और हो आज वह देश के बहुसंख्यक समुदाय का हिस्सा बनने की होड़ में, इसे सार्वजनिक विवेक बनाने की कार्यवाहियों में पहली दूसरी पंक्ति में खड़ा देखा जा सकता है।

सवाल जाति या मजहब की लकीरों से ज़्यादा संख्या पर आ खड़ा है और एक तरफ की संख्या में केवल इजाफा हो रहा है वहीं दूसरी तरफ एक कोसला (घेटो) का निर्माण हो रहा है। दोनों के बीचों-बीच खड़े लोगों की संख्या जिसके सबसे ज़्यादा मायने होने थे, बेमानी हो गयी है। वो अभिशप्त हैं बरबरीक की तरह जिन्हें यह होते हुए देखना है और अंत तक जीना है।

यह संख्या का पैमाना और उसका बल एक निरपेक्ष शासन व्यवस्था और विशेष रूप से जनतंत्र जैसी व्यवस्था का सबसे बड़ा शत्रु है जिसे जनतंत्र के इस महापर्व में बार-बार महिमामंडित होना है, अट्टहास करना है।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)