बाबरी@25 : “एक-एक कर के सच में बदल रहे हैं कविता में ज़ाहिर वे दहशतज़दा अंदेशे”

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उदय प्रकाश 

छह दिसंबर को ही इस खबर ने अपने ज़ाहिर होने के लिए चुना है। इस काली तारीख़ के तहख़ाने में कई ख़ामोश सच्चाइयाँ दफ़्न हैं। इसी तारीख़ में अयोध्याकांड हुआ और बच्चों की कहानियों से परियाँ निकल कर भाग गयीं। इसी तारीख़ में टर्की के एक गॉंव में संत निकोलस पैदा हुए जो यूरोप में बच्चों के मोज़े और जूतों में चुपके से रात में चॉकलेट और मिठाइयाँ छुपा जाते हैं। मैंने भी बीती रात अपने पोते-पोतियों के मोज़े में मिठाइयाँ छुपाईं। आज सुबह स्कूल जाने के पहले उन्होंने सोचा होगा सेंट निकोलाउस ने सांताक्लास बन कर ये चॉकलेट्स उनके लिए रखे होंगे।

हम सब के भीतर एक संत सांताक्लास होता है, अगर हम उसे खोज लें।

इसी तारीख़ को एक ऐसे महान आधुनिक व्यक्ति ने इस धरती से जाने के लिए, पहले से ही जो रास्ता चुन रखा था, वह तथागत के देहपात का रास्ता ही था। उसने अपने भीतर के सांताक्लास को खोज लिया था और भविष्य की संतानों के लिए, उनके भविष्य की हिफ़ाज़त के लिए किसी भी ऐतिहासिक स्मारक से बड़ा एक स्थापत्य छुपा कर रख दिया था… जिसे हम आज अपने देश का संविधान कहते हैं।

जिस तरह अयोध्या का या आगरा का वह स्थापत्य कुछ के लिए फ़क़त एक ढाँचा भर था, उसी तरह बाबा भीमराव अंबेडकर का उपहार भारतीय संविधान भी उन कुछ लोगों की निगाह में सिर्फ एक ढाँचा भर है। वे कुछ लोग, जिनके पास इस वक़्त सारी ताक़त है, वे उसे भी ढहाने की जुगत में हैं।
किसी कवि, किसी सूफ़ी, किसी संत, किसी फ़क़ीर, किसी हक़ीर, किसी मुँहफट जोकर, किसी दरवेश, किसी कलाकार या कलमची की ज़िंदगी और उसकी इज़्ज़त उनकी ताक़त के सामने किसी भुनगे, मच्छर, चूहे, काक्रोच से ज़्यादा कैसे होगी?

मैंने कभी इसी छह दिसंबर की तारीख़ में ‘तीली’ नाम की एक कविता लिखी थी उसमें कुछ दहशतज़दा अंदेशे थे। लगता है अब वही एक-एक कर सच में बदलता जा रहा है।

दोस्तो, मैं किसी सत्ता और ताक़त को निगाह में रख कर बनाये गये किसी राजनीतिक बनावट, संघ या संगठन का हिस्सा नहीं बस एक बेऔकात शरीर का ऐसा लेखक हूं जो उस भाषा में लिखने का कुफ़्र और दुस्साहस कर बैठा, जो सत्तावरों की भाषा है।

किसी सिरफिरे दोस्त को ‘तीली’ कहीं याद हो तो उसे ले कर आयें और मुमकिन हो और लगे तो हर उस शै के साथ खड़े हों जिसके बनने में बहुत सारी कठिनाइयाँ और जटिलताएँ और चुनौतियाँ थीं और अब, आज की तारीख़ में उन्हें ढहाने-गिराने की साज़िशें चल रहीं हैं।

आज हम अपने संविधान को याद करें उसके साथ खड़े हों। और विध्वंस और प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की हर हरकत का विरोध करें।

बाक़ी और क्या?

बहुत दूर हूँ आप सबसे इस वक़्त।

किसी अपने दोस्त को अकेला न होने दें।

कोई भी हो, जो अच्छा है, वह बड़ी मुश्किल से बनता और बचता है।

और जो बचेगा नहीं वह रचेगा कैसे?

यानी हम सब अशोक वाजपेयी के साथ उनकी रचना, विचार, गरिमा और कला-संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान के पक्ष में खड़े हों।

इस पक्षधरता का दायरा बहुत दूर तक, ऊपर लिखी गयी बहुत बड़ी और अहम चीज़ों-धरोहरों को बचाने के पक्ष तक पहुँचता है।


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