अमेरिका और भारत के बीच होने वाली कॉमकोसा सन्धि जनविरोधी है- अरविंद पोरवाल


अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (ऐप्सो) तथा संदर्भ केन्द्र की ओर से शनिवार, 22 दिसम्बर, 2018 को एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा का विषय था “भारत अमेरिका के मध्य हाल में हुए रणनीतिक समझौते के निहितार्थ”।


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इंदौर / 22 दिसंबर 2018 : अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (ऐप्सो) तथा संदर्भ केन्द्र की ओर से शनिवार, 22 दिसम्बर, 2018  को एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा का विषय था “भारत अमेरिका के मध्य हाल में हुए रणनीतिक समझौते के निहितार्थ”। यह समझौता कुछ माह पूर्व भारत और अमेरिका के मध्य हुआ है जिसका विस्तृत नाम है कॉमकासा (कम्युनिकेशन, कम्पेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट)- संचार, सक्षमता एवं सुरक्षा समझौता।
परिचर्चा की शुरुआत में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव मण्डल सदस्य विनीत तिवारी ने कहा कि गत सितम्बर में भारत एवं अमेरिकी सरकार के मध्य जो कॉमकासा संधि हस्ताक्षरित हुई है उसका विस्तृत विवरण मीडिया में उपलब्ध नहीं है और ऐप्सो जैसे संगठन उस जानकारी को जनता तक पहुंचाएं यह आवश्यक है। आज गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेतृत्वकर्ता की भूमिका से चलकर अब हम जिस अमेरिकी कैंप के जूनियर पार्टनर बनने जा रहे हैं इस समय वह खुद संकट के दौर से गुजर रहा है। अमेरिका में आज ट्रम्प संकट का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वे पेंटागॉन और सीआईए की नीतिओं के खिलाफ काम करते हुए सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेनाएं वापिस बुला रहे हैं।  इन विरोधाभासों के पीछे के सत्य को समझाना और आम जनता तक पहुँचाना अत्यंत आवश्यक है।

शीत युद्ध के दौर में भारत की वैश्विक पहचान निर्गुट आंदोलन के एक नेता के रूप में थी। उदारीकरण की नीतियों के जनविरोधी परिणाम आज हमारे सामने है। 

परिचर्चा का प्रारम्भ करते हुए जनवादी लेखक संघ के वरिष्ठ साथी सुरेश उपाध्याय ने कहा कि वर्तमान वैश्विक स्थितियों को समझने के लिए बेहतर है हम   विदेश नीति पर नज़र डालें तो गुट निरपेक्षता की नीति से हमारा विचलन स्पष्ट दिखाई देता है। हम अमेरिकी खेमे में नज़र आते हैं। यह विचलन मनमोहन सिंह के वक़्त प्रारम्भ हुआ था और उसी समय वामपंथी पार्टियों ने परमाणु संधि के विरोध में सरकार से अपना समर्थन वापिस लिया था।  अमेरिका कभी भी भरोसेमंद साथी नहीं रहा है। यह वही अमेरिका है जिसने हमारे खिलाफ पाकिस्तान की मदद के लिए सातवां बेडा भेजा था। हकीकत में अमेरिका की नज़र भारत की विशाल आबादी और बाजार पर है। 2008 की मंदी से उबरने के लिए यह उसकी जरूरत है। साथ ही चीन के बढ़ते आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव के चलते भी अमेरिका हमारा इस्तेमाल चीन के विरुद्ध करना चाहता है। हमारी सरकार को इन बातों को समझना चाहिए कि कॉमकासा जैसे समझौते कितनी हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और कितनी अमेरिका की।  इन समझौतों में निजी क्षेत्र के लिए भी प्रावधान है साथ ही डाटा लीकेज का खतरा भी इससे जुड़ा है।  अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अन्य देशों में दखलंदाजी, देशों को आपस में लड़ाने और सत्ता परिवर्तन अमेरिका का शगल रहा है और ताज़ा समझौतों को भी हमें इसी नज़रिये से परखना चाहिए। 

इस बैठक के मुख्य वक्ता डॉ. अर्चिष्मान राजू जो भारत के युवा वैज्ञानिक हैं। अर्चिष्मान ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, अमेरिका से भौतिकी में डॉक्टरेट किया है और अब वे जैव भौतिकी (Bio-Physics) में पोस्ट डॉक्टरल शोध कर रहे हैं। विज्ञान के अध्ययन के साथ ही उनकी रुचि विश्व शांति आंदोलन में भी है और वे अमेरिका में फिलाडेल्फिया के अश्वेतों के आन्दोलनों के साथ भी जुड़े हैं। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अर्चिष्मान  राजू ने कहा की कॉमकासा, तीन समझौतों की कड़ी का एक हिस्सा है जो अमेरिका उन देशों के साथ करता है जिनसे वह नज़दीकी मिलिट्री सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। आज हमारी सामरिक आवश्यकताओं की 60% आपूर्ति रूस से होती है और शेष अमेरिका, इसराइल, फ्रांस आदि देशों से।  इस समझौते के बाद अब अमेरिका से सैन्य उपकरणों का आयात  बढ़ेगा। चीन के रूप में बढ़ती चुनौती और पाकिस्तान की चीन के साथ बढ़ती नज़दीकियों के कारण भारत अब अमेरिका की मज़बूरी है।  चर्चा तो यह भी है की इस सन्धि के बाद अब साउथ कोरिया, जापान और भारत मिलकर एक तरह से एशियाई नाटो (NATO) की भूमिका में होंगें। इस सन्धि के प्रावधानों को सरकारों ने गोपनीय रखा है। इस संधि के बाद हमारी संचार व्यवस्तथा पर न केवल अमरीकी सरकार का बल्कि निजी कंपनियों की पहुँच हो जाएगी। उसका असर देश की सुरक्षा व्यवस्था पर क्या पड़ सकता है इसका भी कोई आकलन नहीं किया गया है। साथ ही अभी-अभी हमने रूस से एस 400, जो की अंतरराष्ट्रीय बाजार  में सर्वश्रेष्ठ वायु सुरक्षा प्रणाली है का समझौता किया है। उस पर इस सन्धि का क्या असर होगा यह भी स्पष्ट नहीं है। रुसी उपकरण अमेरिकन कम्युनिकेशन सिस्टम पर कैसे काम करेंगे, यह अभी स्पष्ट नहीं है। इस समझौते से साम्राज्यवाद के खिलाफ हमारी आवाज़ कमजोर होगी। आज अमेरिका खुद ही आंतरिक और बाहरी संकट से जूझ रहा है।  यह राजनीतिक और सामाजिक संकट है। अमेरिका ने विश्व में जो अड्डे खड़े किये है वो अब उसके लिए  बोझ बन रहे हैं। अमेरिका में भी इसके खिलाफ आवाज़ उठ रही है। पेंटागॉन और सीआईए जैसी एजेंसी और अमरीकी राष्ट्रपति के बीच नीतिगत मतभेद खड़े हो रहे है।  इस सबके चलते भविष्य में यह संभावना भी हो सकती है कि वर्तमान एकध्रुवीय व्यवस्था कमजोर हो। इस नए दौर में भारत क्या भूमिका निभाएगा ये सवाल खड़ा होता है।  इस सन्दर्भ में 1970 के दशक की, “इंडियन ओसियन जोन ऑफ़ पीस” और “एशियाई कलेक्टिव सिक्योरिटी” की परिकल्पना का महत्त्व आज बढ़ जाता है।  आज विदेश नीति के सन्दर्भ में आवश्यक है की हम एशियाई देशों में तनाव की बजाए “एशियाई कलेक्टिव सिक्योरिटी” की दिशा में आगे बढ़ने के लिए जनांदोलन और पीस मूवमेंट के माध्यम से सरकारों पर दबाव डालें। 

प्रगतिशील लेखक संघ इंदौर के अध्यक्ष मण्डल के सदस्य चुन्नीलाल वाधवानी ने कहा कि अमेरिका की नीतियों पर यहूदी लॉबी का बड़ा हस्तक्षेप रहता है और आज ईरान उनकी सबसे बड़ी समस्या है। 

एप्सो के प्रांतीय अध्यक्ष मण्डल के सदस्य और बैंक ट्रेड यूनियन के वरिष्ठ नेता आलोक खरे ने कहा कि अभी अमेरिका में दो विरोधाभाषी विचार काम कर रहे है।  एक परम्परावादी लॉबी है जो हथियारों के बनाने और बेचने का कार्य करती है और जिसका उद्देश्य है कि विदेश नीति उनके अनुकूल हो।  इस दृष्टि से भारत एक खरीददार के रूप में उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। आज भारत की सैनिक महत्त्वाकांक्षाओं पर भी ध्यान देना होगा।  आज हम दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक देश हैं जबकि हमारा विदेशी मुद्रा संकट गहराता जा रहा है। 

अर्थशास्त्री एवं जोशी एन्ड अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज दिल्ली से सम्बद्ध जया  मेहता ने कहा की इन परिस्थितियों के मद्देनज़र आज आवश्यकता है कि हम पीस मूवमेंट आंदोलन को मज़बूत करके पडौसी देशों से जन आन्दोलनों के जरिये आपसी सद्भावना एवं मैत्री के पक्ष में एवं युद्ध विरोधी माहौल बनाने की दिशा में कार्य करें।  आज देश में जो पाकिस्तान को अपना दुश्मन निरूपित कर युद्ध की भूमिका लिखी जा रही है उसके विरुद्ध दोनों देशों की जनता की आवाज को बुलंद करने की आवश्यकता है। वर्तमान में सम्राज्यवादी देशों के बीच जो तनावपूर्ण सम्बन्ध बन रहे हैं।इस चर्चा में प्रगतिशील लेखक संघ इंदौर के अध्यक्ष एस के दुबे, मध्य प्रदेश एप्सो के सचिव मण्डल सदस्य एवं बैंक यूनियन के वरिष्ठ साथी अरविंद पोरवाल, बीएसएनएल यूनियन के वरिष्ठ साथी सुन्दर लालजी, अजीत बजाज, प्रगतिशील लेखक संघ इंदौर के वरिष्ठ साथी रामआसरे पाण्डे, इप्टा इंदौर के वरिष्ठ साथी प्रमोद बागड़ी, युवा अभिभाषक ऋचा बागड़ी, भारतीय महिला फेडरेशन की राज्य सचिव सारिका श्रीवास्तव, तौफ़ीक़ अहमद भी शरीक हुए।

(लेखक मध्य प्रदेश के एप्सो सचिव मण्डल सदस्य हैं) 


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