असलम ख्वाजा की किताब में देखें पाकिस्तान का वो चेहरा जिसे मीडिया कभी नहीं दिखाएगा!

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
आयोजन Published On :


पाकिस्‍तान के बारे में भारतीय सूचना माध्‍यमों से हमे जितनी भी जानकारी मिलती है, तकरीबन सभी नकारात्‍मक होती है। हमें वही छवि पाकिस्‍तान की दिखायी जाती है जैसा हमारी सरकार चाहती है। उस तरफ़ ऐसा ही है या कुछ और, यह तो नही पता लेकिन पाकिस्‍तान के मामले में भारत में जानकारी बहुत आधी-अधूरी है। सियासत को छोड़ दें, तो जनांदोलनों के मामले में पाकिस्‍तान से एक भी खबर सुनने को नहीं मिलती है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर यहां सूचना का अभाव है। ऐसे दौर में 8 फरवरी 201 को दिल्‍ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक ऐसी किताब का लोकार्पण हुआ और उस पर चर्चा हुई जो भारत के पाठकों को पाकिस्‍तान के बारे में बेहतर समझदारी बनाने में मदद कर सकेगी।

पाकिस्तान के जाने माने वामपंथी विचारक और सामाजिक कार्यकर्त्ता असलम ख्‍वाजा की लिखी पुस्‍तक “पीपल्स मूवमेंट्स इन पाकिस्तान”  (पाकिस्‍तान के जन आंदोलन) पर एक चर्चा यहां दो दिन पहले रखी गई थी। इस पुस्‍तक का प्राक्कथन नूर ज़हीर ने लिखा है और ‘द मर्जिनलाइज्ड’ प्रकाशन ने इसे छापा है।

बातचीत की शुरुआत करते हुए नूर ज़हीर ने कहा कि भारतवासियों के पास पाकिस्तान का केवल वही चेहरा है जो भारतीय सरकार पेश करना चाहती है। इसका मूल आधार उसकी अपनी सुरक्षा और शासन में बने रहने की इच्छा होती है। इसलिए गाली गलौज, सीमा पर गोलीबारी, जनता में डर उकसाया जाता है ताकि मतदान में विजय पाई जा सके। उन्होंने कहा कि किसान और मजदूर आन्दोलन तो दर्ज किए जाते हैं लेकिन कलाकारों, लेखकों, महिलाओं, मीडिया और प्रेस, छात्रों के जलूस, आन्दोलन और प्रशासकों से मुठभेड़ कभी दर्ज नहीं होते। उनके मुताबिक कश्मीर और बलोचिस्तान में चल रही जद्दोजहद को तुलनात्मक दृष्टि से देखने की ज़रूरत है और पुस्‍तक में शामिल बलोचिस्तान संबंधी अध्याय से बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है।

कार्यक्रम की अध्‍यक्षता करते हुए योजना आयोग की पूर्व सदस्‍य सईदा हमीद ने कहा कि यह एक अफसोसनाक हालात है कि पाकिस्तान में हुए अल्पसंख्यक लड़कियों के अपहरण और धर्म परिवर्तन की बात तो भारत में मीडिया बहुत उछालता है लेकिन वहां ऐसी घटनाओं के विरोध में कितने जलूस निकले, कितना लिखा गया और न्यायपालिका को आदेश देने पर मजबूर किया गया कि उन लड़कियों की वापसी हो, इसकी कोई खबर नहीं छपती। उनके शब्दों में ‘भयानक है वहां पर विद्रोही महिला होना’ क्योंकि ज़मीनी स्तर पर बहुत ख़ामोशी से काम करने वाली परवीन रहमान को भी इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह ज़मीन के नाजायज़ दखल के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रही थीं। सईदा ने किताब में छपी नूर ज़हीर की लिखी भूमिका की भी तारीफ करते हुए कहा कि उसे पढने के कारण वह सो नहीं पाई और उसी से किताब कि गति निर्धारित होती है।

कार्यक्रम में अन्य वक्ता थे द वायर के एडिटर सिद्धार्थ वरदराजन,  सांसद डी. राजा और अली अनवर तथा वार्ता का संचालन नूर ज़हीर ने किया। वरदराजन ने कहा कि असलम ख्वाजा ने अपने विश्लेषण में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रह कर तथ्यों को रखा है, जिसमें उन्होंने नामी वामपंथी कवि फैज़ अहमद फैज़ को भी नहीं बख्‍शा है और प्रमाणित किया है कि इतना बड़ा क्रांतिकारी शायर भी राष्ट्रवादिता की अंधभक्ति का शिकार हो सकता है, जैसे 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के भाषा आन्दोलन के समय फैज़ हुए थे। वरदराजन के अनुसार अपने समय और सोच के आइकॉन पर उंगली उठाना बहुत ही साहस का काम है।

सिद्धार्थ वरदराजन ने पूरी पुस्तक का एक ब्यौरा पेश किया और खासकर के बलोचिस्तान वाले अध्याय की बहुत प्रशंसा की लेकिन उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि यह अध्याय राष्ट्रपति मुशर्रफ के समय पर आकर समाप्त हो जाता है जबकि बलोचिस्तान के सन्दर्भ में बहुत कुछ उसके बाद घटित हुआ है, जिसकी जानकारी ज़रूरी है। उनका सुझाव था कि इस अध्याय को अपडेट किया जाना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी श्रोताओं का ध्यान दिलवाया कि भारत में पाकिस्तान के बारे में रुचि तो है लेकिन उसके जानकार एक भी नहीं; मसलन बलोच भाषा का जानकार विरले ही कोई हो भारत में; उसी तरह जब वर्तमान सिन्धी जानने वालों को पीढ़ी नहीं रहेगी तब कितने लोग निजी रुचि से सिन्धी सीखेंगे। उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि पाकिस्तान में पहले भारतीय अख़बारों और भारत में पाकिस्तान के अख़बारों के तीन तीन संवाददाता थे लेकिन आज दोनों देशों में एक भी नहीं है।

डी. राजा ने कहा कि इस पुस्तक से उन्हें अपनी जवानी के दिन याद आ गए। उन्हें इस बात की ख़ुशी थी की छात्र आन्दोलन पर एक अध्याय इस पुस्तक में शामिल है क्यों छात्र समुदाय का संघर्ष अपनी गतिशीलता के चलते कम ही दर्ज होता है; अक्सर इन संघर्षों से हासिल किए हुए बदलाव भी जल्दी ही प्रशासन मिटा देता है। इस किताब द्वारा उन्हें याद आए वे सब कामरेड जो मूलतः उस हिस्से के थे जो आज पाकिस्तान है और जिनके भारत आ जाने पर उन्होंने खुद उनके साथ काम किया है जैसे कामरेड पेरिन बरुचा, कामरेड रोमेश चन्द्र और बेगम हाजरा। डी राजा ने कहा कि इस पुस्तक से भारत के लोगों के दिमाग में पनप रही पाकिस्तानियों के बारे में गलतफहमियां कम हो जाएंगी।

राज्यसभा सदस्य अली अनवर ने प्रकाशकों की सराहना करते हुए कहा कि ‘द मार्जिनलाइज्ड’ ने इस किताब को छापकर बड़े साहस का काम किया है और उन्हें उम्मीद थी की इससे भारत और पाकिस्तान दोनों के बीच बेहतर समझदारी बनेगी।


Related