आम का उद्भव वस्तुत: ‘काम’ का उद्भव है!


‘शोले’ फ़िल्म में श्री रमेश सिप्पी आम के फलों वाला ‘निशानची’ सीन पहले दिखाते हैं और होली का गाना बाद में। जबकि आम तौर पर प्रकृति में होता उलटा है।


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डॉ.स्कन्द शुक्ल

टी.वी. पर स्लाइस नामक शीतल पेय का विज्ञापन देखा होगा आपने ! ‘आमसूत्र’ वाला ! जिसमें अभिनेत्री कैटरीना कैफ़ आम पर आधारित उस पेय को उत्तेजक सांकेतिक भंगिमाओं के साथ पीती हैं। वनस्पति-जगत् के इस सिरमौर की बात ही कुछ ऐसी है ; इसके अंग-अंग में उद्दाम काम समाया है। 
आम्रश्चूतो रसालोऽसौ सहकारोऽतिसौरभः ।
माकन्दः पिकबन्धुः स्याद्रसालः कामवल्लभः ॥1॥
आम के कई नाम लोकविख्यात हुए — यह आम्र तो है ही , रस के चूते रहने के कारण इसे चूत भी कहा जाता है। इसी कारण यह रसाल भी है। कोयल का यह प्रिय है , इसलिए पिकबन्धु कहलाता है और कामदेव का प्रिय होने के कारण कामवल्लभ और सहकार भी। इसमें ख़ुशबू ख़ूब है , इसलिए यह अतिसौरभ और माकन्द संज्ञाओं से भी विभूषित है। 

क्या है ‘आम’ का अर्थ ? कैसे बना है यह शब्द ? क्या है इसकी व्युत्पत्ति ? उर्दू का ‘आम’ अवाम का एकवचन है , लेकिन हिन्दी में फलविशेष के लिए प्रयुक्त होने वाला यह शब्द सम्बन्धित है संस्कृत के ‘आम्र’ से। इस ‘आम्र’ में छिपी धातु है ‘अम्’ जिसके कई अर्थों में एक अर्थ खाना भी होता है। जो सर्वथा खाने योग्य हो , वही आम्र हुआ। मगर बात इसके आगे भी सोचने लायक है , क्योंकि प्रश्न यह उठता है कि पेट को ‘आमाशय’ क्यों कहा गया। 

आम का जो आशय है , वही आमाशय कहलाया। संस्कृत में आम्र तो फलविशेष को कहा गया , किन्तु ‘आम’ कहा गया कच्चे-अधपके भोजन या किसी हरे फल को। जो खाना आप मुँह से खाते हैं , वह कूकर-कड़ाही में पका भले हो , मगर शरीर उसे कच्चा यानी आम ही मानता है। इसलिए उसे आमाशय में रखकर उसे हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और एन्ज़ाइमों द्वारा पकाता है। 

पिछली ‘अम्’ धातु पर वापस जाइए जिसके दूसरे अर्थ पर बात की जाए। ‘अम्’ चोट करने को भी कहा जाता है। इसी से ‘अम्ल’ बना है : जो भोजन को चोट देते हुए उसे पचा डाले , वह अम्ल हुआ। फिर ‘म्ल’ गन्दगी भी तो है , जिससे म्लान और मलिन जैसे शब्द निकले हैं। जो उन्हें चमका कर स्वच्छ कर दे , वही अम्ल हुआ। एसिड के इस्तेमाल से कैसे धातुएँ चमकायी जाती हैं ! 
कच्चे हरे टिकोरे ‘आम’ क्यों न हों , वे अम्ल से युक्त जो हैं। फिर जब वे शनैः-शनैः पक कर आम्र हो जाएँगे , तो उनमें ‘र्’-वाला मधुर रस समाहित हो जाएगा।

पश्चिम में जन्मे धर्मों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान सेब का है ; भारतीय धर्म और संस्कृति वह दर्ज़ा आम को देते हैं।

सहकारं च वातघ्नं पित्तश्लेष्मविनाशनम् ।
कषायं मधुरं वृष्यं गुरु स्निग्धं विशेषतः ॥2॥

सहकार (आम) वातरोगों को हरने वाला है , यह पित्त और कफ विकारों का भी विनाश करता है। इसमें कसैला और मधुर स्वादों का जो समावेश है , यह वीर्यवर्धक ( कामशक्ति को बढ़ाने वाला ) , मेदकारक ( मोटापा / तन्दरुस्ती बढ़ाने वाला ) और शरीर में चिकनाहट पैदा करने वाला है। 
मगर ये सारी बातें तो ग्रीष्म ऋतु के समाप्ति पर चर्चायोग्य है : जब ज्येष्ठ बीत रहा होता है और आषाढ़ का आगमन हो रहा होता है और भारतीय बाज़ार पके आमों से पट जाते हैं। गर्मी के मौसम के कामशक्ति को क्षीण कर दिया था ; अब बरसात आयी है और अपने संग उस गर्म फल को लायी जो प्रेमीजनों का अतिशय प्रिय है। अब आग बाहर कुदरत में नहीं लगेगी , अब भीतर शयनागार ( बेडरूम ) में जल उठने का समय आ गया है। 

पर अभी तो हम वसन्त ऋतु में जी रहे हैं ; अभी तो फाल्गुन आने को है। तो ऐसे में ज्येष्ठ-आषाढ़ की बातें क्यों भला ! अभी तो आम फल बना ही नहीं , अभी तो वह बौर-मात्र है अपने पेड़ों पर। एक नन्हा साधारण-सा पुष्प जो लगभग गुमनाम ही रह जाता , अगर साहित्य ने उसे पोषित न किया होता। एक ऐसा फूल जो अपनी संज्ञा तक खोकर बौर कहाता है। बौर , जिसके खिलने पर सारा जग मुहब्बत में बौरा जाता है !

स्मरहुताशनमुर्मुरचूर्णतां दधुरिवाम्रवणस्य रज:कणा:।
निपतिता: परित: पथिकव्रजानुपरि ते परितेपुरतो भृशम्॥3॥
[मार्ग चारों ओर आम के बौरों के चूर्ण से पटे पड़े हैं. और वे विरही पथिकों की विरह-पीड़ा को जगाकर उन्हें संतप्त कर रहे हैं. आम्रमंजरी का पराग मानो कामाग्नि को उद्दीप्त करने का विशेष इंधन (मुर्मुरचूर्ण=आग जलाने की भूसी) हो।]
संस्कृत के महाकवि माघ अपनी कृति ‘शिशुपालवधम्’ में कुछ इस प्रकार लिखते हैं।

आम की बौर कामदेव का चौथा किन्तु सबसे अमोघ बाण है। मल्लिका के सम्मोहन से बहुत आगे , अरविन्द के उन्मादन से बहुत अधिक , अशोक के शोषण से भी कहीं उद्दाम। आम की बौर तापन की प्रतीक बन कर सर्वत्र खिली है ; इनसे लदे वृक्ष उन प्रेमियों-से हैं जो अपनी प्रेयसियों से मिलने के लिए पूरा शृंगार किये तैयार खड़े हैं। और फिर इनके चाहने वाले एक कहाँ ! मीठी कोयल भी इनकी दीवानी है , चटोरे तोते भी। मधुमक्खियाँ , भौंरे और तितलियाँ के फिर क्या कहने ! वे तो अभी से इनपर पागलों-से टूटे पड़े हैं। 

आम के पेड़ों से आजकल मिलिए , जब ये फलों से नहीं लदे हैं और महसूस कीजिए कि इन्हें वसन्त का ‘सार’ साहित्य में क्यों कहा जाता है। कोयल की कूक में उसके प्रेम का कथ्य पढ़िए कि वह अपने उस पिकबन्धु की ऐसी दीवानी क्यों है। भौंरों के संग उड़ने की कोशिश कीजिए कि वे इन मंजरियों पर इस तरह अपना श्रमशील प्रणय क्यों लुटा रहे हैं। और अब फिर कालिदास के इस प्रसंग को पढ़कर मगन हो जाइए : 

( आम की बौर को देखती हुई एक परिचारिका आती है। उसके पीछे दूसरी परिचारिका है। )
पहली — हे वसन्त ऋतु के जीवन-सर्वस्व ! वसन्त के मंगल स्वरूप ! हे लाल , हरे , पीले रंगवाले बौर ! आज पहले-फल तुम्हारा दर्शन हो रहा है। तुम हमपर प्रसन्न हो जाओ , जिससे हम लोगों का वसन्त सुख से बीते। 
दूसरी —- री परभृतिका ( कोयल ) ! तू अकेले-अकेले क्यों कूक रही है ?
पहली —- मधुकारिका ( भौरी ) ! आम की बौर देखकर परभृतिका ( कोयल ) तो मतवाली हो ही जाती है। 
दूसरी —– ( उल्लास से भरी हुई शीघ्रता से पास आती है ) क्या वसन्त आ गया ?
पहली —– मधुकारिका ( भौंरी ) ! तेरे भी तो मस्ती के गीत गाने के ये ही दिन हैं। 
दूसरी —– सखी ! मुझे सहारा दे तो पंजों के बल खड़ी होकर पूजा के लिए आम की बौर उतार लूँ। 
पहली —– पूजन का आधा फल मुझे भी मिले , तो सहारा दूँ। 
दूसरी —- वह तो बिना कहे ही मिल जाता , क्योंकि हम-तुम तो दो शरीर और एक प्राण हैं। ( सखी के सहारे से आम की बौर उतारती है। ) वाह ! यद्यपि अभी बौर खिल नहीं पायी है , फिर भी डाल से तोड़ते ही कैसी सुगन्ध फटी पड़ रही है। ( अंजलि बाँधकर ) री आम की मंजरी ! मैं तुझे धनुषधारी कामदेव के लिए भेंट करती हूँ। परदेस में गये हुए लोगों की युवती स्त्रियों को कामपीड़ा देने के लिए तुम कामदेव के पाँच बाणों में सबसे अधिक पैनी बन जाओ।

( कालिदास , अभिज्ञानशाकुन्तलम् , छठाँ अंक। )

आम का उद्भव वस्तुतः काम का उद्भव है , आम की गन्ध सत्यता में काम की गन्ध है , आम का स्वाद ही पूर्णरूपेण काम का स्वाद है। एक ऐसा वृक्ष जिसकी खिलती बौरों के तले न जाने कितने ही इश्क़ पनपे हैं , एक ऐसा पेड़ जिसकी लकड़ी की जलती सेज पर लेट कर इंसान इस दुनिया से विदा लेता है। ‘आम-के-आम , गुठलियों के दाम’ की कहावत को चरितार्थ करता यह फल भारतीय लोकचेतना में धर्म-अर्थ-काम और कदाचित् मोक्ष से सम्बद्ध यों ही नहीं माना गया।

इसलिए अब इस आम्र-ऋतु में मन में ‘अमवा की डाली बोले ‘काली कोयलिया आजा बलमवा हमार आजा बलमवा हमार’ गुनगुनाइए और रामगढ़ की उस चुलबुली बातूनी बसन्ती से चुहुलबाज़ खुराफ़ाती वीरू के अंदाज़ में पूछ ही डालिए —- ” बताओ कौन सा आम तोड़ना है ?” 

( एक बात पर और ग़ौर करिएगा। ‘शोले’ फ़िल्म में श्री रमेश सिप्पी आम के फलों वाला ‘निशानची’ सीन पहले दिखाते हैं और होली का गाना बाद में। जबकि आम तौर पर प्रकृति में होता उलटा है। पहले होली में बौर फूलती है और फिर पेड़ों पर पके फल लदते हैं। सोचिएगा इस बाबत ज़रा। क्या यहाँ निर्देशक चूक गये ? क्योंकि फ़िल्म की शूटिंग भले ही दक्षिण भारत में हुई हो , उसकी कथावस्तु उत्तर भारतीय ही है। )

(पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। लखनऊ में रहते हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।)