अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर

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डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 16

पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और  समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की सोलहवीं कड़ी – सम्पादक

 

 

131.

 

पैनल व्यवस्था खत्म करने पर महात्मा से मिलने की इच्छा

दलित वर्गों के लिए मोहम्मद अली का नुस्खा

क्राॅनिकल की विशेष रिपोर्ट

(दि बाम्बे क्रानिकल, 22 अप्रैल 1933)

 

‘दि बाम्बे क्रानिकल’ समझता है कि डा. आंबेडकर और उनकी पार्टी ने पूना समझौते में कुछ बुनियादी संशोधन करने का कदम उठाया है।

इस सम्बन्ध में डा. आंबेडकर रविवार को महात्मा जी से मिल सकते हैं, और यदि वे महात्मा का विचार बदलने में सफल हो जाते हैं, और उनकी स्वीकृति मिल जाती है, तो वे संयुक्त चयन समिति में इस मुद्दे को उठा सकते हैं और समझौते में संशोधन करा सकते हैं। समझौते में परिवर्तन का प्रस्ताव पैनल व्यवस्था को लेकर है, जिसके अनुसार दलित वर्गों को चार प्रत्याशियों के चैनल का चुनाव करना होता है, जिसमें से एक को, जो चुनाव में सबसे ऊपर है, उसे दूसरे चुनाव में सवर्ण हिन्दुओं और हरिजनों दोनों के सर्वाधिक वोट मिलने के बाद ही निर्वाचन क्षेत्र से चुना जाता है।

 

पैनल को खत्म करना है

 

डा. आंबेडकर पैनल-प्रणाली को समाप्त करना चाहते हैं, जिसे वे एक मॅंहगी व्यवस्था के रूप में देखते हैं और उसके स्थान पर मोहम्मद अली फार्मूले पर आधारित एकल चुनाव चाहते हैं।

वे समझते हैं कि इससे न केवल चुनाव की पद्धति आसान होगी, बल्कि खर्चे में भी कमी आयेगी, और यह अपेक्षाकृत पैनल पद्धति के, जो बहुतों के अनुसार, पृथक निर्वाचन का आभास कराती है, लोकतान्त्रिक विचारों के भी ज्यादा समीप होगी।

 

महात्मा का इशारा

 

यह उल्लेखनीय है कि यरवदा वार्ता के दौरान, जब डा.आंबेडकर ने यह प्रस्ताव रखा था कि प्रधानमन्त्री द्वारा दलित वर्गों को दी गईं सीटों को पैनल पद्धति से भरा जाना चाहिए और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा स्वीकृत अतिरिक्त सीटों के लिए संयुक्त निर्वाचन पद्धति से चुनाव होना चाहिए, तो महात्मा जी ने डा.आंबेडकर को सभी सीटों पर पैनल पद्धति से चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी।

 

मोहम्मद अली फार्मूला

 

डा. आंबेडकर के पैनल पद्धति को समाप्त करने के नए प्रस्ताव का स्वागत महात्माजी समेत सभी करेंगे। किन्तु यह सन्देहजनक है कि मोहम्मद अली के फार्मूले पर आधारित किसी भी प्रकार की योजना से पैनल पद्धति को प्रस्थापित करने की उनकी योजना सवर्ण हिन्दुओं को स्वीकार होगी या नहीं।

यह पूरी तरह सम्भव है कि दलित वर्गों के अन्य उपवर्ग, जिनका नेतृत्व संयुक्त निर्वाचन के समर्थक राजा बालू और देवरुखकर कर रहे हैं, मोहम्मद अली फार्मूले का विरोध कर सकते हैं।

अगर डा. आंबेडकर अपनी नई योजना के लिए दलित वर्गों के सभी उपवर्गों और सवर्ण हिन्दुओं तक ले जाने में समर्थ हैं, तो चुनाव की इस लोकतान्त्रिक और सरलतम पद्धति का पूरा देश स्वागत करेगा।

 

 

132.

 

प्रतीक्षा क्यों नहीं?

(दि फ्री प्रेस जर्नल, 25 अप्रैल 1933)

 

संयुक्त संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने के लिए लन्दन जाने से पहले डा.आंबेडकर ने राजनीतिक जगत पर बम का एक गोला फेंक दिया है, जिसकी गूॅंज कुछ समय तक लगातार सुनी जायेगी। उन्होंने महात्मा गाॅंधी से अपनी बातचीत में पूना समझौते को बदलने की माॅंग की है और सुझाव दिया है कि समझौते में शामिल ‘हरिजन’ प्रत्याशियों के निर्वाचन के लिए पैनल पद्धति को बदलकर ऐसी पद्धति अपनानी चाहिए, जिसके आधार पर केवल हरिजन प्रत्याशी ही निर्वाचित घोषित होने चाहिए, जो संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों में से हरिजन वोटों की एक निश्चित न्यूनतम संख्या प्राप्त करने में सफल हों।

इस परिवर्तन के समर्थन में डा आंबेडकर का एकमात्र तर्क यह है कि पैनल पद्धति उनके गरीब समुदाय के लिए बहुत मॅंहगी है। अगर वे इसके लिए कोई और ठोस कारण प्रस्तुत करते, तो उनकी परिवर्तन की माॅंग को ज्यादा मजबूती मिलती। पर चूॅंकि उन्होंने अन्य कोई ठोस कारण नहीं दिया है, इसलिए उन्हें यही सलाह है कि वे तब तक की प्रतीक्षा करें, जब तक कि देश इस परिवर्तन का अर्थ समझने में सक्षम न हो जाये।

सम्भवतः कुछ हरिजन नेताओं में यह नया विचार उभरा हो कि इस पैनल पद्धति से उनके समक्ष आर्थिक संकट पैदा हो जायेगा। परन्तु अगर ऐसा है, तो हम उन हरिजन नेताओं के नाम जानना चाहेंगे, और यह भी कि इस तरह की उनकी आशंकाओं का औचित्य क्या है? हम उन नेताओं को इस विषय पर बिना किसी मानसिक पूर्वाग्रह के, जिसके कारण वे सामान्यतः ऐसे स्पष्ट और अचानक नापसन्द और चैंकाने वाली घोषणाएॅं करते हैं, खुले दिल से विचार करने का सुझाव देते हैं। अगर उन्हें यह डर है, जैसा कि उनके सुझाव से पता भी चलता है, कि निश्चित न्यूनतम वोटों की पद्धति की तुलना में, पैनल पद्धति उनके साम्प्रदायिक हितों का प्रभावी प्रतिनिधित्व करने के दृष्टिकोण से कम भरोसेमन्द है, तो उन्हें यह बताना होगा कि ऐसा कैसे हो सकता है?

 

विरोधी पक्ष का मत

 

इससे उनके विरोधियों को यह कहने का खुला अवसर मिल गया है कि वे इतनी जल्दी अपनी माॅंग बदल रहे हैं और उन्होंने कम-से-कम यह देखने के लिए कि पूना समझौता किस तरह काम कर रहा है, एक चुनाव होने तक का इन्तजार क्यों नहीं किया? अगर चुनाव होने के बाद यह पता चलता कि हरिजनों के साथ भारी अन्याय हुआ है, तो उन सुधारकों की तुलना में, जो महात्मा गाॅंधी के द्वारा आमरण अनशन की अग्निपरीक्षा के दौरान उठ खड़े हुए थे, और कोई भी स्वेच्छा से उनकी सहायता नहीं करेगा। क्योंकि, महात्मा गाॅंधी ने डा. आंबेडकर के साथ बातचीत के दौरान अपनी टिप्पणियों में ठीक ही कहा था कि हरिजनों और हिन्दुओं के हितों के बीच कोई वास्तविक संघर्ष नहीं होना चाहिए, हरिजनों तथा सवर्ण हिन्दुओं के बीच केवल इस सिद्धान्त पर परीक्षण होना चाहिए कि हरिजन वर्गों के वास्तविक और सशक्त हितों के लिए क्या उचित और उपयोगी है?

 

समय पूर्व

 

इसलिए इस सम्पूर्ण प्रश्न पर समय पूर्व पुनर्विचार से बहुत नुकसान हो सकता है,और इससे वास्तव में उन हिन्दुओं के हाथ मजबूत होते हैं, जो अपने निजी उद्देश्यों के लिए पूना दस्तावेज में संशोधन चाहते हैं। कुछ बंगाली हिन्दुओं ने शिकायत की है कि उनके प्रान्त में दलित वर्गों को बहुत ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया है। सनातनियों ने अभी तक अपने प्राचीन क्षेत्र को देने के लिए अपने आप को तैयार नहीं किया है, हालांकि हरिजनों के द्वारा बहुत सीमित प्रतिनिधित्व माॅंगा गया है। वे अस्पृश्यता-विरोधी आन्दोलन की वर्तमान सफलता को पूरी तरह खत्म कर देने के लिए खुशी से वोट देंगे।

यह कहना पुनरावृत्ति होगी कि अगर पैनल पद्धति अपने गुणों पर काम करती है, उसका कोई गम्भीर विरोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि तब वह एक बेहतर पद्धति हो सकती है, जो जरूरी सदाचार और संयुक्त निर्वाचन के मूल आधार को नष्ट किए बिना काम कर सकती है।

हमें जनता के दिल से इस डर को भी निकालना चाहिए कि श्वेत पत्र के प्रकाशन के बाद और बाद में उत्पन्न होने वाली स्थिति के विचार से निहित पक्ष के द्वारा पूना समझौते को खत्म करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।

 

गलत अन्त से

 

अवश्य ही पूना पैक्ट के लेखक डा. आंबेडकर को संयुक्त चयन समिति में फिर से इस प्रश्न पर विचार के लिए धमकाना उचित नहीं होगा, जैसा कि वास्तव में इस तरह की धमकी उन्होंने खुद बम्बई में एक साक्षात्कार में दी थी। वह सन्देह करने का असंदिग्ध तरीका होगा, जिसका सम्भावित यह होगा कि वह हरिजनों के कुछ सर्वश्रेष्ठ मित्रों को विरोधी वर्गों में ढकेल देगा। चूॅंकि पूना समझौता एक स्वदेशी परिणाम है, इसलिए उसमें जो भी परिवर्तन होना चाहिए या होगा, वह भारतीयों के द्वारा भारत में ही होना चाहिए और होगा। कोई भी स्वाभिमानी भारतीय एक आन्दोलन के लिए ब्रिटिश संसदीय समिति के हस्तक्ष्ेप को, अच्छे इरादों के साथ भी बरदाश्त नहीं कर सकता।

 

133.

 

डा. आंबेडकर का प्रस्ताव

(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 25 अप्रैल 1933)

यह डा. आंबेडकर की परियोजना के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हें पूना समझौते को, जो अब हिज मैजेस्टी की सरकार द्वारा दिए गए साम्प्रदायिक निर्णय का एक हिस्सा बन गया है, प्रभावित करने वाले मुद्दे को उठाने के लिए अपने लन्दन प्रस्थान करने की संध्या तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। क्या डा. आंबेडकर और उनके मित्र प्रारम्भिक चुनावों की पद्धति को समाप्त करना चाहते हैं, जिसके द्वारा सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्येक आरक्षित सीट पर लड़ने के लिए पैनल में दलित वर्गों के चारों प्रत्याशियों की वापसी हो जाती है। यह पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के समय ही देखा जाना चाहिए था कि यह पद्धति दलित वर्गों के सभी प्रत्याशियों पर एक दोहरे चुनाव अभियान को थोपता है, जिसमें अतिरिक्त खर्च भी शामिल है। डा. आंबेडकर इस पद्धति को अपने समुदाय के लिए अनुचित और अन्यायपूर्ण मानते हैं, और कहते हैं कि उन्होंने इस विचार को पिछले सितम्बर में जब समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, मि. गाॅंधी के जीवन को बचाने के इरादे से दबा दिया था। किन्तु यह भी हो सकता है कि इस खर्च के अलावा कुछ अन्य कारण भी डा. आंबेडकर के प्रस्ताव में शामिल हों। सब जानते हैं कि दलित वर्गों के नेता इस बात से डरते हैं कि सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में पैनल के सबसे कमजोर सदस्य वापिस आ सकते हैं, अर्थात्, वे प्रत्याशी, जिन्होंने प्राथमिक चुनाव में चौथा स्थान प्राप्त किया है, और जिन्हें दलित वर्गों के दस प्रतिशत वोट भी प्राप्त नहीं हुए हैं। इस पद्धति से दलित वर्गों के निष्ठावान सदस्यों को एक भी सीट नहीं मिल सकती। इस खतरे से बचने और साथ-साथ दोहरे चुनाव की खर्चीली पद्धति से भी छुटकारा पाने के लिए यह सुझाव दिया गया है कि पैनल की व्यवस्था को इस शर्त के अधीन खत्म कर दिया जाना चाहिए कि कोई भी सदस्य, जो सामान्य क्षेत्र में दलित वर्गों की सीट पर खड़ा होता है, उसे तब तक निर्वाचित घोषित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि वह दलित वर्गों के 25 प्रतिशत वोट हासिल नहीं कर लेता है।

इस सुझाव के पक्ष में यह एक अच्छी शर्त है कि इसकी स्वीकृति उन लोगों पर निर्भर करती है, जो पूना समझौते में पक्षकार थे। इसलिए डा. आंबेडकर से हमारी अपील यह है कि वे संसदीय संयुक्त चयन समिति में अपने दृष्टिकोण को स्वीकृत कराएॅं। परन्तु हमें नहीं लगता कि संयुक्त समिति इस मामले में वैधानिक रूप से हस्तक्षेप करेगी, क्योंकि पूना समझौता जिस साम्प्रदायिक निर्णय का अंग है, उसे केवल प्रभावित पक्षकारों के पूर्व समझोते के द्वारा ही संशोधित किया में जा सकता है। असल में पूना समझौता दलित वर्गों के सम्बन्ध में दिए गए हिज मैजेस्टी के कम्यूनल अवार्ड के स्थान पर ही स्थापित किया गया है। यही नहीं, संशोधन के इस प्रस्ताव से बंगाली हिन्दुओं के द्वारा पूना समझौते के सभी प्राविधानों पर पुनर्विचार करने की माॅंग भी की जा सकती है। यह पूरी तरह सही है कि डा. आंबेडकर का प्रस्ताव पूना समझौते के मूल आधार के साथ हस्तक्षेप नहीं करता है, क्योंकि यह दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व की संख्या को बदलना नहीं चाहता है। दूसरी तरफ, यह प्राथमिक चुनावों की प्रणाली को खत्म कर देगा, जो वास्तव में अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र हैं; इस हद तक तो इस योजना की पूरे हिन्दू समुदाय को सराहना करनी चाहिए। क्या संयुक्त चयन समिति में हिन्दू प्रतिनिधि अपने सह-धर्मियों की साधारण सभा इसके लिए जवाब दे सकते हैं, यह हम नहीं जानते, पर इस मामले को हिन्दुओं को स्वयं ही सुलझाना होगा। किन्तु यह साफ है कि प्रधान मन्त्री अपना निर्णय तब तक नहीं बदल सकते, जब तक कि इस बात से सन्तुष्ट नहीं हो जायेंगे कि प्रस्तावित परिवर्तन को दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया है। पूरा मामला बता रहा है कि छह महीने पहले मि. गाॅंधी द्वारा समस्या के हल के लिए दूरतम उपायों से किए गए समाधान पर नई कठिनाईयाॅं और खतरे दिखाई देने लगे हैं।

 

 

134.

 

डा. आंबेडकर का जन्मदिन समारोह

(दि बाम्बे एस. ऐबस्ट्रेक्ट, 22 अप्रैल 1933)

 

14 अप्रैल को नासिक और पूना में डा. आंबेडकर का जन्मदिन मनाया गया। नासिक में 300 अछूतों ने भाग लिया, जिसकी अध्यक्षता बी. के. गायकवाड़ ने की। उन्होंने श्रोताओं को डा. आंबेडकर के आदेशों के अनुसार आचरण करने को कहा और अपने मतभेद भुलाकर संगठित होने की सलाह दी।

पूना में 200 अछूतों ने जुलूस निकाला, जो छावनी में जाकर एक सभा में बदल गया। एक अन्य सभा लक्ष्मी थिएटर, किरकी में हुई, जिसमें 100 अछूतों ने भाग लिया। वक्ताओं ने डा. आंबेडकर के जीवन और कृतित्व पर प्रकाश डाला।

डा. आंबेडकर ने स्वयं भी 9 अप्रैल को, थाणा जिले के बेसिन पुलिस स्टेशन के अन्तर्गत सोपारा में एक सभा को सम्बोधित करते हुए अपने श्रोताओं से कहा कि वे उन सवर्ण हिन्दुओं के नेताओं पर भरोसा न करें, जो अछूतों से घृणा करते हैं।

 

135.

 

डा. बी. आर. आंबेडकर

(दि बाम्बे एस. ऐबस्ट्रेक्ट, 6 मई)

  1. पूना, 29 अप्रैल- डा. आंबेडकर 23 अप्रैल को पूना आए और उसी दिन जेल जाकर मि. गाॅंधी से मिले। उन्होंने पूना समझौते में पैनल पद्धति के प्राविधान पर चर्चा की।

 

136.

 

जेल अनुशासन के क्रॅास पर उन्हें सूली न दें

वह अकेले ही हिन्दुओं के दोनों वर्गों के बीच लम्बे समय की

खाई पर पुल बना सकते हैं

(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 22 अगस्त 1933)

 

हरिजनों के ‘भक्तप्रदर्शक मेले का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन रविवार को सायं 9 बजे परेल में कूरिमभाय ईब्राहिम लाइब्रेरी के परिसर में हुआ। इसमें रोहिदास समाज के लोगों की विशाल भीड़ मौजूद थी, जिसमें भारत के वायसराय और बम्बई के गवर्नर को सम्बोधित करते हुए निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया।

 

प्रस्ताव

हरिजनों की यह सभा दुख प्रकट करती है कि महात्मा गाॅंधी ने आमरण अनशन किया, जब तक कि सरकार ने उन्हें हरिजनों के उत्थान के लिए पहले की तरह काम करने की अनुमति नहीं दी।

इसलिए यह सभा सरकार से प्रार्थना करती है कि वह दयालु होकर पहले की तरह ही महात्मा को जेल से हरिजनों के उत्थान के लिए काम करने की अनुमति प्रदान करे, अन्यथा उन्हें काफी हद तक अपने हितों का नुकसान होने की आशंका है।

यह सभा भक्तप्रदर्शक मेले के रिहर्सल में भाग लेने के लिए आयोजित की गई थी, जिसका आरम्भ विशेष रूप से मि. सखाराम एन. कजरोल्कर, प्रसिद्ध हरिजन कवि और नाटककार के निर्देशन में हरिजनों के द्वारा अगले गणेशोत्सव के लिए किया गया है। उन्होंने प्रस्ताव पास करके महात्मा गाॅंधी में भरोसा व्यक्त किया है, जिन्होंने हरिजनों के हित के लिए निर्बाध कार्य करने की अनुमति न मिलने के कारण जेल में आमरण अनशन कर दिया है।

इस सभा में 15 सौ हरिजनों ने, जिनमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल थे, भाग लिया था, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध क्रिकेटर और बम्बई के प्रमुख हरिजन नेता मि. पी. बालू ने की थी।

सभा को जिन वक्ताओं ने सम्बोधित किया, उनमें डा. एस. एस. सत्या, मि. डी. एस. बाबरेकर और मि. एम. एन. तालपड़े प्रमुख थे।

 

 

हीनता छोड़नी चाहिए

 

डा. सत्या ने श्रोताओं से हीनता की भावना छोड़ने का आह्वान किया, जो दुर्भाग्य से समाज में उनके स्तर के बारे में उनके दिमागों में भरी हुई है। उन्होंने कहा कि हरिजनों को अपने अन्दर मौजूद सभी बुराइयों को छोड़ देना चाहिए।

मि. बाबरेकर ने महात्मा गाॅंधी द्वारा जेल में आरम्भ किए गए उपवास का उल्लेख करते हुए कहा कि आज का यह समारोह इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि महात्मा गाॅंधी ने हरिजनों के उत्थान के लिए जो अनशन पिछले वर्ष किया था, आज हरिजन उसका पूरी तरह से अच्छा जवाब दे रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि हरिजनों की सेवा को जारी रखने के लिए महात्मा गाॅंधी की माॅंग पूरी तरह उचित है, जिसे सरकार ने पिछले वर्ष स्वीकार किया था, और इस बार भी इनकार करने का कोई कारण उसके पास नहीं है। उन्होंने श्रोताओं को न केवल मनोरंजन के लिए मेला देखने के लिए प्रोत्साहित किया, बल्कि उनकी शिक्षाओं को घर ले जाकर उन पर अमल करने का भी आह्वान किया।

मि. तालपड़े ने कहा कि जब उन्होंने उस रात बच्चों के प्रदर्शन को देखा, तो उन्हें यकीन हो गया कि हमारे बच्चे भी उच्च समुदाय के बच्चों की तरह बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं।

 

वह अकेले पुल बाॅंध सकते हैं

 

मि. पी. बालू ने श्रोताओं को बताया कि उनके हितों के लिए महात्मा गाॅंधी का जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यदि हरिजनों के आदर्श को प्राप्त करना है, तो महात्मा का जीवित रहना आवश्यक है और वह जानते हैं कि महात्मा ही वह एकमात्र व्यक्ति हैं, जो हिन्दू समुदाय के इन दोनों वर्गों के बीच की लम्बी खाई पर पुल बाॅंध सकते हैं।

इसके बाद मि. बालू ने भक्तिप्रदर्शक मेले का उदघाटन किया और अपने समुदाय के लिए इस तरह की संस्था के महत्व को बताते हुए कहा कि लोग मेले की शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाएॅं और इस बात को ध्यान में रखें, जो आज के अतिथियों ने उन्हें दिया है। मि. सखारामबुआ काजरोल्कर ने मेले का संक्षिप्त इतिहास बताया और समुदाय के उन प्रमुख नेताओं का उल्लेख किया, जिनकी सहायता ने इस मेले को सफल बनाया।

कुछ अतिथियों ने, जो वहाॅं उपस्थित थे, स्वेच्छा से दान देने की घोषणा की।

 

पिछली कड़ियाँ–

 

15. न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !

14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर

13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर

 12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क

11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!

7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?

6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर

5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर

4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !

3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !

2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।