वात्सल्य और आदर के भाव से बँधे थे गाँधी और सुभाष !


आज नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर भी गाँधीजी के साथ उनके आपसी संबंधों पर चर्चा करना इसीलिए जरूरी है कि जब तक लोगों के दिमाग में भर दिया गया कचरा निकाला नहीं जाएगा, सकारात्मक विचारों के लिए जगह नहीं बनेगी


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सुभाष जयंती पर विशेष…..

सौरभ वाजपेयी

हमारे समय का दुर्भाग्य है कि अपने महापुरुषों की जयंतियों पर हम उनके योगदान पर कम और उनके अपने समकालीन महापुरुषों के बीच मतभेदों पर बात करने के लिए अभिशप्त हैं. आज नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर भी गाँधीजी के साथ उनके आपसी संबंधों पर चर्चा करना इसीलिए जरूरी है कि जब तक लोगों के दिमाग में भर दिया गया कचरा निकाला नहीं जाएगा, सकारात्मक विचारों के लिए जगह नहीं बनेगी. हम अक्सर लोगों के बीच उनके संबंधों का मूल्याँकन उनके मतभेदों के आधार पर करते हैं लेकिन उनके बीच का परस्पर प्रेम, आदर और कई बार वात्सल्य हमें दिखाई नहीं देता. 

“प्रेम की मेरी परिभाषा यह है कि प्रेम अगर गुलाब की पंखुड़ियों जैसा नाज़ुक हो सकता है तो काँटे से ज्यादा सख्त भी”. यह उस लेख का अंश है जो गाँधीजी ने कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा सुभाष चन्द्र बोस को निष्काषित करने के बाद 13 जनवरी 1940 को अपने मुखपत्र हरिजन में लिखा था. उन्होंने आगे लिखा— “मेरी पत्नी को यह सख्त़ वाला प्रेम अनुभव करना पड़ा. मेरा बड़ा बेटा तो आज तक यह अनुभव कर रहा है. मैं सोचता था कि मैंने सुभाष बाबू को हर समय अपने बेटे की तरह प्रेम किया है. ” इसके बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हुए लिखा कि “मुझे खेद है कि उन पर लगाए गए इस प्रतिबंध के पीछे मैं पूरी तरह से शामिल हूँ.”

एक तरफ़ आला दर्ज़े के व्यक्तिगत संबंध और दूसरी तरफ़ घनघोर वैचारिक विरोध— गाँधीजी और नेताजी के बीच के रिश्ते को समझने का यही एक सूत्र है. बल्कि कहें तो स्वाधीनता संघर्ष के तमाम नेताओं के आपसी संबंधों को समझने का यही एक सूत्र है. एक तरफ़ देखिये तो उनके बीच विचारधारा और रणनीति के मुद्दे पर तीखे वैचारिक मतभेद दिखाई देते हैं. तो दूसरी तरफ़ वो ही लोग एक-दूसरे को बेहद प्यार, सम्मान और क़द्र की नज़र से देखते थे. कुछ लोगों को राजनीतिक मतभेदों को व्यक्तिगत मतभेदों की तरह देखने की आदत हो जाती है. ऐसे लोग स्वाधीनता संघर्ष की इस विशिष्ट राजनीतिक संस्कृति को समझ नहीं पाते. उन्हें दृष्टिकोण के यह अंतर एक-दूसरे के प्रति प्रतिस्पर्धा, जलन और वैमनस्य की तरह दिखाई देने लगते हैं.

एक दूसरी जगह भी सी० एफ० एंड्रूज़ को लिखी एक चिठ्ठी में गाँधीजी कहते हैं कि उनके हिसाब से “सुभाष एक परिवार के बिगड़े बच्चे जैसी हरकत कर रहे हैं. उनको सही राह पर लाने का सिर्फ़ एक तरीका है कि उनकी आँखें खोल दी जाएँ.” गाँधी के हिसाब से सुभाष बाबू की आँखें खोलना इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि वो कांग्रेस को दक्षिण बनाम वामपंथ के खाँचों में बांटना चाहते थे. जबकि गांधीजी की समझ थी कि जब तक भारत अंग्रेजी राज के चंगुल से आज़ाद नहीं हो जाता, कांग्रेस में कोई विचारधारात्मक बँटवारा आज़ादी की मुहीम को नुकसान पहुंचाएगा.

फिर भी अगर यह मान लिया जाए कि गाँधीजी ने नेताजी के साथ जो किया वो सरासर अन्याय था तो भला इसका सबसे बड़ा गवाह कौन होगा? निश्चित ही नेताजी स्वयं ही अपने बाद के दिनों में गाँधी सहित कांग्रेस के समूचे नेतृत्व को अपने साथ किये ‘दुर्व्यवहार’ के लिए कोस सकते थे. लेकिन इसके उलट जब उन्होनें आज़ाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करना शुरू किया तो अपनी सेकंड गुरिल्ला रेजिमेंट का नाम गाँधी ब्रिगेड रखा. क्रमशः दूसरी और तीसरी ब्रिगेड के नाम मौलाना आज़ाद के नाम पर ‘आज़ाद ब्रिगेड’ और जवाहरलाल नेहरु के नाम पर ‘नेहरु ब्रिगेड’ रखे गए.

ध्यान रहे ये वो ही मौलाना आज़ाद थे जो बंगाल कांग्रेस में सुभाष बाबू के प्रतिद्वंदी कद्दावर नेता थे. एक ही राज्य में सक्रिय होने की वजह से और मौलाना आज़ाद के गाँधीजी के ज्यादा करीब होने की वजह से उनके बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक थी. वहीं नेहरु के बारे में तो माना जाता था कि यदि उन्होंने त्रिपुरी संकट के समय सुभाष बाबू का साथ दे दिया होता तो तस्वीर कुछ और हो सकती थी. यानी उस दौर के लोगों को यह बखूबी पता था कि वैचारिक और व्यक्तिगत मतभेद दो अलग चीजें होती हैं जिनको अलग-अलग ही निभाना होता है.

रही बात नेताजी के ह्रदय में गाँधी के स्थान की तो उसके लिए गाँधीजी की 75वीं वर्षगाँठ पर 2 अक्टूबर 1943 को बैंकाक से दिए गए नेताजी का एक ब्रॉडकास्ट का उल्लेख जरूरी है. इसमें उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में गाँधीजी के योगदान को रेखांकित करते हुए कहा था कि “यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर 1920 में वो (गाँधी) संघर्ष के अपने नए हथियार (सत्याग्रह और असहयोग) लेकर आगे नहीं आये होते तो भारत आज भी औंधे मुँह ही पड़ा होता.  

शायद यह नेताजी और गाँधीजी के बीच का परस्पर प्रेम और सम्मान ही था कि अपने एक प्रसिद्ध रेडियो मेसेज में नेताजी ने गाँधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ का नाम दिया जो स्वतंत्र भारत में गाँधीजी के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गया. नेताजी ने इस ब्रॉडकास्ट में कहा कि “राष्ट्रपिता भारत की आज़ादी की इस पवित्र लड़ाई में हम आपका आशीर्वाद और शुभेच्छा चाहते हैं”. गाँधी भी नेताजी के इन संबोधनों को बड़ी उत्सुकता से सुनते थे. एक बार ऐसे ही एक संबोधन के बाद उन्होंने अपने साथ बैठे एन०जी० रंगा से बहुत भावुक होते हुए कहा कि “वो (सुभाष) अपनी आवाज़ से बहुत खुश और सक्रिय दिखाई दे रहा है.”

लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं।