डॉ.आंबेडकर ने आज पेश किया था हिंदू कोड बिल, था महिलाओं की आज़ादी का ऐलान!

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आज 11 अप्रैल है। 1947 में आज ही के दिन डॉ.आंबेडकर ने संविधान सभा में हिंदू कोड बिल पेश किया था। यह हिंदू महिलाओं की आज़ादी का ऐलान था जिन्हें वरना पाँव की जूती समझा जाता था। उस समय हिंदू मर्द चाहे जितनी शादी कर सकता था, लेकिन औरतों को न तलाक़ लेने का अधिकार था और न उन्हें संपत्ति में ही हिस्सा मिलता था। परंपरावादियों ने इस बिल का ख़ूब विरोध किया। संविधानसभा के अंदर-बाहर दोनों जगह विरोध हुआ। आरएसएस ने रैलियाँ करके डॉ.अांबेडकर के पुतले फूँके तो रामराज परिषद के संस्थापक करपात्री महाराज ने कहा कि अंबेडकर ‘अछूत’ हैं, उन्हें उन चीज़ों मेें दखल देने का अधिकार नहीं जो ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित हैं। नेहरू इस बिल के समर्थन में थे, लेकिन भारी विरोध की वजह से वे इसे पारित नहीं करवा पाए। आख़िरकार डॉ.अंबेडकर ने क़ानून मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। बाद में नेहरू ने टुकड़ों-टुकड़ों में इस बिल की तपास कराने में कॉामयाबी पाई। पेश है, इस मसले पर शीबा असलम फ़हमी का लेख- 

पाँव की जूती से इंसान बनानेवाला !

 
अगर हिन्दू कोड बिल के लिए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे ब्राह्मणवादी मठाधीशों से ना लड़े होते तो आज हम सब भारतीय महिलाएं पैर की जूती के सिवा क्या होतीं ? इंदिरा गाँधी से मायावती तक, किरन बेदी से फाइटर पायलट अवनी चतुर्वेदी और सिविल सर्विस की टीना डाबी तक और इनके बीच में जगमगाती तमाम महिला नेत्रियों तक, अगर बाबा साहेब का दिया संविधान न होता तो भारतीय महिलाऐं न घर में बराबरी का क़ानूनी हक़ पातीं न दफ्तर, राजनीती और समाज में.

न धर्म, न परंपरा, न आधुनिक पूँजीवाद और न ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य, इनमे से कोई नहीं है जो महिलाओं के साथ खड़ा हो उन्हें बराबरी का इंसानी हक़ दिलाने के लिए। सिर्फ़ एक इन्क़्लाबी ख़्याल और उस पर आधारित सिर्फ़ एक किताब है जो महिलाओं और हर कमज़ोर के साथ खड़ी है सम्बल बन कर, कि हर इंसान बराबर है और उसकी अस्मिता की हिफ़ाज़त करना पूरे समाज, राज्य, सत्ता का फ़र्ज़ है। ‘बराबरी’ का ये इन्क़्लाबी उसूल ही इस दौर में दुर्दांत से दुर्दांत ताक़त का रास्ता रोके खड़ा है। उस ताक़त का जिसके पास हथियार बंद गुंडों की फ़ौज है, उस फ़ौज को समर्थन देती धार्मिक व्याख्याएं हैं, अत्याचार और दमन की क्रूर ऐतिहासिक परम्पराएं हैं और राज्य सत्ता के हथियारबंद सिपाही हैं. इतने मर्दवादी-जातिवादी-पूंजीवादी फ़ौज-फाटे के बावजूद महिलाऐं अगर कुछ हासिल कर पा रही हैं तो वो संविधान की किताब की बदौलत. जिस किताब को तैयार करने के दौरान बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कई-कई बार धार्मिक और सियासी नेतृत्व से संघर्ष किया, उनकी पुरुषवादी जड़ताओं से जूझे, ताक़तवर मनुवादी नेताओं का तीव्र विरोध झेला मगर भारतीय समाज को अगले कई सौ सालों का ‘विज़न डॉक्यूमेंट’ दे दिया.

भारतीय संविधान में डॉ अम्बेडकर ने उस समय भारतीय महिलाओं को वो सभी आधुनिक अधिकार दे दिए जो यूरोप और अमरीका में भी नहीं थे, उन्होंने वो अधिकार दे दिए जिनकी मांग भी नहीं की थी तब तक महिलाओं ने, उन्होंने वो अधिकार भी महिलाओं को दे दिए जिनके लागू होने से होनेवाले प्रभाव नहीं जानती थी महिलाएँ. भारतीय संविधान की ये शानदार उपलब्धि है कि बिना किसी नारीवादी आंदोलन, प्रदर्शन, संघर्ष के, सिर्फ इन्साफपसंदी और बराबरी के सिद्धांत पर बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने एक ऐसा विज़न डॉक्यूमेंट तैयार किया जो अपने सार में आनेवाले कल के तक़ाज़ों का जवाब रखता है. ये अफ़सोस की बात है की धार्मिक-परम्परावादी डिस्कोर्स की जिस तरह वापसी हो रही है और भारतीय महिलाएँ इसके जाल में दोबारा फंस रही हैं बिना ये समझे की इस डिस्कोर्स से उन्हें सिर्फ़ दस-दस बच्चे पैदा करने के निर्देश मिलेंगे, अच्छी सेविका-पत्नी बनने का निर्देश मिलेगा, संस्कार के नाम पर बुरखा, घूँघट मिलेगा और अपने अस्तित्व को नफरत की राजनीती में स्वाहा करने का ‘सूख़’ मिलेगा. अफ़सोस कि धार्मिक उन्माद के ज़रिये आज संविधान पर जो हमला हो रहा है उसको सवर्ण समाज की अधिकतर महिलाएँ पहचान नहीं पा रही हैं.
देखिये उत्तर प्रदेश में आज उन्नाव की बलात्कार पीड़िता सब कुछ गँवा देने के बावजूद सिर्फ़ संविधान में दिए गए अधिकार की बदौलत सत्ता से भिड़ी हुई है, केरल की हदिया धर्म भी चुन पाती है और पति भी, मुस्लमान लड़कियां अपनी पसंद की पढ़ाई, पेशा, पति चुन पा रही हैं तो सिर्फ संविधान की बदौलत। बस एक ख़लिश है की उस वक़्त मुस्लमान महिलाओं को भी अपनी चिंता के दायरे में समेट लिया होता तो मुस्लिम पर्सनल लॉ की जाहिलाना व्याख्याएं और क़ाज़ी की मर्दवादी सत्ता ना क़ायम हो पाती. ख़ैर, आज मुस्लमान महिलाएँ जिन सिद्धांतों के तहत तीन तलाक़ और बे-रोक-टोक बहु-विवाह, हलाला के विरुद्ध संघर्ष कर रही हैं उसमे इस्लाम के साथ संविधान ही उनकी ताक़त है।
बाबा साहेब की ईमानदार प्रतिभा और प्रतिबद्धता हर उस आंदोलन के लिए रौशन मशाल है जो इंसानियत के सवाल उठाता है. उन्होंने सिर्फ 25 साल के सक्रिय सामाजिक जीवन में करोड़ो इंसानो की ग़ुलामी को न सिर्फ अपराध घोषित करवा दिया बल्कि सत्ता में उनकी भागीदारी सुनिश्चिंत करवाई और बिना किसी नारीवादी आंदोलन के, जेंडर की समानता और न्याय की बराबरी का ऐसा राज्य स्थापित किया जो किसी भी आधुनिक समाज की ज़रुरत होता है. आज नारी वादी अजेंडे के सामने सबसे बड़ा चैलेंज है संविधान को समाज में लागू करवा पाना, तब ही बाबा साहेब के सपनो का न्यायपूर्ण भारत बना पाएगा.

 शीबा असलम फ़हमीमहिला विषयक टिप्‍पणियों के लिए ख्‍यात लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता। जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से शोध। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल की सम्मानित सदस्य।