कोरोना ‘काल’ – हम समाधान ढूंढने की जगह, महज ‘दोषी’ ढूंढने में लगे हैं

सौम्या गुप्ता सौम्या गुप्ता
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एक लोककथा – हम क्या ढूंढने निकले थे और क्या ढूंढ रहे हैं..

एक पुराने अफ़साने में बादशाह अकबर ने बीरबल को सबसे बड़े मूर्खों की सूची बनाने का हुक्म दिया था|बस तब क्या था, बादशाह के हुक्म को सिर आँखों पर बैठाया गया और नवरत्न बीरबल मूर्खों की खोज पर निकल पड़े। किसी तरह कुछ लोगों को लेकर, वो दरबार में वापिस पहुंचे। इनमें से एक मूर्ख वो था जिसकी अंगूठी गुम हो गयी थी। पर जहां उससे वो अंगूठी खो गयी थी वहाँ कुछ अँधेरा था, इसलिए वो अपनी अंगूठी की तलाश कहीं दूर रोशनी वाली जगह पर कर रहा था| दूसरा मूर्ख वो था, जो अपने गधे की थकान दूर करने के लिए, उसके पीठ का बोझ अपने सर पर लिए चल रहा था| तब, दरबार में लौटने पर, अकबर ने बीरबल से पूछा कि, बाकी बचे हुए मूर्ख किधर हैं? बीरबल ने बड़े सहज ढंग से कहा “जहाँपनाह, दो तो यहीं मौजूद हैं। एक तो आप हैं जो ऐसी सूची बनवा रहे हैं, और एक मैं जो इसमें आपकी मदद कर रहा हूँ।”

हमारे देश में कुछ।इसी तरह प्रशासन भी, कोरोना के लिए ज़िम्मेदार व्यक्तियों और गलतियों की सूची बना रहा है। कहीं बीजेपी के आईटी सेल के मुखिया ‘आदरणीय’ अमित मालवीय ‘जी’, दिन में तीन बार ट्वीट करके, ये बताते हैं की कैसे सिर्फ गैर भाजपा शासित राज्यों में कोरोना का भारी प्रकोप है, तो वहीं कुछ पत्रकार किसी भी हाल में इस बीमारी के फैलने को एक धर्मं-विशेष की गलती साबित कर के ही मानेंगे। कहीं राज्य सरकारें, केंद्र पर आरोप लगाने में व्यस्त है, तो केंद्र सरकार ने भी तय कर लिया है कि राज्यों से पुराने सारे हिसाब चुकता कर लेने हैं। जिस वक़्त सिर्फ जनता की जान बचाने पर सोचना था, आल इंडिया बार एसोसिएशन द्वारा चाइना के खिलाफ मानवता के विरुद्ध एक संगीन जुर्म करने का मुकद्दमा दायर कर दिया गया है। तो बात बस इतनी सी है कि, शायद सब ही जगह ज़िम्मेदारी स्थापित करने होगी, कहीं कुछ कम तो कहीं कुछ ज्यादा। लेकिन शायद हम वहां अंगूठी ढूंढना चाहते हैं, जहां रोशनी ज़्यादा है, जबकि अंगूठी वहां गिरी ही नहीं थी!

आखिर सवाल हैं क्या?

वैसे सबसे पहले आप लोग, जो अपना कीमती समय हिन्दू मुस्लिम विवादों से दूर इस लेख को पढ़ने में बिता रहे हैं, उनका लेखक दिल की गहराई से आभार प्रकट करना चाहती है। इस लेख की कोशिश ये रहेगी की हम किसी एक व्यक्ति या समुदाय को दोष दिए बिना, आपको सरकार की मौजूदा कार्य प्रणाली को बेहतर ढंग से समझा सके और शायद आपको अपनी सरकारों और प्रशासन से सवाल पूछने में कुछ मदद कर सकें। क्योंकि एक लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा होना और वहाँ जागरूक होकर सवाल पूछना ही सबसे अहम काम है, मेहनत का काम है। सवाल पूछना ज़रूरी है और सही सवाल पूछना उससे भी ज्यादा ज़रूरी है, हिंदी कवि दुष्यंत के अल्फ़ाज़ में कहें तो,

“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश ये है कि सूरत बदलनी चाहिए|”

मेरे सवाल के मुख्यतौर पर सिर्फ दो पहलू हैं। पहला- क्या केंद्र और राज्य सरकारें हमारे मानवधिकारों की रक्षा कर पा रही है? दूसरा- क्या संविधान में जो सहकारी संघवाद यानि कि Co-Operative Federalism का प्रावधान है क्या उस पर अमल हो रहा है?

सवाल न्याय का है

जब पहली बार 21 दिन के देश व्यापी लॉकडाउन के आदेश आये, तब कुछ ही घंटों में प्रवासी मजदूर हज़ारों की संख्या में दिल्ली की सड़कों से आनंद विहार बस अड्डे तक इकट्ठा हो गए थे। कुछ मजदूर तिलिमिलाती धूप, लम्बी दूरियों और सनसनीखेज खबरों की बलि चढ़ गए। इस बार भी जब प्रधानमंत्री मोदी ने 3, मई तक लॉकडाउन बढ़ाने के आदेश जारी किये तो कुछ ही घंटों में मुंबई से लेकर सूरत से लेकर हैदराबाद तक मजदूर सडकों पर उतर आये। ये या तो अपने घर लौटना चाहते थे या बेहतर खाने-पीने की मांग कर रहे थे। कहीं पुलिस ने लाठियों के दम पर इनके घर लौटने के जज़्बे को तोड़ा, तो कहीं हमारे फेक न्यूज़ के कारखानों से निकले धुंए ने इनकी असली समस्या को हमारी आंखों से ओझल कर दिया। हम सबने भी कहीं सोशल मीडिया पर कुछ शेयर किया तो कहीं सरकार से मांग की वो इन पर दया दिखायें। परन्तु दरअसल ये न्याय का सवाल है, सरकार से दया नहीं, न्याय माँगना चाहिए। यह मांगें तो मानवाधिकारों की श्रेणी में आती है न? इस सवाल का सीधा सा जवाब ये है कि, जीने के अधिकार का मतलब सिर्फ सांस लेने भर का अधिकार नहीं होता। इसका मतलब होता है इज्जत से जीने का हक, अपनी क्षमता, योग्यता के अनुरूप काम करने का अवसर, अपनी प्रतिभा को विकसित करने का अवसर, वह सब हासिल करने का अवसर, जो गरिमापूर्ण जीवन के लिए जरूरी होता है। अगर एक वाक्य में बात समझानी हो तो मानवाधिकार का रिश्ता मनुष्योचित जीवन जीने से है। घर लौटने या खाने पीने वाली मांगें,मौलिक अधिकार से समबन्धित मांगें हैं। इसलिए ये सरकार का कर्त्तव्य है-इसलिए सरकार बाध्य है अपने देशवासियों को मनुष्योचित जीवन जीने की सारी सहूलियतें मुहैया कराने के लिए।

भेदभाव भी मानवाधिकार का उल्लंघन है – सरकार करे या हम

देश के कोने कोने से धर्म के नाम पर भेद भाव की खबरें आ रही हैं। कहीं उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में  लोग मुसलमानों से सब्जी खरीदने से इनकार कर देते हैं, तो कहीं इंदौर में मुसलमानों को सब्जियां बेचने में लोग हिचकिचाते हैं। कहीं मेरठ में वैलेंटिस कैंसर अस्पताल विज्ञापन छाप देता है की मुसलमान केवल तब आयें जब उनकी कोरोना की जांच हो चुकी हो और कहीं अहमदाबाद में हिन्दू-मुस्लिम के लिए अलग-अलग वार्ड बनाए जाते हैं। इन चीजों पर कहीं ना कहीं, पिछले कुछ सालों में निहित और निर्विवाद तरीके से एक सामजिक सहमति बन गयी है। हमारे समाज का बुद्धिजीवी वर्ग ये तर्क देगा की पिछले 6 साल में जो हमारे अन्दर ज़हर घोला गया है, ये उसका नतीजा है – तो कोई कहेगा की तब्लीग़ी जमात की गलतियों के चलते ये हुआ। हाँ, शायद कारण जानना ज़रूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूरी है की इन घटनाओं पर न्याय पालिका और सरकार की तरफ से क्या प्रतिक्रियायें आई। प्रधानमंत्री ने ट्विट्टर पर भेदभाव के प्रति महज खेद जैसा कुछ जाहिर किया!

चलिए एक बार के लिए हम ये चर्चा नहीं करते कि ट्वीट – जल्दी आया कि लेट, किस वजह से आया इत्यादि! पर क्या प्रधानमंत्री का एक ट्वीट कर देना काफी है? क्योंकि ट्वीट करना तो एक खानापूर्ति या सिर्फ एक नैतिक शिक्षा का पाठ सा लगता है। ट्वीट तो कोई भी कर सकता है, फिर प्रधानमंत्री क्या केवल ट्वीट कर के खानापूर्ति कर सकता है? हाँ, ट्वीट करना एक राजनैतिक कदम भी है, पर संविधान में अनुच्छेद 14 के तहत सामजिक समानता एक मौलिक अधिकार है। सरकार और न्यायपालिका, इनकी रक्षा के लिए बाध्य है। क्या, इस मुश्किल की घड़ी में भी बार बार पीड़ित को ही अपनी अर्जी लेकर न्यायपालिका तक पहुंचना होगा? क्या पीड़ित को ही बार बार याद दिलाना होगा कि उसके साथ किस किस तरह के भेद भाव हो रहे या हो सकते हैं? क्या ,क्या ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जा सकता कि लोग भी ऐसा भेद भाव करने से बचे? अभिनेत्री कंगना राणावत की बहन रंगोली चंदेल अपने ट्विट्टर हैंडल से जब एक फ़ासिस्ट बात कहती है, तब भी हम में से ज्यादातर लोग ट्विट्टर जैसी गैर सरकारी और निजी संस्थान से न्याय की उम्मीद करते नहीं थकते। क्या उनका ट्विट्टर हैंडल निलंबित हो जाना काफी है? क्या ये एक समुदाय के मानव अधिकारों का उल्लंघन नहीं है कि ऐसी बात कहने के बाद भी उन पर फ़ौरन कोई न्यायिक कार्रवाई नहीं की जाती? इस पर ट्विटर से नहीं, न्यायिक संस्थाओं से प्रतिक्रिया की अपेक्षा होनी चाहिए थी।

हाँ, ये सवाल न्याय का है, ना कि नेकी, अनुकम्पा, दयालुता या दरियादिली का। दया एक सस्ता, फ़िज़ूल और यहाँ तक कि गैर-क़ानूनी विकल्प है। एक बार सोचियेगा ज़रूर कि आखिर न्याय की देवी ने जो पट्टी बाँधी है वो सबको समान देखने के लिए बाँधी है या समानता के अभाव को नज़रंदाज़ करने के लिए?

सहकारी संघवाद का क्या?

पहली बार जब 21 दिन का लॉकडाउन लगाया गया था तब किसी राज्य सरकार से सलाह नहीं ली गयी थी, बस इसका पालन करने के आदेश जारी कर दिए गए थे। ऐसे में राज्य सरकारों का वक़्त अचानक इस परिस्थिति को संभालने में खर्च हो गया, जबकि असल में ज़रूरी था कि वो एक योजनाबद्ध तरीके से काम कर सकें! 18 अप्रैल, 2020 को केंद्र सरकार ने 3, मई तक के लॉकडाउन सम्बंधित स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर की अधिसूचना जारी की। इस अधिसूचना के तहत हर राज्य सरकार, इनका पालन करने के लिए बाधित हैं। इन नियमों में, राज्य सरकारों के लिए ना के बराबर गुंजाइश है की वो अपनी ज़मीनी हकीकतों से जूझने के लिए नियमों का उल्लंघन कर सके! ये विडम्बना है कि हम बचपन से ही विविधता में एकता के पाठ पढ़ते हैं, हम उनको महज एक उपाख्यान या किस्से के तौर पर अपनी विदेशी दोस्तों से साझा करते हैं या कभी अपने ड्राइंग रूम में उस पर चर्चा कर चाय की चुस्कियां भरते हैं! पर क्या कभी हम ये सोचते हैं की इन विविधताओं को हमारे न्यायिक और शासन प्रणालियों में कैसे शामिल किया जाता है? जैसे की जब GST बांटा जाता है तो जो फार्मूला इस्तेमाल होता है, वो किस तरह से किसी एक राज्य को ज्यादा मुनाफा और दूसरे को कम फायदा देता है।

पर गौर करने वाली बात ये है की जब केंद्र सरकार ने गाइडलाइन्स बनायी तब हर राज्य की ज़मीनी हकीकत को शामिल क्यों नहीं किया गया? वर्तमान दौर में सहकारी संघवाद की संकल्पना पर काफी ज़ोर दिया गया है। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने,2014 में शपथ ग्रहण करते ही लोक सभा में अपने पहले भाषण में इसका ज़िक्र किया था। इस कार्यशाली में समस्याओं के समाधान के लिये केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों की सामूहिक भागीदारी पर बल दिया जाता है।

पर क्या कोरोना से निपटने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों में वो साझा भागीदारी हुई? शायद नहीं क्योंकि इसलिए अब भी PM Cares Fund को कम्पनीज से पैसा प्राप्त करने की सुविधा है, जो राज्यों के पास नहीं है। तब जब स्वास्थ्य, क़ानून और व्यवस्था राज्य के विषय हैं, तब क्या कम्पनीज एक्ट को बदला नहीं जा सकता था ताकि राज्य अपने लिए ज्यादा फंड्स इकट्ठे कर पाते? दूसरी बात प्रवासी मजदूर ज्यादातर बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और ओडिशा के इलाकों से आते हैं, लेकिन ये लोग कृषि से लेकर निर्माण के सारे कार्यों में हर राज्य में कार्यरत हैं! कुछ राज्य सरकारें कह रही हैं कि इनको वापस घर भेज देना चाहिए, वहीं पंजाब के मुख्य मंत्री कहते हैं कि जैसे ही रबी की फसल कटाई चालू होगी, इन मजदूरों के बिना काम असंभव हो जाएगा। अगर कटाई का काम पूरा नहीं किया गया तो राज्यों समेत पूरे देश में भुखमरी और अकाल के हालात बन सकते हैं! और बिहार, झारखण्ड जैसे राज्य पहले से ही बहुत आर्थिक और संसाधानिक दबाव में हैं। तो क्या ये सरकारें प्रवासी मजदूरों के आगमन के लिए पूर्ण रूप से तैयार हैं? तीसरा अब भी सरकारें गलती की ज़िम्मेदारी एक दूसरे पर डालने में लगी हैं, यानि की अब भी सरकारें अलग-अलग ही काम कर रही हैं न कि एक सहकारी संघवाद और टीम की तरह! सरकारें कोरोना वायरस से बचाव के लिए हाथ धोने के आदेश देते-देते, कोरोना से निपटने की ज़िम्मेदारी से भी हाथ धोती जा रही हैं! चौथा, केंद्र ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है की टेस्टिंग किट्स, पीपीई किट्स सिर्फ केंद्र खरीदेगा। ऐसे वक़्त में जब हर राज्य के पास समय कम है तब केंद्र को एक बिचौलिए का किरदार क्यों निभाना चाहिए? क्यों न सरकारें साथ मिलकर आर्डर करें, ताकि ना ही काम बढ़े और ना ही इस काम में वक़्त लगे!

लेकिन ऐसा नहीं है की हम सिर्फ केंद्र सरकार पर सवाल उठाएं, क्योंकि यहाँ एक अपवाद भी है!  केरल सरकार ने इस सबके बावजूद भी हर तरह से कोरोना की समस्या से जूझने के सफल प्रयत्न किये हैं। पर उसका बड़ा कारण ये भी है की वहाँ सालों से, चाहे किसी की भी सरकार रही हो, जनता ने हमेशा जवाबदेही मांगी है और इसलिए आज वहाँ ब्यूरोक्रेसी, सरकार और जनता एक सामूहिक संस्था की तरह काम कर पार रहे हैं। इसका उदहारण ये है की सबसे पहले कोरोना केसेस आने के बावजूद वहाँ अपने प्रयासों से सरकार कर्व को फ्लैटेन कर पायी है। वहाँ दक्षिणी कोरिया की तरह टेस्टिंग स्टॉल्स स्थापित किये गए हैं और योजनाबद्ध तरीके से हर क्षेत्र में क्वारेंटाइन और टेस्टिंग के डेटाबेस बनाए गए हैं।

दिन प्रतिदिन हर राज्य में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या बढती जा रही है! क्या हम अब भी सिर्फ इसी में उलझे रहेंगे की किसने गलती की या एक बार साथ मिलकर इस समस्या से जूझेंगे? विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता की पंक्ति याद आती है, जिसमें वो कहते हैं,

जुलाई हो गई
पानी अभी तक नहीं गिरा
पिछली जुलाई में
जंगल जितने बचे थे
अब उतने नहीं बचे
यही कारण तो नहीं।

कहीं हम अगली जुलाई जब लाशें गिनने लगे, तो ये न कह दे एक दूसरे से क्योंकि लाशें बढती जा रही थी इसलिए हम जिंदा लोगों की रक्षा नहीं कर पाए! लाशों की गिनती करते करते, जिंदा लोगों को बचाने के हल ढूंढने में न असफल रह जाएँ। ये सवाल, अगर हमारे मन में रहे, तो हम शायद बाकी सारे सवालों को हल कर लेंगे।

(लेखिका, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।) 


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