नोटा की नई परिभाषा गढ़ने वाले योगेंद्र यादव की राजनीति क्‍या है

Mediavigil Desk
काॅलम Published On :


भारतीय राजनीति में परंपरागत रूप से दो तरह के नेता हैं। एक वे हैं जिन्‍हें पता है कि क्‍या करना है। एक वे हैं जिन्‍हें पता है कि क्‍या नहीं करना है। पहले उदाहरण के तौर पर नरेंद्र मोदी हैं जिन्‍हें पता है कि चुनाव जीतना है और प्रधानमंत्री बनना है। दूसरा उदाहरण राहुल गांधी का है जिन्‍हें पता है कि चुनाव नहीं जीतना है और प्रधानमंत्री नहीं बनना है। इन दो ध्रुवों के बीच कुछ अलहदा किस्‍म के लोग बीते वर्षों में बहुत तेज़ी के साथ उभरे हैं। इनकी संख्‍या अभी इतनी नहीं है कि इनके लिए अलग से तीसरी प्रजाति का ईजाद किया जाए। वैसे इनके नेता बनने में भी अभी काफी वक्‍त है। योगेंद्र यादव इसी अधबनी श्रेणी में आते हैं।

कभी चुनाव विश्‍लेषक और राजनीतिक भविष्‍यवक्‍ता रहे योगेंद्र यादव समाजवादी जन परिषद के बौद्धिक प्रभार को छोड़कर अचानक भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन में आए। उनके साथ मेवात से कुछ मुसलमान भी आए। संख्‍याबल के सहारे दावेदारी मज़बूत हुई, तो आंदोलन के विकासक्रम में वे आम आदमी पार्टी में आ गए। वहां वे बौद्धिक देने लगे। कुछ दिनों तक ज्ञान प्रवाह जारी रहा। जिस दिन अरविंद केजरीवाल को समझ आया कि उन्‍हें क्‍या करना है, उस दिन वे तो नेता बन गए लेकिन योगेंद्र वहां से भगा दिए गए। तब योगेंद्र ने अपना एक संगठन बनाया। यह उनका एजेंडा कभी नहीं रहा। प्रतिशोध की भावना से उपजी मजबूरी थी। मजबूरी की इस पैदाइश ने वृहत्‍तर कार्यभार पैदा किए। नतीजतन संगठन को पार्टी की शक्‍ल देनी पड़ी। कुछ लोगों को पार्टी से परहेज़ था, वे पेशेवर आंदोलनकारी थे। उनके सम्‍मान में आंदोलन के लिए संगठन और राजनीति के लिए पार्टी- दोनों समानांतर चलने लगे। स्‍वराज इंडिया ने दिल्‍ली में नगर निकाय के चुनाव लड़े। कहीं नहीं जीती। फिर आया 2019 का लोकसभा चुनाव। यादव ने नोटा का बटन दबाने का आह्वान कर डाला। इसके लिए उनकी काफी लानत-मलानत हुई। इतने तक की कहानी से हम सब वाकिफ़ हैं।

लोकसभा चुनाव के लिए मतदान के दो चरण बीतने के बाद बीते 20 अप्रैल को उन्‍होंने जब प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर के नोटा का बटन दबाने की बात कही, तो वे नोटा की नई परिभाषा लेकर आए थे, ‘’नन टिल ऐन आल्‍टरनेटिव’’ यानी जब तक विकल्‍प न मिले तब तक किसी को वोट नहीं देना है। उस वक्‍त तक कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के बीच सीट बंटवारे पर रार चल रही थी, कुछ भी फाइनल नहीं हुआ था। यहां एक समस्‍या थी। वो यह, कि उन्‍होंने यह भी घोषणा की कि उनकी पार्टी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेगी। इसका साफ़ मतलब था कि कांग्रेस, भाजपा और आप का विकल्‍प कम से कम स्‍वराज इंडिया तो नहीं ही है। फिर सवाल उठता है कि वे किस परिकल्पित विकल्‍प के लिए बैटिंग कर रहे थे? ये पहला सवाल है जिसका जवाब मेरे पास नहीं है।

बनारस से आई आपत्ति और बरगढ़ की सीट

अब थोड़ा पीछे चलते हैं। पिछले महीने मैं बनारस गया था। वहां मेरी मुलाकात एक कार्यक्रम में सोमनाथ त्रिपाठी से हुई। त्रिपाठी स्‍वराज इंडिया के वरिष्‍ठ नेता हैं और यूपी देखते हैं। बनारस के चुनाव का हाल पूछने पर उन्‍होंने अपना आधिकारिक पक्ष यह दिया था कि बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई साझा उम्‍मीदवार उतारा जाना चाहिए, यही वहां की जनता की मांग है। इसीलिए जब योगेंद्र यादव ने नोटा वाली बात की, तो सोमनाथ त्रिपाठी से इस बारे में बनारस में स्‍पष्‍टीकरण मांगा गया। इस संदर्भ में एक पुराने साथी को त्रिपाठी का जवाब आया कि ‘’नोटा का निर्णय दिल्‍ली इकाई ने लिया है जिस पर प्रेसीडियम में चर्चा हो रही है। इससे भाजपा को फायदा होगा यह प्रेसीडियम की आम राय है इसलिए दिल्‍ली इकाई के साथ 26 को बैठक हो रही है ताकि वह निर्णय को निरस्‍त करे।‘’ इस संदेश में एक लोचा यह था कि जिसे दिल्‍ली इकाई कहा जा रहा था, वह दरअसल पार्टी का हाईकमान था।

बहरहाल, उक्‍त बैठक 26 अप्रैल को हुई। उससे पहले 18 अप्रैल और 23 अप्रैल वाले चरण में ओडिशा तक नोटा वाला संदेश पहुंच चुका था, जहां समाजवादी जन परिषद के कुछ पुराने ज़मीनी नेता- जो योगेंद्र के आह्वान पर पहले आप में आए थे और पिछला लोकसभा चुनाव लड़कर हार गए थे- आज स्‍वराज इंडिया का हिस्‍सा हैं और किशन पटनायक के कार्यक्षेत्र में अपने-अपने तरीकों से सक्रिय हैं। अब यह बताना मुश्किल है कि स्‍वराज इंडिया के कितने कार्यकर्ताओं ने लोकसभा और विधानसभा के मतदान में नोटा दबाया, लेकिन बरगढ़ की लोकसभा सीट से भाजपा के टिकट पर खड़े सुरेश पुजारी के बारे में एक अवांतर प्रसंग बताना मौजूं होगा।

समाजवादी जन परिषद के संस्‍थापक किशन पटनायक 1989 में समता संगठन से चुनाव लड़े थे। उस चुनाव में सुरेश पुजारी उनके इलेक्‍शन एजेंट थे। उस वक्‍त ओडिशा के सबसे बड़े नेता बीजू पटनायक ने किशन पटनायक से अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न चक्र पर लड़ने का आग्रह किया था जिसे पटनायक ने ठुकरा दिया। पटनायक सिद्धांतों के खरे थे। वे 1977 में जनता पार्टी में नहीं गए थे, तो चक्र पर लड़ने का सवाल ही नहीं उठता था। एक पुराने समाजवादी बताते हैं कि उस चुनाव में किशन पटनायक को हरवाने में पुजारी का बड़ा हाथ था। वे कहते हैं, ‘’पुजारी ने किशनजी की पीठ में छुरा भोंका था।‘’

अब स्‍वराज इंडिया की स्थिति यह है कि इनके किसान संगठन में किस्‍म-किस्‍म के लोग हैं। उसमें भाजपा के भी वोटर हैं, भाजपा विरोधी भी। जब नोटा का संदेश दिल्‍ली से बरगढ़ पहुंचा, तो भाजपा समर्थक कार्यकर्ताओं और किसानों ने बेशक भाजपा के प्रत्‍याशी पुजारी को वोट दिया, लेकिन बाकी ने नोटा का बटन दबा दिया। इस तरह ‘’किशन पटनायक की पीठ में छुरा भोंकने वाले’’ भाजपाई प्रत्‍याशी की स्थिति मजबूत हो गई। बताया जा रहा है कि बरगढ़ की सीट भाजपा निकाल लेगी।

26 अप्रैल की बैठक

इस सबक को 26 अप्रैल के प्रेसीडियम में दिल्‍ली में पता नहीं रखा गया या नहीं, लेकिन 27 अप्रैल को जो प्रेस विज्ञप्ति स्‍वराज इंडिया की ओर से आई वह दिलचस्‍प है। विज्ञप्ति में कहा गया है:

‘’आगामी लोकसभा चुनाव में नोटा का उपयोग करने के बारे में स्वराज इंडिया दिल्ली इकाई के बयान पर कई सवाल और आलोचनाएं सामने आयी हैं। सवाल पूछने वालों में हमारे कई शुभचिंतक भी शामिल हैं। हम इन संवाद का सम्मान और स्वागत करते हैं। हमें खेद है कि हमारी ओर से पर्याप्त स्पष्टीकरण के अभाव में अनावश्यक भ्रम की स्थिति बनी है। इसलिए जरुरी है कि दिल्ली और पूरे देश में स्वराज इंडिया की राजनीतिक व चुनावी भूमिका को स्पष्ट किया जाय।

अक्टूबर 2018 में स्वराज इंडिया की नेशनल कौंसिल ने इस लोकसभा चुनाव में हमारी भूमिका के लिए तीन मूलभूत दिशानिर्देश दिए थे: हमें भाजपा को हराने में योगदान देना है, हमें विपक्ष के किसी महागठबंधंन में शामिल नहीं होना है और हमें वैकल्पिक उम्मीदवारों की शिनाख्त और समर्थन करना है। अपनी स्थानिक परिस्थितियों का आकलन कर स्वराज इंडिया की प्रत्येक राज्य इकाई ने इन्हीं तीन दिशानिर्देशों के आलोक में अपनी भूमिका तय की है। जाहिर है दिल्ली यूनिट द्वारा की गई घोषणा केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक सीमित है। अन्य राज्यों में स्वराज इंडिया देश भर में करीब 50 उम्मीदवारों (जैसे प्रकाश राज, डॉ धर्मवीर गाँधी, राजू शेट्टी, कन्हैया कुमार) या नई पार्टियों (हमरो सिक्किम पार्टी, मक्कल निधि मैय्यम) का समर्थन कर रहा है।

हम दिल्ली की तीनों बड़ी पार्टियों से कठिन सवाल पूछेंगे। अगर इनमें से कोई पार्टी इन सवालों का संतोषप्रद जवाब नहीं दे पाती है, तब वोटर नोटा का इस्तेमाल कर उन्हें दंडित कर सकते हैं। हम पहली पसंद के तौर पर नोटा का प्रस्ताव नहीं दे रहे। हमारे लिए नोटा (नो टिल एन अल्टरनेटिव) विधि-विधान सम्मत लेकिन अस्थायी व अंतिम विकल्प है। हमारे इस बयान का हमारी इस मूल स्थापना से कोई विरोध नहीं है कि भाजपा भारतीय गणतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यहां यह गौर करना जरूरी है कि दिल्ली में भाजपा ही एकमात्र पार्टी है जो नोटा से भयभीत है और उसके खिलाफ सक्रिय अभियान चला रही है।‘’

खाने के दांत और, दिखाने के और

यहां दो बातें गौर करने लायक हैं। लोकसभा चुनाव का तीन चरण बीत जाने के बाद यह स्‍पष्‍टीकरण आया है जब तकरीबन पचास फीसदी सीटों पर मतदान हो चुका है। दूसरे, जिस दिल्‍ली के लिए नोटा की बात विशिष्‍ट रूप से कही गई है, वहां लड़ाई में भाजपा और आम आदमी पार्टी हैं, कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है। दिल्लीवालों के लिए कांग्रेस वैसे भी तीसरे स्थान पर है और उसे लोग लड़ाई में नहीं मान रहे हैं।  ऐसे में सवाल यह है कि यहां नोटा दबाने से लाभ किसे मिलेगा?

विज्ञप्ति की मानें तो ‘’दिल्ली में भाजपा ही एकमात्र पार्टी है जो नोटा से भयभीत है और उसके खिलाफ सक्रिय अभियान चला रही है’’। इसका मतलब कि स्‍वराज इंडिया मान रहा है कि नोटा के प्रयोग से भाजपा हार सकती है। यह गठबंधन होने के बाद का आकलन है। इसका मतलब कि अगर किसी ने स्‍वराज इंडिया के प्रभाव में आकर नोटा दबाया, तो पार्टी यह मानकर चल रही है कि वह बीजेपी का ही वोटर होगा। तभी तो बीजेपी के वोट कटेंगे।

इस विश्‍लेषण में मासूमियत है या घाघपन, इसे समझने के लिए रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। यह सहज ज्ञान है कि उस पार्टी का वोटर कम से कम लोकसभा के चुनाव में कभी भी नोटा नहीं दबाता जिसकी पार्टी की केंद्र में निवर्तमान सरकार रही हो। वह अपना वोट खराब नहीं करेगा। नोटा वही दबाएगा जो विपक्ष का संभावित वोटर है और बीजेपी के साथ नहीं जाना चाहता। विपक्ष यानी दिल्‍ली में कांग्रेस-आप गठबंधन। ऐसा वोटर नोटा दबाते वक्‍त यह मानकर चलता है कि बीजेपी को वोट देना नहीं है और विपक्ष को वोट देने से क्‍या फायदा, वह जीतने नहीं जा रहा। इस तरह उसके नोटा दबाने से कुल मिलाकर विपक्ष का ही नुकसान होगा और बीजेपी को फायदा। यानी बीजेपी के डर का जो विश्‍लेषण 27 अप्रैल की प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में दिया गया है वह ठीक उलटा है। योगेंद्र यादव देश भर में बीजेपी को हराने की बात कर रहे हैं लेकिन दिल्‍ली में वे वस्‍तुत: बीजेपी को लाभ पहुंचा रहे हैं। अब सवाल उठता है कि ऐसा क्‍यों?

आइए, अब एक अंतिम जानकारी। आगामी 16 मई को योगेंद्र यादव अपने साथी प्रशांत भूषण के साथ ऑक्‍सफोर्ड यूनियन की एक बहस में जा रहे हैं। ऑक्‍सफोर्ड यूनियन दुनिया का बड़ा थिंकटैंक है। इस बहस का निम्‍न विषय प्रस्‍तावित है- ‘’यह सदन मोदी सरकार में विश्‍वास नहीं रखता’’। अब ऑक्‍सफोर्ड यूनियन को भारत के चुनाव के बीचोबीच यह बहस करवाने की जरूरत क्‍यों आन पड़ी, यह एक दूर का सवाल है जिस पर कभी और बात करेंगे। मसला यह है कि योगेंद्र एक अहम वैश्विक मंच पर भारत से मोदी-विरोधी नेता के रूप में अपनी छवि स्‍थापित करना चाहते हैं। विडंबना यह है कि दिल्‍ली में वे किसी तरह विपक्ष को हरवाने की योजना बनाए हुए हैं। उनके लिए भारत और दिल्‍ली दो अलग-अलग चीज़ें हैं। भारत और वैश्विक मंचों की राजनीति अलग, दिल्‍ली की राजनीति अलग। फिर वही सवाल उठता है कि ऐसा क्‍यों?

सात सीटों का सिद्धांत?

ऊपर हमने दो सवाल खड़े किए। अगर आप मुख्‍यधारा की संसदीय व चुनावी राजनीति में सक्रिय हैं और किसी भी दल पर विश्‍वास नहीं करते, तो जाहिर है आप खुद विकल्‍प की राजनीति कर रहे होंगे। आपके पास तीनों का कोई तो विकल्‍प होगा ही। यहां त्रासदी यह है कि योगेंद्र खुद चुनाव नहीं लड़ रहे यानी खुद को विकल्‍प नहीं मान रहे। दूसरे, पूरे देश के हिसाब से उनके पास कोई समग्र और स्‍पष्‍ट राजनीतिक लाइन भी नहीं है, इसलिए वे विकल्‍प न मिलने तक नोटा दबाने की बात कह रहे हैं, वो भी महज सात सीटों पर- वहां, जहां से उनकी राजनीति शुरू हुई और जहां खत्‍म होती है।

विकल्‍प के नाम पर राजनीतिक धुंधलके का निर्माण, जनता को खुद अपने मंच से विकल्‍प देने की स्‍वाभाविक जिम्‍मेदारी से पल्‍ला झाड़ लेना, फिर भी अपनी छवि मुख्‍यधारा के अन्‍य राजनीतिक दलों के आलोचक की बनाए रखना- यह राजनीति है, मासूमियत है या घाघपन?


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