यहां से देखाे: सारे मिथ हमने ही गढ़े थे, वही टूट रहे हैं!

जितेन्‍द्र कुमार
काॅलम Published On :


पिछले रविवार को रामलीला मैदान में प्रधानसेवक मोदी ने बीजेपी समर्थक जनता को उकसाते हुए पूछा कि कि क्या मैंने कभी धर्म और जाति की बात की? प्रधानमंत्री मोदी के इस बात का क्या जवाब दिया जाए? इसका सबसे आसान जवाब यह है कि जब से वह प्रधानमंत्री बने हैं सिर्फ और सिर्फ झूठ बोलते रहे हैं। उनकी प्रमुख खासियत यह है कि वह बिना जरूरत के झूठ बोलते हैं।

जिनकी याददाश्त थोड़ी गड़बड़ भी है, उनको भी याद होगा कि न सिर्फ बिहार विधानसभा के चुनाव में बल्कि अभी कुछ महीने पहले संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने कई बार खुद को पिछड़ी जाति का बताया था। यही बात उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी कही थी। अगर मेरी याददाश्त उनकी तरह जवाब नहीं दे गयी है तो 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होने कई चुनावी सभाओं में ‘श्मशान कब्रिस्तान’ की बात कहकर हिन्दू मुसलमानों के बीच खुलकर विभेद किया था।

अभी दस दिन पहले की बात है। नरेन्द्र मोदी झारखंड विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार में एक सभा को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि जो लोग नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का विरोध कर रहे हैं उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है। वह साफ-साफ कह रहे थे कि इसका विरोध सिर्फ मुसलमान कर रहे हैं।

उसी रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को उकसाते हुए कहा कि आप मुझे गाली दो लेकिन संसद का तो सम्मान करो क्योंकि संसद के दोनों सदनों ने इस बिल को पास कर दिया है! अब इस बात का क्या जवाब हो सकता है कि जिस मौजूदा संशोधन कानून को संसद के दोनों सदनों ने पास कर दिया है उसे भी तो उसी संसद के दोनों सदनों ने पास करके बनाया था? लेकिन उन्हें अपने कहे की मर्यादा ही नहीं मालूम है।

रामलीला मैदान में ही प्रधानमंत्री मोदी ने पढ़े-लिखे लोगों का मखौल उड़ाते हुए कहा, ‘आप तो पढ़े-लिखे लोग हो, अर्बन नक्सल हो- एक बार बिल तो पढ़ लो। हमने पिछले पांच साल में एनआरसी को लागू करने की बात बिल्कुल ही नहीं की है।’ जबकि 20 जून को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 17वीं लोकसभा के गठन के बाद सांसदों को पहली बार संबोधित करते हुए कहा था, ‘अवैध घुसपैठियों की समस्या हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है। इस कारण देश के अनेक हिस्सों में सामाजिक असंतुलन पैदा हो गया है और आजीविका के सीमित अवसरों पर बुरा प्रभाव डाला है। मेरी सरकार ने फैसला किया है कि घुसपैठ से प्रभावित इलाकों में हमारी सरकार एनआरसी की प्रक्रिया को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए लागू करेगी। घुसपैठ को रोकने के लिए सीमाओं पर सुरक्षा और चाक चौबंद कर दिए जाएंगे।’

हम जानते हैं राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार की नीति का घोषणा होता है। इसी बात को देश के तीसरे ‘लौह पुरूष’ (पहला पटेल खुद, दूसरा लालकृष्ण आडवाणी) अमित शाह ने 9 दिसंबर को लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहस के दौरान साफ शब्दों में कहा कि समूचे देश में एनआरसी लगाया जाएगा। उन्होंने ‘आन द रिकार्ड’ कहा, ‘हमें एनआरसी के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं है। हम पूरे देश में एनआरसी लागू करेंगे। हम चुन-चुन कर घुसपैठियों को निकालेंगे।’

रामलीला मैदान के उसी भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कह दिया कि देश में कहीं भी कोई ‘डिटेंशन सेंटर’ नहीं है, जबकि गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने सिर्फ ग्यारह दिन पहले 11 दिसंबर को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि सभी राज्यों को निर्देश दिया गया है कि वे अपने यहां डिटेंशन सेंटर की स्थापना करें ताकि अवैध घुसपैठियों को उनके बाहर निकाले जाने तक उन केंद्रों में रखा जा सके।

यहां सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब लोकसभा और राज्यसभा में यह बिल लाया गया उस वक्त प्रधानमंत्री सदन में थे? अगर वह सदन में थे तो क्या चर्चा में उन्होंने हिस्सा लिया? इसका सीधा सा जवाब यह है कि वह सदन में ही नहीं थे। और जब सदन में नहीं थे तो न ही उन्होंने बहस में हिस्सा लिया और न ही बिल पर हुए मतदान में हिस्सा लिया। हकीकत यह है कि जहां उन्हें किसी का कुछ भी सुनना पड़े, उन्हें यह बुरा लगता है, बस उन्हें सुनाना अच्छा लगता है क्योंकि उसमें आप झूठ धड़ल्ले से बोलते हैं! यही आदत उन्होंने सबरीमाला फैसले में दुहरायी। मोदी ने खुद बहुमत के फैसले को नकारा और डिसेंट में आए फैसले का बचाव किया।

यहां सवाल यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने तीन सदस्यीय जजों में दो-एक का फैसला दे दिया तो देश के प्रधानमंत्री होने के नाते बहुमत के फैसले का बचाव करना चाहिए था, लेकिन वह उस फैसले के खिलाफ डिसेंट के फैसले का गुण बताने लगे जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश की महिलाओं की समानता में दिया गया बहुत ही महत्वपूर्ण व न्यायपूर्ण फैसला था। चूंकि भाजपा पितृसत्ता का समर्थन करती है तो उन्होंने उस न्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ अपना पक्ष चुन लिया।

पहली बार जब वह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने काफी नाटकीय अंदाज में संसद भवन की सीढ़ी पर अपना माथा टेका और कहा कि जिंदगी में पहली बार वह लोकतंत्र के इस मंदिर, मतलब संसद भवन में दाखिल हो रहे हैं। पांच साल बाद, लोकसभा चुनाव के ठीक बीच में, अभिनेता अक्षय कुमार को दिए गए हास्यास्पद साक्षात्कार में उनके मुंह से खुद निकल गया, “जब वह बीजेपी के सिर्फ पदाधिकारी थे, तो संसद भवन में गुलाम नबी आजाद जैसे लोगों के साथ बैठकर खूब गप्पें लड़ाते थे… मीडिया वाले पूछ भी लेते थे कि आप दोनों दो ध्रुव की राजनीति करते हो फिर भी इतनी गाढ़ी यारी…।”

आजादी के बाद से हमने, देश-समाज ने मिलकर तरह-तरह के मिथ गढ़े। उसमें से सबसे बड़ा मिथ यह है कि प्रधानमंत्री या बड़े सरकारी पदों पर बैठा कोई आदमी झूठ नहीं बोलता है। इसी तरह का एक मिथ यह भी है कि संसद में कोई भी आदमी झूठ नहीं बोल सकता है क्योंकि इससे संसद की अवमानना होती है। तीसरा झूठ शायद यह था कि हमने भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कह दिया था। यह संजोग था कि अधिकतर लोगों ने इस मिथ को आत्मसात कर लिया और हमें इस मिथ पर पुनर्विचार करने की जरूरत नहीं पड़ी। इसलिए हमने कभी गढ़े जा रहे मिथ के बारे में सोचा ही नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इसे मानने से इंकार कर दे तब क्या होगा?

यही स्थिति मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने से बनी। पहले मीडिया घराने सिर्फ अखबार निकालता था, इसलिए लोकतंत्र का रखवाला कहने की थोड़ी-बहुत छूट उसे मिलती थी। अब मीडिया घराने भी धंधे में हैं जिसमें रीयल स्टेट से लेकर विश्वविद्यालय चलाने का ‘बिजनेस’ शामिल है। इस हालात में वह लोकतंत्र को बचाएगा या फिर अपना निजी साम्राज्य? उसकी प्राथमिकता हमेशा निजी साम्राज्य बचाने की होगी! इसलिए पुराने मिथकों को ध्वस्त करके नए मिथकों को फिर से गढ़ने की जरूरत है।


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