दिल्ली का सच कब बताएगा मीडिया?

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विष्णु राजगढ़िया

दिल्ली राज्य का वर्तमान घटनाक्रम देश की अभूतपूर्व परिघटना है। संवैधानिक तरीके से चुनी गई एक राज्य सरकार के साथ केंद्र का रवैया लोकतंत्र की बुनियाद पर गंभीर सवाल उठाता है। हैरानी की बात है कि इस पर मीडिया का बड़ा हिस्सा चुप है। कुछ मीडिया संस्थानों ने तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मनमानी व्याख्या करते हुए केंद्र की मनमानी को आधार देने का प्रयास किया। यह देश में लोकतंत्र और मीडिया के लिए खतरनाक संकेत है।

4 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया। यह दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बिल्कुल उलट था। दिल्ली हाइकोर्ट ने राज्य सरकार की शक्तियों को बेहद सीमित करते हुए एलजी को तमाम शक्तियां दी थी। जैसे- उपराज्यपाल (एलजी) दिल्ली का मुख्य प्रशासनिक प्राधिकार होगा, वह राज्य मंत्रिमंडल की सलाह मानने को बाध्य नहीं। कैबिनेट के फैसले फैसलों पर एलजी की मंजूरी जरूरी थी। सारी फाइलें उनके पास भेजना भी आवश्यक कर दिया गया था।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी बिंदुओं को उलट दिया। अब दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख राज्य मंत्रिमंडल है। उसकी सलाह मानने को एलजी बाध्य हैं। कैबिनेट के फैसले पर एलजी की मंजूरी नहीं चाहिए। सिर्फ सूचना देना पर्याप्त है। एलजी के पास फाइलें भेजने की भी जरूरत नहीं रही।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के इन चारों बिंदुओं को एलजी ने मान भी लिया है। लेकिन सर्विसेस विभाग पर अब भी एलजी अपना अधिकार जता रहे हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट ने जमीन, पुलिस तथा विधि व्यवस्था के साथ सर्विसेज विभाग भी एलजी को सौंपा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एलजी के लिए तीन विषय ही आरक्षित किए। सर्विसेस विभाग को आरक्षित नहीं किया।

लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक सर्विसेस विभाग अब राज्य सरकार के अधीन है। लेकिन केंद्र की सहमति से एलजी ने सर्विसेस विभाग पर अपना दावा बरकरार रखा है।

अरविंद केजरीवाल ने इसे मुद्दा बनाते हुए कहा है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानना हो, तो पूरा मानो। अधूरा आदेश मानना अदालत की अवमानना है। केजरीवाल ने यह सही कहा कि ऐसा पहली बार हो रहा है केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानने से मना कर दे।

एलजी का तर्क है कि सर्विसेस विभाग को गृह मंत्रालय की एक अधिसूचना के माध्यम से एलजी के हवाले किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उस अधिसूचना को रद्द करने पर अलग से कुछ नहीं कहा है। इस आधार पर एलजी ने सर्विसेस विभाग पर दावा किया है।

लेकिन कानून के जानकार बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की यह मनमानी व्याख्या है। किसी उच्चतर न्यायालय के फैसले के बाद उससे पूर्व की सभी अधिसूचना या आदेश को स्वतः रद्द समझा जाता है। इस सामान्य नियम को नहीं मानकर केंद्र ने अपनी शक्तियों का दुरूपयोग किया है।

इस प्रसंग में मीडिया की चुप्पी या भ्रम फैलाने की कोशिश हैरान करने वाली है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश किसी व्यक्ति का विचार नहीं होता। यह एक दस्तावेज होता है। उसे समझना और सही व्याख्या करना मीडिया और समाज का दायित्व है।

लेकिन अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान न रह जाए, और राजनीतिक वजहों से गलत को सही बताया जाए, तो अराजकता पैदा होती है।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद कुछ टीवी बहसों में एंकर द्वारा यह साबित करने की कोशिश की जाती रही कि इस आदेश में नया तो कुछ भी नहीं है। सिर्फ पहले से मौजूद प्रावधानों को दोहराया गया है। लेकिन यही तो दिल्ली राज्य सरकार की जीत है। पहले के प्रावधानों की गलत व्याख्या करके राज्य की शक्तियों पर एलजी ने कब्जा कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने उन प्रावधानों को फिर से लागू करने का आदेश दिया।

इस संबंध में भाजपा और कांग्रेस के प्रवक्ताओं की शैली में कतिपय एंकरों को बोलते सुनना दुखद था। उन्हें तो यह बताना चाहिए था कि उन अधिकारों पर कब्ज़ा करके केंद्र ने दिल्ली राज्य सरकार के सवा तीन साल बर्बाद किये।

दिल्ली सरकार के लिए क्यों जरूरी है सर्विसेज विभाग? जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन आरक्षित विषयों को छोड़कर शेष सारे विषय दिल्ली सरकार के अधीन होने की पुष्टि कर दी, तो इनमें एक सर्विसेस विभाग भी है। इसी विभाग के माध्यम से अन्य सभी विभागों के पदाधिकारियों और कर्मचारियों पर राज्य सरकार का नियंत्रण होता है। ऐसे नियंत्रण के बगैर कोई भी सरकार अपना काम नहीं कर सकती है।

इसका एक बड़ा उदाहरण हाल के विधानसभा सत्र में देखें। दिल्ली सरकार शिक्षा के क्षेत्र में बढ़े कदम उठा रही है। शिक्षा का बजट भी बड़ा रखा है। लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण बाधा आ रही है। विधानसभा में एक विधायक ने शिक्षकों की नियुक्ति पर सवाल पूछा। अधिकारियों ने जवाब देने से मना कर दिया। कहा कि सर्विसेस का मामला एलजी के पास है, इसकी सूचना विधानसभा में नहीं दी जाएगी।

अगर विधानसभा ऐसे मामलों पर चर्चा न करे, राज्य सरकार शिक्षकों की नियुक्ति तक न कर सके, तो शिक्षा का विकास कैसे होगा?

ऐसे महत्वपूर्ण मामलों में मीडिया पर स्वतंत्र पड़ताल करके तर्कसंगत और संविधान संगत जानकारी प्रस्तुत करने का दायित्व है। इससे नजरें चुराना किस भय अथवा लोभ का संकेत है?

दिल्ली विधानसभा का चुनाव फरवरी 2015 में हुआ था। लगभग 40 माह यानि दो तिहाई समय बीत गया। अब बीस माह बचे हैं। इस अवधि में दिल्ली सरकार अपने सभी चुनावी वादे पूरे करने की बात कर रही है, तो इसका स्वागत करना चाहिए। इसके बजाय केंद्र और एलजी द्वारा बाधा पैदा करना देशविरोधी कदम है।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद मीडिया और नागरिकों को पूछना चाहिए कि तीन साल तक दिल्ली सरकार को परेशान करने से हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा?

जो लोग केजरीवाल पर केंद्र से टकराव का आरोप लगा रहे थे, उन्हें अब बताना चाहिए कि टकराव की असल वजह क्या थी?

दिल्लीअभी पूर्ण राज्य नहीं है। लेकिन नागरिकों के हित में एक लोकतांत्रिक और सक्षम सरकार जरूरी है। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा ने पिछले कई दशकों से दिल्ली पूर्ण राज्य की बात की है। क्या वजह है कि केजरीवाल की सरकार बनने के बाद दोनों पार्टियों ने पूर्ण राज्य की बात बंद कर दी। उलटे, पहले से मिले अधिकारों को सीमित कर दिया। क्या इन्हें लगता है कि अगले चुनाव में भी दिल्ली में ‘आप’ को बहुमत मिलेगा? अगर ऐसा लगता हो, तब भी ऐसे मामले सिद्धांत पर चलते हैं। परिणामवाद पर नहीं।

मीडिया पर इस पड़ताल का दायित्व है कि यही पार्टियां पहले किस आधार पर दिल्ली राज्य की बात करती रही हैं।

जाहिर है कि ऐसे दायित्वों से मुंह चुराकर मीडिया लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका से पीछे हट रहा है।

प्रसंगवश, देश की मौजूदा राजनीति में लोकतान्त्रिक मूल्यों और सत्याग्रह पर एक रोचक प्रसंग देखें। इस पर काफी चर्चा होनी चाहिए था, लेकिन जरा भी नहीं हुई।

गत पहली जुलाई को इंदिरा गांधी स्टेडियम में दिल्ली पूर्ण राज्य अभियान की शुरुआत करते हुए उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने यह प्रसंग सुनाया। महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका में एक ट्रेन की फर्स्ट क्लास बोगी में सवार थे, तो अंग्रेज अफसर ने उन्हें अपमानित करके एक स्टेशन पर उतार दिया। श्री सिसोदिया के अनुसार इसके बाद का प्रसंग काफी महत्वपूर्ण है, जिसकी कम चर्चा हुई है। ट्रेन से उतारे जाने के बाद महात्मा गांधी ने उसी स्टेशन पर सत्याग्रह शुरू किया। उन्होंने शिकायती टेलीग्राम भेजा। जवाब में 24 घंटे के भीतर एक अधिकारी ने आकर उनसे क्षमा मांगी और अगली ट्रेन में फर्स्ट क्लास की बोगी में बिठाकर भेजा।

मनीष सिसोदिया ने इस प्रसंग को गत दिनों एलजी आवास पर नौ दिन के सत्याग्रह से जोड़ा। कहा कि अंग्रेजी चाहे जितने भी क्रूर रहे हों, उन्होंने सत्याग्रह का सम्मान रखा। लेकिन दिल्ली के एलजी या केंद्र ने एक मुख्यमंत्री और तीन मंत्रियों के सत्याग्रह की उपेक्षा की।

अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह भी स्पष्ट हो गया है कि यह एलजी ही हैं, जिनकी हठधर्मिता के कारण केजरीवाल और तीन मंत्रियों को सत्याग्रह करना पड़ा। क्या मीडिया को यह समीक्षा करना जरूरी नहीं, कि ऐसे शांतिपूर्ण सत्याग्रह तक की गुंजाइश ख़त्म कर दी जाए, तो लोकतंत्र का क्या होगा? क्या सिर्फ अराजकता ही हमारा भविष्य है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। राँची में रहते हैं।)

 

# कार्टून  cartoonistsatish.com से साभार।