बुझ गया जनपक्षधर पत्रकारिता का ‘दीप’, लेकिन ‘कुल’ और उसकी लड़ाई बाक़ी है..!

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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लखनऊ की ओर तेज़ी से भाग रही शताब्दी एक्सप्रेस में बैठा दूर तक फैली हरियाली निहार रहा था कि वह मनहूस ख़बर आ गई जो हफ़्ते भर से ज़ेहन में अटकी थी। उस रोज़ प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के गेट में घुसते ही बुज़ुर्ग पत्रकार कुलदीप नैयर को देखा था। दो लोग थामे उन्हें बाथरूम की ओर ले जा रहे थे। वे काफ़ी थके हुए लग रहे थे।

क्या अंतिम बार देख रहा हूँ? मन में सवाल उठा। शायद- जवाब भी मन ने ही दिया।

तो नहीं रहे कुलदीप नैयर। 95 बरस की उम्र थी। उनकी अनुपस्थिति ने खालीपन पैदा किया है, लेकिन ‘महाशोक’ जैसी बात नहीं है। यह उम्र जाने की ही होती है। उनकी थाती सामने है। हमारी पीढ़ी के पत्रकार गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने एक ऐसा पत्रकार देखा जो लगातार ‘आयडिया ऑफ इंडिया’ के पक्ष में झंडा बुलंद करता रहा। जिसके लिए संपादक होने का मतलब किसी ए.सी.चैंबर में क़ैद हो जाना नहीं, बल्कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार के पक्ष में घूम-घूमकर अलख जगाना रहा। वे जानते थे कि ऐसे मुद्दों पर ‘निरपक्षेता’ एक शातिर बयान के सिवाय कुछ नहीं। मौत के कुछ दिन पहले तक वे इस मोर्चे पर सक्रिय रहे। 30 साल पहले भी उन्हें इलाहाबाद, बनारस सहित यू.पी. के तमाम शहरों में आयोजित छोटी-बड़ी गोष्ठियों में देखता था। वे हिंदुस्तान को उस सपने से जोड़ते थे जो स्वतंत्रता संग्राम का संकल्प था। जब चलना मुहाल हो गया तो व्हील चेयर पर बैठकर कार्यक्रमों में पहुँचते रहे। मानवाधिकारों के प्रश्न पर आवाज़ उठाने को लेकर उनकी और हाल ही में दिवंगत हुए जस्टिस राजेंद्र सच्चर में जैसे होड़ हुई थी। दोनों निकट संबंधी भी थे।

मोबाइल पर ख़बर देख रहा हूँ कि वे कुछ दिनों से दिल्ली के एक अस्पताल में थे। आईसीयू में। 22 अगस्त की रात क़रीब 12:30 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली। हफ़्ते भर पहले ही उन्होंने 95वाँ जन्मदिन मनाया था। 14 अगस्त 1923 को सियालकोट (अब पाकिस्तान) में कुलदीप नैयर का जन्म हुआ था।

आज़ादी के आंदोलन में आई तेज़ी के साथ जवान होने वाले कुलदीप नैयर के लिए विभाजन में अपना घर-बार और रिश्ते छोड़ना किसी आघात  की तरह था, लेकिन बतौर ‘रिफ्यूजी’ उनके मन में किसी के लिए कोई कटुता नहीं थी। उलटा वे ज़िंदगी भर विभाजन को बेमानी बनाने की कोशिश करते रहे। जवानी के दिनों में वे भगत सिंह और उनकी एचएसआरए से प्रभावित थे। 1942 के भारत छोड़ आंदोलन में सक्रिय रहे और भगत सिंह की प्रामाणिक जीवनी भी लिखी-विदाउट फ़ियर (हिंदी अनुवाद हुआ- मृत्युंजय भगत सिंह।)

भारत आकर कुलदीप नैयर ने उर्दू अख़बारों के रास्ते अंग्रेज़ी पत्रकारिता में प्रवेश किया और आज़ादी के तुरंत बाद भारत के निर्माण की जद्दोजहद के गवाह बने। किसी तरह पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए विदेश गए और लौट कर प्रेस सूचना ब्यूरो में काम करने लगे। लालबहादुर शास्त्री के वे प्रेस सचिव रहे। ताशकंद में उनकी मौत के समय भी वहीं थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बियॉन्ड द लाइन्स’ में उन अफ़वाहों का खंडन किया है जो लालबहादुर शास्त्री की मौत को संदिग्ध बताती हैं। उन्होंने यह लिखकर भी सनसनी फैला दी थी कि “सरदार पटेल ने नेहरू को कश्मीर को ‘सिर दर्द’  बताते हुए इससे दूर रहने की सलाह दी थी। लेकिन ‘कश्मीरी पंडित’ नेहरू हर हाल में कश्मीर को भारत में मिलाना चाहते थे।” ज़ाहिर है, वे तथ्यों के पक्के थे, उनके जीत जी किसी ने उनकी बात को चुनौती नहीं दी।

कुलदीप नैयर के घर हमारा दो बार जाना हुआ और दोनों ही बार चैनल के लिए उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू लिए थे। वे अनुभवों का ख़ज़ाना थे। आजकल की पत्रकारिता और पत्रकारों के हाल पर ख़ासा दुखी भी। इमरजेंसी के दिनों की याद करते हुए वे पत्रकारों के जीवट को याद करते थे हालाँकि तमाम लोग घुटनों के बल भी थे। वे तब इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे। उन्होंने इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ खुलकर लिखा और प्रेस क्लब में पत्रकारों की मीटिंग करके निंदा प्रस्ताव पारित किया। इसमें कई पत्रकारों ने दस्तख़त किए थे और कई मुँह फेरकर चले गए थे। इमरजेंसी विरोध की वजह से कुलदीप नैयर को जेल भी जाना पड़ा था लेकिन हैरत की बात यह है कि इमरजेंसी के बाद इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका ने उन्हें दोबारा नौकरी नहीं दी।  (शायद जनसंघ के पूर्व नेता रामनाथ गोयनका का काम निकल गया था!अब उन्हें ऐसा संपादक नहीं चाहिए था जो ‘उनकी’ सरकार पर सवाल उठाए!)

हालाँकि 2015 में गोयनका के नाम पर स्थापित पत्रकारिता सम्मान कुलदीप नैयर को लाइफ़टाइम अचीवमेंट श्रेणी में दिया गया जिसे उन्होंने स्वीकार किया।

1990 में वी.पी.सिंह सरकार ने उन्हें ग्रेट ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त किया था और 1997 में वे राज्यसभा में मनोनीत हुए थे। उनका कॉलम ‘बिटवीन द लाइन्स’ काफ़ी लोकप्रिय था और 14 भाषाओं में 80 से ज़्यादा समाचार पत्रों में प्रकाशित होता था। भारत ही नहीं, पाकिस्तान के अख़बार भी उन्हें ख़ूब छापते थे।

वे दक्षिण एशिया में शांति के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच अमन को बेहद ज़रूरी मानते थे। बाघा बार्डर पर हर साल अमन के लिए मोमबत्ती जलाने की शुरुआत उन्होंने ही की थी जिसमें पाकिस्तान की ओर से भी तमाम मानवाधिकारवादी जुटते हैं। इस बार भी, काफ़ी बीमार होने के बावजूद वे 12 अगस्त को राजघाट पहुँचे थे, ‘अमन की आशा’ लेकर बाघा जाने वाले जत्थे को विदाई देने। सेहत ठीक होती तो ख़ुद भी जाते। हैरानी की बात है कि कुलदीप नैयर की मृत्यु के बाद उन्हें सिर्फ़ ‘इमरजेंसी विरोधी योद्धा’ के खाँचे में क़ैद करने की कोशिश की जा रही है जबकि वे उस इमरजेंसी का भी अपने काँपते हाथों से लगातार विरोध कर रहे थे जो बिना घोषित हुए देश के सीने पर चढ़ बैठी है। जो संविधान की प्रस्तावना पर कालिख पोत रही है जहाँ कुलदीप नैयर की आत्मा बसती थी।

पर शायद यह हैरानी की बात नहीं भी है! ऐसा करने वाले, ऐसा करने के लिए ही जाने जाते हैं। व्यक्ति को उसके विचार से काटकर मूरत में बदलने का खेल बहुत पुराना है। वरना ज़रा सा पीछे जाइए, यही लोग कश्मीर में मानवाधिकार का प्रश्न उठाने या पाकिस्तान के साथ उनके अमन प्रयासों के लिए कुलदीप नैयर की छीछालेदर करते मिल जाएँगे। टुकुड़खोर ऐंकर रात दिन चीखते हैं- मोमबत्ती गैंग!

कुलदीप नैयर इस ख़तरे के ख़िलाफ़ लगातार क़लम चलाते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते उन्होंने माँग की थी कि आरएएसएस से जुड़े किसी व्यक्ति को सरकारी पदों के अयोग्य घोषित कर दिया जाए। ज़ाहिर है, उन पर बहुत हमले हुए लेकिन उन्होंने अपनी बात वापस नहीं ली।

ऐसे में कुलदीप नैयर की मृत्यु के शोक से जल्द उबरकर उनके जीवन-संकल्प को धार देना चाहिए। ‘युग का अंत’ जैस जुमलेबाज़ी का कोई मतलब नहीं क्योंकि कुलदीप नैयर के साथ वह युग नहीं बदला, जिसे बदलने के लिए वे आजीवन जूझते रहे।

कुलदीप नैयर की जिंदगी का ‘दीप’ बुझ गया लेकिन उनका ‘कुल’ उन पत्रकारों की शक्ल में ज़िंदा रहेगा जो सत्य और न्याय के पक्ष में मुखर हैं और और मोर्चे पर हैं।

अलविदा कुलदीप नैयर! लड़ाई जारी रहेगी!