जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया

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प्रकाश के रे

जेरूसलम की हमारी दास्तान उस जगह पहुंची है, जब इस शहर पर 25 सालों के भीतर चार अलग-अलग तबकों का क़ब्ज़ा रहा था- जरथ्रुष्ट के अनुयायी फ़ारसी, यहूदी, रोमन ईसाई और इस्लाम को माननेवाले. कहानी के इस मोड़ पर रोमनों का शासन अपने आख़िरी दिनों में है और हेजाज़ के लालसागर इलाक़े में रेगिस्तान के बीच से उठा एक नया धर्म- इस्लाम- जेरूसलम की ओर बढ़ रहा है. मक्का में इस मज़हब ने पैगंबर मोहम्मद के इसरा और मेराज़ (621 ईस्वी) के ज़रिये जेरूसलम पर अपने आध्यात्मिक अधिकार की घोषणा पहले ही कर दी थी. यहाँ कुछ देर ठहरते हैं तथा जेरूसलम और उसके इर्द-गिर्द से जुड़े आजकल के कुछ वाक़्यात पर एक नज़र डालते हैं. यहाँ पहले कही गयी एक बात दोहरा देना ज़रूरी है कि जेरूसलम में कुछ भी ‘अब’ या ‘अब से’ नहीं, बल्कि ‘तब’ और ‘तब से’ तय होता है. और, इस ‘तब’ के मायने तमाम दावेदारों के लिए अलहदा हैं. जेरूसलम को लेकर सबकी शिद्दत लगातार गहरी होती जा रही है. वहशत का आलम है. शायर इंशा अल्लाह ख़ान की बातों को उधार लेकर कहें, तो ‘और भड़के है इश्तियाक़ की आग / अब किसे सब्र-ओ-ताब बाक़ी है.’

पहले विश्व युद्ध में उस्मानिया सल्तनत और जर्मनी पर जीत के बाद अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन मध्य-पूर्व में अपना हिस्सा बाँटने के लिए बैठकें कर रहे थे. इतिहासकार मोंटेफ़ियोर ने जेरूसलम पर अपनी किताब में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज और फ़्रांसीसी प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लेमेंसॉ के बीच लंदन में हुई बैठक का दिलचस्प उल्लेख किया है. क्लेमेंसॉ अपने लिए सीरिया चाहते थे और उसके बदले ब्रिटेन को कुछ भी देने के लिए तैयार थे. उन्होंने जॉर्ज से पूछा कि उन्हें क्या चाहिए. जॉर्ज ने मोसुल माँगा. मोसुल अभी इराक़ में है और कुछ समय पहले तक वह इस्लामिक स्टेट का मुख्यालय बना हुआ था जिसे अमेरिकी और नैटो सेनाओं के साथ मिलकर इराक़ी सेना ने मुक्त कराया है. यह बग़दाद के बाद इराक़ का सबसे महत्वपूर्ण शहर है. क्लेमेंसॉ ने हामी भरते हुए पूछा कि ‘और कुछ?’, तो जॉर्ज ने जेरूसलम माँग लिया. इस पर भी फ़्रांसीसी प्रधानमंत्री रज़ामंद हो गये. यह प्रकरण इसलिए भी दिलचस्प है कि पिछले दिनों सीरिया पर अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन ने मिसाइल दागे हैं और फ़्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्राँ का दावा है कि उन्होंने ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे को इन हमलों के लिए तैयार किया था. सौ साल बाद भी जेरूसलम, सीरिया और अरब में इन खिलाड़ियों की दिलचस्पी कम नहीं हुई है. और कम हो भी कैसे? यह सिलसिला तो दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना है!

बहरहाल, महायुद्ध के बाद यूरोप, अफ़्रीका और अरब के बँटवारे के हिसाब-किताब को मंज़ूर करने के लिए जनवरी, 1919 में विजयी देशों की बैठक वर्साय में हुई और यहाँ हुए समझौते को इतिहास में ‘वर्साय की संधि’ के नाम से जाना जाता है. इसमें भाग लेनेवाले अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन पहले ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति थे जिन्होंने पद पर रहते हुए अमेरिकी महादेश से बाहर की यात्रा की थी. वर्साय में वे लोग भी पहुँचे थे जिनके हित मध्य-पूर्व से सीधे तौर पर जुड़े थे. शहज़ादा फ़ैसल ब्रिटिश अफ़सर लॉरेंस के साथ वहाँ थे और वे किसी तरह से सीरिया पर फ़्रांसीसी दख़ल को रोकना चाहते थे और अपने लिए नया देश माँग रहे थे, जो सीरिया, जॉर्डन और इराक़ को मिलाकर होता. फ़ैसल के पिता उस्मानिया साम्राज्य की ओर से मक्का और मदीना के गवर्नर थे तथा उन पर अब उस्मानियाई अधिकारी भी भरोसा नहीं कर रहे थे और अल-सऊद परिवार कबिलाई लड़ाकों और रेगिस्तानी बद्दुओं के साथ हेजाज़ पर दबदबा बढ़ा रहा था. वर्साय में ज़ॉयनिस्ट नेता विज़मैन भी डेरा डाले हुए थे और उनकी कोशिश थी कि फ़िलीस्तीन में ब्रिटेन का दख़ल रहे और बेलफ़ोर घोषणा के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिल जाये जिसमें यहूदियों के लिए अपने देश की बात कही गयी थी.

पहले विश्वयुद्ध की बात को वहीं छोड़कर आज की एक और अहम ख़बर पर नज़र डालें. कुछ दिन पहले सऊदी अरब के शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान ने यह बयान देकर अरब दुनिया में हलचल मचा दी कि इज़रायल को अपने देश और ज़मीन का अधिकार है. इस बयान को सऊदी अरब और इज़रायल के बीच बेहतर होते रिश्तों के रूप में देखा जाना चाहिए जिसकी क़ायदे से शुरुआत 1970 के दशक के आख़िरी सालों में अमेरिका और पाकिस्तान के सहयोग से हुई थी तथा साझेदारी में इन देशों ने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान में धर्मयुद्ध लड़ा था. लेकिन शहज़ादे के बयान के बेज़ा असर को रोकने के लिए सऊदी बादशाह सलमान ने एक बयान जारी कर फ़िलीस्तीन के देश बनने के अधिकार पर ज़ोर दिया जिसकी राजधानी जेरूसलम होगी. बीते कुछ दिनों सेइज़रायल और फ़िलीस्तीन का तनाव बहुत बढ़ गया है तथा कई लोगों की मौत हुई है. पहली आमली जंग के बारे में हमारी दास्तान में बाद में लिखा जायेगा, पर अभी इन बातों को इसलिए उल्लिखित किया जा रहा है कि किस तरह से जेरूसलम लगातार संघर्षों का प्रतीक शहर बना हुआ है.

जेरूसलम से जुड़ी एक ख़बर अभी ख़त्म हुए राष्ट्रमंडल खेलों से है जहाँ भारतीय एथलीटों ने अच्छा प्रदर्शन किया है. इस आयोजन के उद्घाटन में इंग्लैंड के खिलाड़ियों ने विलियम ब्लैक की कविता ‘जेरूसलम’ को गाया था. इस पर ब्रिटिश अख़बारों में एक पुरानी बहस फिर से शुरू हो गयी कि इंग्लैंड और ग्रेट ब्रिटेन का ‘असली’ राष्ट्रगान क्या है. यह कविता पहली बार 1808 में छपी थी और माना जाता है कि इसे उससे चार-पाँच साल पहले लिखा गया होगा. इस कविता में अंतर्निहित देशभक्ति की भावना को देखते हुए पहले विश्वयुद्ध के दौरान इसे 1916 में हुबर्ट पैरी ने संगीतबद्ध किया था. तब से यह बहुत मक़बूल रहा है. इस कविता में बालक जीसस की इंग्लैंड यात्रा की आकांक्षा करते हुए ब्लैक कहते हैं कि वे आयेंगे और औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप बने ‘शैतानी मिलों’ की जगह इस देश को स्वर्ग बनायेंगे- ‘न तो मैं मानसिक लड़ाई से पीछे हटूँगा/न ही मेरे हाथ में मेरी तलवार थिर होगी/ जब तक कि हम बना न लें हम/ हरियाली से पूर्ण इंग्लैंड की सुंदर ज़मीन पर जेरूसलम…’

इस गीत को इंग्लैंड की टीम ने 2010 में कराये गये एक जनमत-संग्रह के बाद अपना गीत बना लिया था और तब से इसे वे गाते हैं. बहस इस बात की है कि फिर ‘गॉड सेव द क्वीन’ गीत को क्या माना जाये? यह गीत ब्रिटेन का राष्ट्रगीत है, पर इंग्लैंड के लिए ऐसा कोई गीत तय नहीं किया गया है. ब्रिटिश संसद की बहसों में भी कुछ ख़ास नहीं निकला है और खेलों में टीमों को कुछ गानों में से कोई भी गाने की छूट है. यह दिलचस्प है कि इस गीत को ब्रिटेन की सभी बड़ी पार्टियों- कंजरवेटिव, ब्रिटिश लिबरल एसेंबली, लेबर, लिबरल डेमोक्रेट- के सम्मेलनों में गाया जाता है. दूसरे महायुद्ध के के बाद 1945 के आम चुनाव में लेबर पार्टी के नेता क्लीमेंट एटली ने ‘नया जेरूसलम’ बनाने के वादे के साथ इस गीत को अपने चुनावी गीत के तौर पर चुना था तथा विश्वयुद्ध में शानदार नेतृत्व करनेवाले विंस्टन चर्चिल को हरा दिया था. परंतु विडंबना देखिये, एटली ‘नया जेरूसलम’ बनान तो दूर की बात, फ़िलीस्तीन के जेरूसलम को भी न बचा सके और उसके आधे हिस्से को जीतकर यहूदियों ने दो हज़ार साल बाद आख़िरकार अपना देश ‘इज़रायल’ बना लिया. आधे हिस्से पर फ़ैसल के भाई के वंशजों ने दख़ल कर लिया. टेंपल माउंट की हिफ़ाज़त का जिम्मा उस समय ब्रिटिश सेना की भारतीय टुकड़ी के हाथों में थी. एटली उस भारत को भी ब्रिटिश साम्राज्य में बरक़रार न रख सके.

Sir Winston Churchill and Earl Clement Attlee, both former British Prime Ministers, in conversation at a dinner in honor of the Australian Prime Minister at the Dorchester Hotel, London, June 23rd 1959. (Photo by Keystone/Hulton Archive/Getty Images)

एक और ताज़ा ख़बर पर ध्यान दिया जाये. मिस्र में ईसाई धर्म के कॉप्ट समुदाय के प्रमुखों ने इज़रायल की ज़्यादतियों के विरोध में अपने लोगों के जेरूसलम की तीर्थयात्रा पर बहुत पहले पाबंदी लगा दी थी. इस पाबंदी के बावज़ूद इस समुदाय के लोग पवित्र सप्ताह के दौरान वहाँ जाते हैं क्योंकि पाबंदी भले न हटायी गयी हो, पर उसे ज़ोर देकर लागू करने की कोशिश भी कभी नहीं हुई. साल 1979 में मिस्र और इज़रायल के बीच शांति समझौता हुआ था और उस पर दस्तख़त करने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति अनवर सादात इज़रायल गये थे. लेकिन उस समय कॉप्ट समुदाय के धार्मिक प्रमुख पोप शेनौदा ने उनके साथ प्रतिनिधिमंडल में जाने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि वे वे अपने मुस्लिम बंधुओं के साथ हाथ में हाथ डाले ही जेरूसलम जायेंगे, जब वहाँ से इज़रायली दख़ल ख़्त्म हो जायेगा. हालाँजि यह पाबंदी पहली दफ़ा कॉप्ट पोप सीरिल ने 1967 में तब लगाया था, जब मिस्र समेत अनेक अरबी देशों को हरा कर इज़रायल ने पूरे जेरूसलम पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था. अख़बारों का आकलन है कि इस साल पिछले हफ़्ते सात हज़ार कॉप्ट तीर्थयात्री जेरूसलम गये हैं. कई अरबी मुस्लिम और ईसाई मानते हैं कि उनकी जेरूसलम जाने से उस शहर की पहचान और उस पर दावे को नैतिक दम मिलता है. फ़िलीस्तीनी भी चाहते हैं कि ये लोग आते रहें.

अगले हफ़्ते हम सातवीं सदी के जेरूसलम में वापिस लौटेंगे, जब रोमन सम्राट हेराक्लियस जेरूसलम फ़तह कर चुका है तथा वह फ़ारस, इराक़ और सीरिया-पैस्टीना में रोअम्न वर्चस्व को मज़बूत कर रहा है. लेकिन उसके साम्राज्य की सीमाओं पर स्थित उसकी चौकियों और इधर-उधर जाती टुकड़ियों पर इस्लाम के चाँद-सितारा परचम लिये लड़ाके दबिश देने लगे हैं. रोमनों के लिए अरबी हमले नयी बात नहीं है और इसी वज़ह से हेराक्लियस इन्हें बहुत महत्व नहीं दे रहा है. पर यह सब बहुत जल्दी बदल जाना है. इसी के साथ जेरूसलम को भी एक बार फिर बदल जाना है.

पहली किस्‍त: टाइटस की घेराबंदी

दूसरी किस्‍त: पवित्र मंदिर में आग 

तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्‍म हुआ…

चौथी किस्‍त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया

पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना

छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा 

सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब 

आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह  

नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई

दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है

ग्यारहवीं किस्तकर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत

बारहवीं किस्‍त: क्‍या ऑगस्‍टा यूडोकिया बेवफा थी!

तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन

चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना 



(जारी)                                                                                                                Cover Photo : Rabiul Islam