आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 5 मई, 2018

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जनसत्ता

आपदा का दंश

कुदरत का कहर क्षण भर में ही कैसी तबाही मचा देता है, दो 3 दिन पहले उत्तर भारत के बड़े हिस्से में आया आंधी-तूफान इसका प्रमाण है। अब तक सवा सौ से ज्यादा लोगों के मारे जाने की खबर है। सत्तर से ज्यादा लोग उत्तर प्रदेश में और चालीस से ज्यादा राजस्थान में मारे गए। पश्चिम बंगाल में आठ, उत्तराखंड में पांच और झारखंड में पांच लोगों के मारे जाने की खबर है। घायलों की संख्या तो हजारों में है। कुछ मौतें आकाशीय बिजली गिरने से हुई। राजस्थान के धौलपुर जिले में तो आंधी की वजह से कई घर आग की चपेट में आ गए। एक सिलेंडर में लगी आग ने कई घरों को लपेट लिया। एक सौ बीस किलोमीटर प्रतिघंटा से भी तेज रफ्तार वाले अंधड़ से हजारों पेड़ और बिजली-खंभे उखड़ गए। सडकों और रेल पटरियों पर पेड़ गिरने से यातायात पर असर पड़ा। घंटों बिजली गुल रही। बड़ी संख्या में कच्चे घर मलबे में तब्दील हो गए। तूफान से अरबों रुपए की संपत्ति का नुकसान भी हुआ। खेतों में खड़ी फसलें ओलों से तबाह हो गईं। कुल मिलाकर राजस्थान से लेकर पश्चिम बंगाल तक तबाही का मंजर दिखा। पर हैरानी की बात यह है कि कुछ दिन पहले मौसम विभाग ने देश में जिन कई स्थानों पर आंधी-बारिश की चेतावनी दी थी, उनमें राजस्थान और उत्तर प्रदेश का नाम नहीं था।

इस बार आकलन में मौसम विभाग पिट गया। मौसम विभाग ने तीस अप्रैल को चेतावनी जारी कर बताया था कि दो और तीन मई को पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में गंगा के आसपास के इलाकों और असम, मेघालय, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और झारखंड में आंधी-तूफान आ सकता है। मौसम विशेषज्ञों ने बताया कि राजस्थान और उत्तर प्रदेश में तबाही का कारण हरियाणा के ऊपर बना चक्रवाती प्रवाह रहा। हालांकि मई के महीने में ऐसा आंधी-तूफान और बारिश का झोंका कम ही आता है। बताया जा रहा है कि जलवायु में तेजी से हो रहे छोटे-बड़े बदलाव मौसमचक्र को बिगाड़ रहे हैं। इस बार उत्तर भारत में तेज गर्मी पड़ रही है। उत्तरी पाकिस्तान और राजस्थान में तापमान ज्यादा होने की वजह से गरम हवाएं ऊपर की ओर उठ रही हैं और कम दबाव का क्षेत्र बन रहा है। इसके सात ही भूमध्यसागर और अरब सागर से चलने वाली पछुआ हवाओं से इस कम दबाव वाले क्षेत्र में बादल

और चक्रवाती तूफान बन रहे हैं। तूफान का दायरा ढाई सौ वर्ग किलोमीटर तक का है जो हर पचास से साठ किलोमीटर पर कहर बरपा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि ये सारे आकलन आंकड़ों के विश्लेषण पर निर्भर होते हैं। पर सवाल यह है कि अत्याधुनिक संसाधन होने के बावजूद इन आकलनों में ऐसी त्रुटि क्यों रह जाती है जिससे सटीक भविष्यवाणी नहीं हो पाती? इस तरह की प्राकृतिक आपदा की मार ग्रामीण इलाकों में ज्यादा पड़ी है। ज्यादा नुकसान कच्चे घरों को पहुंचा है। ग्रामीण इलाकों में ही कच्चे घरों की दीवारें गिरने और घरों के ढहने की घटनाएं ज्यादा हुई हैं। राज्य सरकारें ऐसी आपदाओं में मारे गए लोगों को मुआवजे देकर पल्ला झाड़ लेती हैं। लेकिन जिन लोगों को नुकसान होता है, जिनके मकान ढह जाते हैं, उनकी मदद के लिए ठोस बंदोबस्त नहीं होते और ऐसे आपदा पीड़ितों को लंबे समय तक इसका दंश झेलना पड़ता है।


हिंदुस्तान

पटरी पर नहीं रफ़्तार

यह न शीतकाल है कि पटरियां चटकने लगें, न कोहरा है कि परिचालन में बाधा आए, न किसी हादसे का असर है, तो फिर भारतीय रेल की रफ्तार इस कदर पटरी से उतरी क्यों है? टे्रन परिचालन नियंत्रण कक्ष भी तस्दीक कर रहे हैं कि बीते कई दिनों से दिल्ली आने या दिल्ली से जाने वाली तमाम ट्रेनें अप्रत्याशित विलंब से चल रही हैं। राजधानी और शताब्दी भी अपवाद नहीं रहीं। जयनगर-दिल्ली के बीच चलने वाली स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस तो 30 घंटे से भी ज्यादा विलंब से चली। रही सही कसर स्टेशनों के उद्घोषणा तंत्र और ऑनलाइन सिस्टम की अराजकता पूरी कर दे रही है, जहां न तो असल सूचना प्रसारित हो रही है और न वांछित जानकारी मिल पा रही है। ट्रेन की लोकेशन बताने वाला ऑनलाइन ट्रैकिंग सिस्टम भी बेअसर है। संतोषजनक जवाब तो खुद रेलवे विभाग भी नहीं दे पा रहा।

ट्रेनें पहले देर से नहीं चलती थीं, ऐसा भी नहीं है। लेकिन अभी जो हो रहा है, वह अप्रत्याशित है। संयोग ही है कि दो साल पहले रेल बजट का अलग से आना बंद हुआ और बीते एक-डेढ़ साल में रेल यात्राएं बद से बदतर होती गई हैं। दुर्घटनाएं शायद कम हुई हों, खान-पान से लेकर साफ-सफाई और अन्य सुविधाओं के सवाल तीखे होते गए हैं। डाइनेमिक प्राइसिंग के इस दौर में भी राजधानी और शताब्दी जैसी ट्रेनों में खान-पान व अन्य सुविधाएं बदहाल हुई हैं, तो सामान्य ट्रेनों की कल्पना ही की जा सकती है। रेल बजट को आम बजट में समाहित करने के पीछे तर्क था कि अलग बजट रेलवे को लोक-लुभावन घोषणाओं और उन्हें पूरा करने में ही उलझा देता है, ढांचागत और यात्री सुविधाओं पर ध्यान नहीं देने देता, लेकिन अब तक जो सामने आया है, वह उस सोच और भावना के बिल्कुल विपरीत है। लेट-लतीफी रेलवे की तमाम खामियों में से एक भले हो, लेकिन वह ऐसी खामी है, जिसका सीधा और दिखने वाला असर पड़ता है। ऐसे में सवाल उठेंगे ही।

गरमी की छुट्टियां नहीं हुई हैं, तब यह हाल है। जिम्मेदार लोग बता रहे हैं कि ट्रेन परिचालन के बढ़े हुए दबाव में जगह-जगह रखरखाव का असर परिचालन यानी समयबद्धता पर पड़ा है। तो क्या मान लिया जाए कि छुट्टियों में विशेष ट्रेनों का बोझ अधिक बढ़ने के साथ यह मुश्किल और बढे़गी? एक और जरूरी सवाल कि लेट-लतीफी का सबसे ज्यादा असर बिहार से गुजरने वाली ट्रेनों पर ही क्यों? यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि ऑनलाइन टै्रवल पोर्टल रेलयात्री  का सर्वे भी बताता है कि बिहार जाने या उससे गुजरने वाली टे्रनों का हाल सबसे बुरा है, जबकि गुजरात सबसे बेहतर। एक करोड़ से भी ज्यादा मासिक उपभोक्ता का दावा करने वाले पोर्टल के अनुसार, बीते दो वर्षों में बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में ट्रेनों की लेट-लतीफी बढ़ी है। यही रफ्तार रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब स्टेशनों पर ट्रेनों का औसत विलंब दो घंटे से भी ज्यादा होगा और आने वाली सर्दियों में तो संभव है कि रद्द होने का ग्राफ चढे़ और चंद ट्रेनें ही पटरी पर दौड़ती दिखें या फिर स्टेशनों का ऐसा बुरा हाल हो जाए कि लूप लाइन भी शायद ही खाली दिखाई दें। चिंता की बात है कि ट्रेनों की अराजकता से त्रस्त लोग जिस तरह हवाई और अन्य यात्रा विकल्पों की ओर उन्मुख होते दिखे हैं, कहीं आने वाले वक्त में यह सड़कों पर भारी बोझ के रूप में न दिखाई दे।


राजस्थान पत्रिका

खो रहे अनमोल रत्न

बच्चे अनमोल होते हैं। वे और भी विशिष्ट होते हैं जो समय से पहले ही अपने होने का अहसास खोजने लगते हैं। ऐसेहोनहार अतिसंवेदनशील होते हैं जो तुरंत अवसादग्रस्त भी हो जाते हैं। कभी-कभी अवसाद इतना गहरा होता है कि वे जीवन से ही मुंह मोड़ लेते हैं। विद्यार्थियों की आत्महत्याओं ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि असीम संभावनाओं के द्वार पर खड़े उन विशिष्ट बच्चों व किशोरों को सहेजकर रखने में हमारा

समाज कितना सचेत है। बड़े लोगों की दुनिया बहुत बड़ी हो सकती है पर बच्चों का संसार तो माता-पिता में सिमटा होता है। बच्चे थोड़े बड़े होते हैं तो परिवार, फिर स्कूल तक उनका संसार फैलता है। यह स्थिति तब तक रहती है जब तक वे स्कूल-कॉलेज से निकल असली दुनिया में कदम नहीं रखते। इसीलिए माता-पिता, परिवार और स्कूल को यह अहसास जरूरी है कि क्या वे अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे हैं? प्रतिदिन बढ़ता तनाव परोक्ष रूप से बच्चों को शिकार बना रहा है। बड़े लोगों को यह अहसास होना जरूरी है कि कैसे उनकी खिन्नता और कुंठा नई पीढ़ी पर असर डाल रही है। इसके विपरीत, प्रशंसा या सांत्वना का एक शब्द बच्चों को सातवें आसमान तक ले जा सकता है।

पहली घटना तमिलनाडु की है जहां एक सुपुत्र ने शराब की लत छुड़ाने में नाकाम रहने पर यह सोचकर देह त्याग दी कि शायद उसके बाद पिता की आदत सुधर जाए। दुसरी घटना झांसी विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहने वाली लड़की की है जिसने हीनताबोध में फंदे से झूल जाना उचित समझा। तीसरी घटना राजस्थान की है जहां शिक्षक से परेशान छात्र इसलिए फांसी पर लटक गया कि उसे क्लास रूम में सबके सामने अपमानित होना गवारा नहीं था। ये घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि विद्यार्थियों को अपने वजूद का अहसास था और स्वयं को विफल या अपमानित होते देखना मंजूर नहीं था। उन्हें यह बताया जाना चाहिए था कि दुनिया इतनी छोटी नहीं है, और भी बड़े-बड़े गम व खुशियां उनका इंतजार कर रही हैं। उतार-चढ़ाव का सामना करना ही जीवन है। रोमांचक यात्रा से पहले ही हताश हो जाना तैयारी में कमी का द्योतक है। परिवार व स्कूल को अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि दुनिया में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों में सबसे ज्यादा भारतीय हैं।


दैनिक भास्कर

कर्णाटक में फिर सुनाई दिए राजनीति के कड़वे बोल

राजनीति में प्रतिद्वंद्वी के बारे में कड़वी बातें अपने कार्यकर्ताओं को मीठी लगती हैं और जनता के मन में विरोधी के प्रति संशय पैदा करती हैं। यही कारण है कि कर्नाटक चुनाव में एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस के शब्दबाण बरस रहे हैं। अगर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मेरी बात पंद्रह मिनट नहीं झेल सकते तो उनके जवाब में मोदी कह रहे हैं कि राहुल किसी भी भाषा में परचा देखे बिना पंद्रह मिनट नहीं बोल सकते। राहुल का कहना है कि मोदी के पास कर्नाटक सरकार के काम के बारे में बोलने को कुछ नहीं है, इसलिए वे निजी हमले कर रहे हैं। शायद राहुल गांधी मोदी की शब्दों पर फंसाने वाली रणनीति को लेकर चौकन्ने हैं इसीलिए दूध के जले राहुल प्रधानमंत्री के कड़वे बयानों पर तो चुप हैं ही हल्के बयानों को भी फूंक मारकर पी रहे हैं। उन्हें मालूम है कि पिछली बार गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान मणिशंकर अय्यर की एक टिप्पणी और कपिल सिब्बल की अदालत की एक दलील कांग्रेस के लिए भारी पड़ी थी। इन सबके बावजूद राहुल यह कहने से नहीं झिझक रहे हैं कि कर्नाटक में भाजपा ने ‘गब्बर सिंह का गैंग’ तैनात कर रखी है। यह सही है कि चुनावों की भाषा और सामान्य जन के संवाद में काफी अंतर होता है और आमतौर पर चुनाव को नाटक ही माना जाता है। इसके बावजूद इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव समाप्त होने के बाद कड़वी बातों का असर सामाजिक संबंधों पर पड़ता है। स्वयं प्रधानमंत्री ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि बार-बार होने वाले विधानसभाओं के चुनाव के कारण समाज में कटुता बढ़ती है। इसलिए उन्होंने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की पैरवी भी की थी। इस स्वीकारोक्ति के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री जैसे बड़े ओहदे से ऐसी भाषा की पहल नहीं करते जो सौम्य और मधुर हो। वे अगर कहते हैं कि सिद्धारमैया सरकार ने बैंगलुरू को ‘साइबर सिटी’ से ‘सिटी ऑफ सिन’ बना दिया है तो यह बयान वैश्विक स्तर तक चुभने वाला है। प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति और मीडिया के लिए कड़वी जुबान और उस पर तीखी प्रतिक्रियाएं मार्केट स्ट्रैटजी हो सकती हैं, लेकिन इससे समाज के दिलों में जो जख्म बनता है वह सामाजिक त्रासदी पैदा करता है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि मुद्‌दे गायब हो जाते हैं और विद्वेष के लिए सनसनी शेष रह जाती है।


दैनिक जागरण

जीएसटी का सरलीकरण

जीएसटी काउंसिल का यह फैसला कारोबारियों को सचमुच बड़ी राहत देने वाला है कि अब उन्हें महीने में सिर्फ एक ही रिटर्न भरना पड़ेगा। अभी तक उन्हें तीन बार रिटर्न भरना पड़ा रहा था और इसमें संदेह नहीं कि यह तमाम छोटे कारोबारियों पर अनावश्यक बोझ डाल रहा था। चूंकि यह फैसला जीएसटी को सरल बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है इसलिए इसका केवल स्वागत ही नहीं होना चाहिए, बल्कि टैक्स चुकाने में तत्परता के रूप में भी दिखना चाहिए। जीएसटी काउंसिल ने कारोबारियों को एक बड़ी राहत देने के फैसले के साथ ही राजस्व संग्रह की समीक्षा भी की। यह समीक्षा कुछ भी कहती हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अप्रैल माह में पहली बार जीएसटी के तहत राजस्व संग्रह एक लाख करोड़ रुपये की सीमा पार कर गया। यह उत्साहजनक होने के साथ ही इस बात का सूचक है कि जीसएटी के सरलीकरण का लाभ अधिक राजस्व संग्रह के रूप में मिल रहा है। जीएसटी संग्रह में वृद्धि अर्थव्यवस्था में तेजी का भी सूचक है। कारोबार जगत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह सिलसिला कायम रहे। बेहतर होगा कि जीएसटी काउंसिल जीएसटी प्रणाली के सरलीकरण की प्रक्रिया को और तेजी प्रदान करे। दरअसल कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि आगामी जुलाई में जब जीएसटी पर अमल का एक वर्ष पूरा हो तब तक इस टैक्स प्रणाली की बची-खुची जटिलताएं भी दूर कर ली जाएं। इसी के साथ कारोबार जगत को भी चाहिए कि वह राजस्व संग्रह के लक्ष्य को पूरा करने में सहायक बने। ऐसा होने पर ही जीएसटी काउंसिल को सरलीकरण को गति देने में आसानी होगी। ध्यान रहे कि अभी उसे काफी कुछ करना है। 1यह ठीक है कि जीएसटी काउंसिल आम सहमति से फैसले लेती है, लेकिन यह ठीक नहीं कि कुछ मामलों में उसे सहमति बनाने में जरूरत से ज्यादा समय लग रहा है। बतौर उदाहरण डिजिटल भुगतान में रियायत देने का फैसला फिर टल गया। इसकी उम्मीद इसलिए नहीं की जा रही थी, क्योंकि डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने की सख्त जरूरत है। यह सही समय है जब जीएसटी काउंसिल जीएसटी दरों के स्लैब को कम करने पर भी विचार करे। इसकी आवश्यकता एक अर्से से महसूस की जा रही है। जीएसटी दरों को और अधिक तर्कसंगत बनाने की जरूरत पर विचार करते समय इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि कम टैक्स दरें अधिक लोगों को टैक्स देने के लिए प्रेरित करती हैं। अच्छा होगा कि जीएसटी के साथ अन्य करों की दरों को भी उस स्तर पर लाया जाए जिससे लोग टैक्स बचाने के बजाय उसे देने के लिए प्रेरित हों। देश में एक ऐसा माहौल बनाने की आवश्यकता है कि जो भी टैक्स देने में समर्थ हो वह यह काम स्वेच्छा से आगे बढ़कर करे। ऐसा माहौल बनाने से विकास योजनाओं को गति देने में आसानी होगी और इसका लाभ भी सभी को मिलेगा। यह भी उचित होगा कि जीएसटी काउसिंल पेट्रोलियम उत्पादों और शराब को भी जीएसटी के दायरे में लाने की दिशा में आगे बढ़े। जो बात सैद्धांतिक तौर पर सही है उस पर अमल में देरी का कोई औचित्य नहीं।


INDIAN EXPRESS

THE SARKARI AWARD

The controversy over the 65th National Film Awards ceremony has a false ring to it. An estimated 50 of the 125 awardees boycotted the function on Thursday after they were told that President Ram Nath Kovind would present only a select few awards and the rest would be given by I&B minister Smriti Irani and her junior minister, Rajyavardhan Singh Rathore.

The previous day, those who didn’t make it to the President’s lot wrote a letter to him in which they claimed he not giving them their awards felt like “a breach of trust” and pleaded that no hierarchy be introduced in the “most pristine and unbiased” award function. It appears the President’s office has instituted a new protocol according to which he does not stay at a function for more than an hour and that the I&B ministry was informed in advance. The ministry failed to communicate the message to the awardees, but does this slip-up merit a boycott of the function?

The real issue that needs to be debated is the pre-eminent role that the State has accorded itself in deciding merits and demerits of art and culture. Art, by its very definition, is that which questions power and its representations in all its forms. If the State is to arbitrate its social value — and that’s the pretext for the government honouring or promoting artists with public funds — it is not necessary that the truth of art and the autonomy of the artist would be respected.


TIMES OF INDIA

Best frenemies

Prime Minister Narendra Modi and HD Deve Gowda have a lot in common – and not just that both rose to the PM’s post or belong to the OBC grouping. Both must stop Congress from retaining Karnataka and overcome arch rival Siddaramaiah who stands in the way. Their shrewd display of realpolitik has flummoxed rivals, party workers, poll watchers and voters alike. Modi set the stage by mounting lavish praise on Gowda and recalling how he held him in high respect. Gowda was quick to respond praising Modi’s oratorical skills and for stopping him from quitting Parliament.

Siddaramaiah labelled it a “mutual admiration club”, noting that Congress was now fighting a BJP-JD(S) alliance. But in no time Modi disowned JD(S) asking people not to waste their votes, even as Gowda emphasised that personal regard did not mitigate his political differences with Modi. Clearly, this is a bromance with a difference: one hinging entirely on electoral calculations. BJP values JD(S)’s potential to defeat Congress in southern Karnataka and eat into Congress votes elsewhere. If the JD(S)-BSP combine, with support from Asaduddin Owaisi’s AIMIM, attracts a chunk of Muslim and Dalit votes, Congress would be in trouble. But if JD(S) attracts anti-incumbency votes it will be BJP that suffers.

In a hung assembly JD(S) will become the kingmaker. Modi has played his cards well by rebuilding bridges given that HD Kumaraswamy’s dalliance with BJP was a disaster for JD(S). A Congress-JD(S) alliance cannot be ruled out either but Siddaramaiah could become the fall guy as Gowda has reserved his harshest words for his former protege. With 20% votes polled in 2013 and 11% in 2014, JD(S) will matter even more in a “wave-less” election.


 TELEGRAPH

HERE COMES DOOMSDAY

“Journalism,” in the view of an American author, “is the protection between people and any sort of totalitarian rule.” This belief is, by no means, misplaced. Across the free world as well as the not-so-free domains, the institution of journalism and its practitioners continue to be looked upon as votaries of freedom of expression and critical thinking. It seems that this ability – indeed responsibility – to ask uncomfortable questions does not go down well with the architects of New India. The prime minister, who had mocked his predecessor for his silence, is known to avoid the media like the plague. Why would Narendra Modi deign to give his time to a kind that, in his personal opinion, are only interested in masala, a colloquial, vernacular expression for all that is banal and sensational? Mr Modi’s colleagues, as if on cue, remain untiring in their efforts to deride the fourth estate. Pejorative expressions – ‘presstitute’ -have been coined by an imaginative Union minister for pesky journalists. Now, while speaking at a valedictory session at the Indian Institute of Mass Communication, ironically a few days before World Press Freedom Day, the information and broadcasting minister, Smriti Irani, thundered that the digital media has sounded the death knell for the ‘journalist’ and the ‘editor’ who, thus far, were seen to have the last word on any matter.

Ms Irani’s reasoning is illuminating. She seems to view the media as a mirror image of the authoritarian party that she serves. Ms Irani needs to be reminded that the ‘last word’ has never been the editor’s or the journalist’s: it belongs to the reader. The media, just like democracy, only serve as a platform to disseminate diverse opinion and information. But then the comprehension of the principle of diversity – some would even add democracy – is not the Bharatiya Janata Party’s strength. Ms Irani is hoping that the digital media would act as a counterweight to the traditional variants of print and broadcasting. This is equally puzzling. For some digital agencies – news portals, e-zines, websites – are also run by journalists committed to upholding the truth. Why else would the BJP be repeatedly accused of trying to stifle the voices of journalists from the old and new media alike? Perhaps Ms Irani has confused the digital media with the BJP’s digital army. These loyal foot soldiers, also known as trolls, serve their master’s voice by disseminating falsities with an eye to incitement.

Elected governments have had fractious ties with the media. The Congress had used the loathed Emergency to tame journalists. But the BJP does things differently. Tacit coercion is being combined with sustained diatribes to undermine the media’s credibility in the public eye. India’s decline in the World Press Freedom Index rankings is not a mere coincidence.

This is not to suggest that the Indian media are flawless or above scrutiny. But there exist regulatory institutions and legislations to ensure that the media do its job. The erosion in the government’s relationship with the pillars that uphold a democracy – the judiciary and the media are among them – is apparent. Can the present strain be explained by the fact that the media, much to Ms Irani’s chagrin, remains a bulwark against tyranny?