आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 23 अप्रैल, 2018

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नवभारत टाइम्स

बीमारी और इलाज

कांग्रेस की अगुआई में सात राजनीतिक दलों ने राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को नोटिस देकर देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) दीपक मिश्रा को हटाने की कार्यवाही अपनी तरफ से शुरू कर दी। अपीलीय अदालतों के अलग-अलग जजों को हटाने के मकसद से यह प्रक्रिया अभी तक छह बार शुरू करवाई गई है, लेकिन मुकाम तक यह कभी नहीं पहुंची है। अलबत्ता प्रक्रिया शुरू होने के बाद दो जजों ने इस्तीफा देकर इस प्रक्रिया को बंद जरूर करवाया है। देश के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इस प्रावधान का इस्तेमाल करने की नौबत अभी तक नहीं आई थी, वह भी इस बार आ गई। इस लिहाज से देश की न्याय व्यवस्था के लिए यह समय अभूतपूर्व बदनामी का है। विपक्ष द्वारा लगाए गए पांच आरोपों में दो ऐसे हैं जो मुख्य न्यायाधीश के अतीत से जुड़े हैं। एक तो उस दौर से, जब चीफ जस्टिस तो क्या वह जज भी नहीं थे। इन बिंदुओं पर आज बात करने का आशय गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा ही लिया जाएगा। कोई यह भी कह सकता है कि ये आरोप अगर इतने ही गंभीर थे तो उन पर पहले ध्यान क्यों नहीं दिया गया/ लेकिन हां, आरोप पत्र में निश्चय ही कुछ बिंदु ऐसे भी हैं जो बतौर सीजेआई दीपक मिश्रा के काम करने के ढंग से सीधे तौर पर जुड़े हैं। इनके बारे में लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है, पर इनकी अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, किस तरह के केस किन-किन खास बेंचों को सौंपे जा रहे हैं, इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के अंदर सीनियर जजों के बीच संवादहीनता और अविश्वास इस हद तक बढ़ गया कि उनमें से चार ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके देश के सामने इस विषय में अपनी नाराजगी जाहिर की। यह ऐतिहासिक घटना इस अंदेशे को सही साबित करने के लिए काफी है कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा। इस बिंदु पर आकर यह सवाल भी लाजमी हो जाता है कि क्या मौजूदा सीजेआई को हटा देने से देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था में नजर आ रही समस्याएं दूर हो जाएंगी/ कल को नए मुख्य न्यायाधीश ने भी बेंचों को मुकदमों के बंटवारे के मामले में ठीक वही रवैया अपनाया तो यही इलाज क्या उसके साथ भी दोहराया जाएगा/ जाहिर है, कुछ समय तक देश के मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने वाले व्यक्ति का रहना या जाना उतनी बड़ी बात नहीं, जितनी सुप्रीम कोर्ट की साख बची रहना और इसके आड़े आने वाली गलतियों को ठीक किया जाना है। विपक्ष ने मौजूदा सीजेआई के खिलाफ जो प्रक्रिया शुरू की है, उसका हश्र चाहे जो भी हो, पर इस बड़े काम में उससे कोई मदद नहीं मिलनी। सुप्रीम कोर्ट की भीतरी कार्यप्रणाली को दुरुस्त करने का काम सरकार या विपक्ष की दखलंदाजी से नहीं, अंतत: न्यायमूर्तियों की आपसी समझदारी से ही हो पाएगा।


जनसत्ता

अपराध और दंड

आखिरकार बाल यौन उत्पीड़न संरक्षण कानून यानी पॉक्सो में संशोधन संबंधी अध्यादेश को केंद्रीय मंत्रिमंडल और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। अब बारह साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वालों को मौत की सजा का प्रावधान किया जा सकेगा। पिछले दिनों उन्नाव, कठुआ और सूरत आदि में नाबालिग बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाएं सामने आईं, तो देश भर से मांग उठी कि पॉक्सो कानून में बदलाव कर नाबालिगों के साथ बलात्कार मामले में फांसी का प्रावधान किया जाना चाहिए। ऐसे मामलों की जांच और निपटारा शीघ्र होना चाहिए। इन मांगों के मद्देनजर सरकार ने पॉक्सो कानून में बदलाव संबंधी अध्यादेश तैयार किया, जिसमें पहले से तय न्यूनतम सजाओं को बढ़ा कर मौत की सजा तक कर दिया गया है। ऐसे मामलों के निपटारे के लिए त्वरित अदालतों का गठन होगा और जांच को अनिवार्य रूप से दो महीने और अपील को छह महीने में निपटाना होगा।

सरकार के इस कदम से निस्संदेह बहुत सारे लोगों में भरोसा बना है कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वालों के मन में कुछ भय पैदा होगा और ऐसे अपराधों की दर में कमी आएगी। मगर कई विशेषज्ञ मौत की सजा को बलात्कार जैसी प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए पर्याप्त नहीं मानते। उनका मानना है कि चूंकि ऐसे ज्यादातर मामलों में दोषी आसपास के लोग होते हैं, इसलिए उनकी शिकायतों की दर कम हो सकती है। पहले ही ऐसे अपराधों में सजा की दर बहुत कम है। इसकी बड़ी वजह मामलों की निष्पक्ष जांच न हो पाना, गवाहों को डरा-धमका या बरगला कर बयान बदलने के लिए तैयार कर लिया जाना है। यह अकारण नहीं है कि जिन मामलों में रसूख वाले लोग आरोपी होते हैं, उनमें सजा की दर लगभग न के बराबर है। उन्नाव और कठुआ मामले में जिस तरह आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस और सत्ता पक्ष के लोग खुलेआम सामने आ खड़े हुए, वह इस बात का प्रमाण है कि कानून में चाहे जितने कड़े प्रावधान हों, रसूख वाले लोग जांच को प्रभावित करने में कामयाब हो जाते हैं। इसलिए स्वाभाविक ही मौत की सजा जैसे कड़े प्रावधानों के बावजूद कुछ लोग संतुष्ट नहीं हैं। वैसे भी हमारे यहां मौत की सजा बहुत अपरिहार्य स्थितियों में सुनाई जाती है, क्योंकि ऐसी सजा से किसी आपराधिक प्रवृत्ति में बदलाव का दावा नहीं किया जा सकता।

निर्भया कांड के बाद बलात्कार मामलों में सजा के कड़े प्रावधान की मांग उठी थी। तब पॉक्सो कानून में जो प्रावधान किए गए, वे कम कड़े नहीं हैं। उसमें भी ताउम्र या मौत तक कारावास का प्रावधान है। पर उसका कोई असर नजर नहीं आया है। उसके बाद बलात्कार और पीड़िता की हत्या की दर लगातार बढ़ी है। इसकी बड़ी वजह अपराधियों के मन में कहीं न कहीं यह भरोसा है कि ऐसे मामलों की जांचों को प्रभावित और तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करके आसानी से बचा जा सकता है। ऐसे में त्वरित अदालतों के गठन से जल्दी न्याय मिलने की उम्मीद तो जगी है, पर जांचों को निष्पक्ष बनाने के लिए कुछ और व्यावहारिक कदम उठाने की जरूरत अब भी बनी हुई है। ऐसे मामलों की शिकायत दर्ज करने और जांचों आदि में जब तक प्रशासन का रवैया जाति, समुदाय आदि के पूर्वाग्रहों और रसूखदार लोगों के प्रभाव से मुक्त नहीं होगा, बलात्कार जैसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए मौत की सजा का प्रावधान पर्याप्त नहीं होगा।


 हिंदुस्तान

पक्षियों के गीत

किस्से-कहानियों में अक्सर कहा जाता है कि इंसान ने गीत और संगीत पक्षियों से सीखा। यह बात पता नहीं कितनी सही है, पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आदिकाल से पक्षियों के गीत इंसान के कानों में मधुर संगीत घोलते आए हैं। किसी जंगल को, किसी बाग को, किसी पहाड़ को, किसी खुली आबोहवा को पेड़-पौधों की वजह से उतना नहीं जानते, जितना कि पक्षियों की आवाज की वजह से जानते हैं। लेकिन पक्षियों के ये गीत अब कई कारणों से कम हो रहे हैं। बहुत घनी बसी कंक्रीट की मानव बस्तियों में जहां पेड़-पौधे नहीं हैं, वहां पक्षियों को बसेरे के लिए जगह नहीं मिलती, जिसकी वजह से पक्षियों के गीत हमारे जीवन से कम होते जा रहे हैं। जो थोड़े-बहुत गाने वाले पक्षी शहरों में या उसके आस-पास हैं भी, तो उनकी आवाज शहर के कोलाहल में दब जाती है। एक्सटर विश्वविद्यालय और ब्रिटिश ट्रस्ट ऑफ ओरिंथोलॉजी ने अपने शोध में पाया है कि घने बसे शहरों में गाने वाले पक्षी कम हो जाते हैं और वे बच जाते हैं, जो हमारे लिए सिरदर्द होते हैं। जैसे कि कबूतर। इस शोध में जब मानव आबादी और पक्षियों की गणना का आकलन किया गया, तो पता पड़ा कि जहां आबादी और पक्षी का अनुपात 1.1 या उससे ज्यादा होता है, वहां गाने वाले पक्षी काफी पाए जाते हैं। लेकिन जहां पक्षियों का अनुपात प्रति व्यक्ति 0.4 या उससे भी कम हो जाता है, वहां गाने वाले पक्षी गायब हो जाते हैं और सिर्फ वही पक्षी बचते हैं, जो हमारे लिए तरह-तरह से मुश्किलें पैदा करते हैं।

यह शोध बताता है कि हम अपनी बस्तियों को कंक्रीट के जंगल में बदलते हैं, तो पक्षियों से ही नहीं, खुद इंसान से भी उसका अनुकूल वातावरण छीन लेते हैं। शोध में यह भी पता पड़ा कि जहां हरे-भरे और फलदार पेड़-पौधों की भरमार होती है, वहां गाने वाले और कठफोड़वा जैसे पेड़ों पर निर्भर रहने वाले पक्षी साढ़े तीन गुना तक ज्यादा हो सकते हैं। इसे हम दिल्ली जैसे शहर के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। दिल्ली की घनी बस्तियों में रहने वाले पक्षी देखने तक को तरस जाते हैं, जबकि लोधी गार्डन जैसे क्षेत्र में हर तरह के पक्षी आज भी मौजूद हैं। घनी बस्तियों में पक्षियों के कम होने का कारण वहां का प्रदूषण और गरमी भी हो सकते हैं।

यहां एक और अध्ययन का जिक्र जरूरी है। हालांकि यह अध्ययन पक्षियों के बारे में नहीं, पशुओं के बारे में है। फ्रांस के अध्ययनकर्ताओं ने प्लास बॉयोलॉजी  नाम की पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशिक किया है। उन्होंने पाया कि वे सारे पशु, जो बहुत लोकप्रिय हैं, जैसेहाथी, शेर, बाघ, पांडा, जिराफ वगैरह की संख्या दुनिया में बहुत तेजी से कम हो रही है। ये वे पशु हैं, जिन्हें पशु जगत के प्रतिनिधि के तौर पर पेश किया जाता है। उनकी तस्वीरें छपती हैं और उनके खिलौने बेचे जाते हैं। अफ्रीका में जितने जिराफ हैं, उससे आठ गुना ज्यादा उसके खिलौने बिकते हैं। अध्ययन में इस बात का खुलासा नहीं किया गया कि इन पशुओं की संख्या कम होने का कारण उनकी परिस्थितियां हैं या उनकी लोकप्रियता, या अन्य कोई कारण। अब अगर हम पक्षियों को देखें, तो गाने वाले पक्षी, जैसे कोयल, बुलबुल, तोता, गौरैया और अति सुंदर पक्षी, जैसे मोर सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं, लेकिन यही वे पक्षी हैं, जो कम हो रहे हैं। कारण चाहे जो भी हो, वे पशु और पक्षी कम हो रहे हैं, जिनसे हम जीव-जगत को पहचानते हैं।


अमर उजाला                 

जघन्य अपराध, सख्त सजा

कठुआ और उन्नाव की घटनाओं पर व्याप्त रोष तथा उसके बाद भी सूरत, इंदौर व एटा में बच्चियों से दरिंदगी के मामलों को देखते हुए केंद्रीय कैबिनेट को पॉक्सो ऐक्ट में परिवर्तन से जुड़ेआपराधिक कानून में बदलाव को मंजूरी से संबंधित अध्यादेश जारी करना पड़ा है, तो इसे समझा जा सकता है। इसमें बच्चियों से दुष्कर्म पर न्यूनतम बीस साल और अधिकतम फांसी की सजा का प्रावधान किया गया है, तो बलात्कार की न्यूनतम सजा दस साल की गई है। इसके अलावा फास्ट ट्रैक अदालत में बलात्कार के मामलों की जांच और ट्रायल चार महीने में तथा अपील का निपटारा छह महीने में करना होगा। यह अध्यादेश कानून का रूप लेता है, तो नाबालिग से बलात्कार

करने वाले को अग्रिम जमानत नहीं मिलेगी। अध्यादेश में अभियोजकों के नए पद सृजित करने, सभी थानों और अस्पतालों को विशेष फॉरेंसिक किट दिए जाने और राज्यों में जांच के लिए अलग फॉरेंसिक लैब का गठन करने का भी प्रावधान है। बच्चियों से दुष्कर्म पर कठोर सजा के प्रावधान का मतलब बलात्कारियों के बीच सख्त दंड का भय पैदा करना ही है। लेकिन सिर्फ कठोर सजा से बलात्कार के मामलों में कमी नहीं आएगी। निर्भया मामले के बाद यौन अपराधों में कठोर दंड के प्रावधान किए गए, लेकिन उससे बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आई। विगत तीन साल में ही बच्चियों से दुराचार के मामले चार गुना बढ़ गए हैं। जबकि चार में से एक ही आरोपी को सजा हुई है। हमारे यहां दुष्कर्म के मामलों में सजा का प्रतिशत बहुत कम है। बच्चियों से बलात्कार के अनेक मामले तो दर्ज ही नहीं होते, क्योंकि उनमें परिजनों और परिचितों का ही हाथ होता है। आशंका जताई जा रही है कि फांसी की सजा के डर से बलात्कार के मामले दर्ज कराने में और कमी आ सकती है। लिहाजा नए परिदृश्य में पुलिस और अदालत को अधिक सक्रिय होना होगा, ट्रायल तेजी से हो, इसका ध्यान रखना होगा और फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के साथसाथ जजों की संख्या भी बढ़ानी होगी। इसके अलावा समाज में महिलाओं के प्रति सोच बदलने की भी जरूरत है। जिस समाज में जिम्मेदार पदों पर आसीन लोग यौन अपराधों पर जब-तब संवेदनहीन टिप्पणियां करते पाए जाते हैं, वहां यह काम कठिन तो है, लेकिन सख्त कानून के साथ-साथ नजरिया बदले, तभी सकारात्मक बदलाव संभव है।


राजस्थान पत्रिका

त्वरित न्याय की उम्मीद

बारह साल से छोटे बच्चों से दुष्कर्म के दोषियों को अब अL मृत्यु दंड मिलेगा। राष्ट्रपति ने क्रिमिनल लॉ (संशोधन) अध्यादेश 2018 को मंजूरी दे दी है। अब दुष्कर्मियों को कम से कम दस साल और अधिकतम मौत की सजा दी जा सकेगी। अग्रिम जमानत भी नहीं मिलेगी। सरकार को इस अध्यादेश को कानूनी शक्ल देने के लिए छह माह में संसद की मंजूरी लेनी होगी। कठुआ और उन्नाव की घटनाओं के बाद जनाक्रोश के दबाव में लाया केन्द्र का अध्यादेश कितना प्रभावी होगा? आम आदमी ही नहीं विधिवेत्ता भी संशय में हैं। चार राज्य मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश में इस तरह का विधेयक विधानसभा में पास हो चुका है। राजस्थान का विधेयक तो राष्ट्रपति के पास डेढ़ माह से मंजूरी को पड़ा है। कड़ा कानून तो दिल्ली के निर्भया कांड के बाद भी बना था लेकिन छोटी बच्चियों से सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के मामले बढ़े ही हैं। 2016 में देश में 64,138 बच्चियों से रेप हुआ। लेकिन सजा मात्र तीन फीसदी दोषियों को ही मिल पाई। कानून की पेचीदगियों और अपील दर अपील की सुविधा पीड़ितों को ना सिर्फ न्याय से वंचित करती है, सारी जिंदगी भय और कुंठा में जीने पर मजबूर कर देती है। ऐसे मामलों में न्यायालयों में भी समयबद्ध फैसले आएं और दया याचिकाएं भी तुरंत निपटाई जाएं तो अपराधियों में भय पैदा होगा। राजनीति भी बंद होनी चाहिए। कठुआ हो या उन्नाव या इंदौर या देश का कोई अन्य राज्य। दोषियों के पक्ष में पार्टियां ढाल बनकर खड़ी हो जाती हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ भी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। राजनेताओं को भी संयम रखना होगा। केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार का बयान कि भारत जैसे बड़े देश में एक-दो दुष्कर्म मामलों को लेकर बवाल नहीं मचाना चाहिए, सावित करता है कि हमारे माननीय ऐसी घटनाओं के प्रति कितने गंभीर हैं। क्या ऐसे बयान कानून की अवहेलना के दायरे में नहीं आने चाहिए? दुष्कर्म के ज्यादातर मामले निचले तबके में हो रहे हैं। गरीबी, नशाखोरी आदमी को वहशी बना रही है। केन्द्र ने दबाव में ही सही अध्यादेश जारी कर दिया है। अब देखना यह है कि इसका कितना प्रभावी क्रियान्वयन होता है।


दैनिक जागरण

रिश्ते सुधारने का मौका

रिश्ते सुधारने का मौका1शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के पहले भारतीय प्रधानमंत्री के चीन जाने की घोषणा इस बात का परिचायक है कि दोनों देश संबंधों में सुधार के लिए इच्छुक हैं। वैसे तो भारतीय प्रधानमंत्री को आगामी जून में इस संगठन की बैठक में हिस्सा लेने के लिए चीन जाना था, लेकिन अब वह इसी माह के अंत में दो दिन के लिए वहां पहुंच रहे हैं। इस दौरान उनका एकमात्र एजेंडा चीनी राष्ट्रपति के साथ मुलाकात कर मतभेदों को दूर करना और सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा। अच्छी बात यह है कि चीन यह प्रतिबद्धता जता रहा है कि वह भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्र को सफल बनाने के हरसंभव प्रयास करेगा। यह तो दोनों देशों के नेताओं की बैठक के बाद ही पता चलेगा कि संबंध सुधार की पहल कितनी आगे बढ़ी, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि चीन ने भारतीय प्रधानमंत्री को तय कार्यक्रम के पहले अपने देश बुलाना बेहतर समझा। भारत और चीन के रिश्ते में खटास किसी से छिपी नहीं है। पिछले वर्ष डोकलाम में दोनों देशों की सेनाएं जिस तरह आमने-सामने आ खड़ी हुई थीं उससे पूरी दुनिया में इन दो एशियाई देशों के बीच सैन्य टकराव की आशंका फैल गई थी। यह अच्छा हुआ कि पहले चीन ने डोकलाम में अपने कदम पीछे खींच कर भारत की चिंताओं को समझने के संकेत दिए और फिर भारत ने तिब्बत धर्मगुरु दलाई लामा के भारत आगमन के सिलसिले में आयोजित समारोहों में अपनी भागीदारी सीमित करके यह संदेश दिया कि वह भी चीन की चिंताओं की परवाह करता है। 1यह भी स्पष्ट है कि दोनों देशों के बीच कई ऐसे मसले हैं जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर सुलझाए जाने की आवश्यकता है। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि दशकों पुराना सीमा विवाद जहां का तहां अटका हुआ है और उसे सुलझाए बगैर चीन पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय भूभाग से आर्थिक गलियारा बनाने में जुट गया है। यह सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है। ऐसा लगता है कि अब चीन को यह अहसास हो गया है कि वह इस गलियारे के मामले में भारत की आपत्तियों का समाधान किए बगैर आगे नहीं बढ़ सकता। अच्छा यह होगा कि वह इस बात को भी समङो कि वह भारत की प्रगति की राह का रोड़ा बनकर संबंधों में सुधार नहीं ला सकता। बात चाहे नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता में अड़ंगा लगाने की हो अथवा भारत के लिए खतरा बने उन आतंकी सरगनाओं को कवच देने की हो जो पाकिस्तान में संरक्षित हैं, चीन को यह समझने की जरूरत है कि वह भारत के प्रति एक तरह से शत्रुतापूर्ण भाव को ही प्रकट कर रहा है। चीनी नेतृत्व को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि आज भारत को चीन की जितनी जरूरत है उससे कहीं अधिक जरूरत उसे भारत की है और इसकी पूर्ति तभी हो सकती है जब दोनों देश एक-दूसरे की वाजिब चिंताओं को न केवल समङोंगे, बल्कि उनका समाधान भी करेंगे। चीन को यह समझ आ जाना चाहिए कि वह भारत से उस तरह से व्यवहार नहीं कर सकता जैसे कि वह अपने कई छोटे पड़ोसी देशों के साथ करने में लगा हुआ है।


प्रभात खबर

और सुधार जरुरी

बच्चियों के साथ दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं पर क्रुद्ध और क्षुब्ध राष्ट्र की भावनाओं के अनुरूप केंद्र सरकार ने अहम कानूनी सुधारों का फैसला लिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की विशेष बैठक में 12 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा तथा महिलाओं और 16 से कम उम्र की किशोरियों से दुष्कर्म के अपराधियों को अधिकतम दंड के प्रावधान को मंजूरी दी गयी है, नये कानूनी सुधार में पुलिस को ऐसे मामलों की जांच दो महीने के भीतर और अदालती निबटारा छह महीने के भीतर करने का भी प्रावधान शामिल है. वर्ष 2012 के निर्भया मामले के बाद न्यायाधीश जेएस वर्मा की अगुवाई में बनी समिति के सुझावों के आधार पर कुछ खास सुधार हुए थे, जिनमें बलात्कार के मामलों की त्वरित सुनवाई करना प्रमुख था, लेकिन बलात्कार की घटनाओं की बड़ी संख्या को निबटाने में हमारा तंत्र कामयाब न हुआ. वर्ष 2016 में करीब अपराध के लिए दंड 40 हजार मामले दर्ज हुए थे, जिनमें से 40 सुनिश्चित करना जरूरी फीसदी पीड़िता बच्चियां थीं. आंकड़े बताते हैं। है, पर यह प्रयास भी कि उस साल सुनवाई के लिए लाये गये बच्चों हो कि अपराध और

से संबंधित मामलों में से मात्र 28.2 फीसदी में ही दोषियों को सजा हो सकी थी. जांच करने अपराधी को शह और अदालत के सामने आरोपियों की पेशी का देनेवाली स्थितियों को। जिम्मा पुलिस को है, देशभर में पुलिसकर्मियों बदला जाये.

के लगभग पांच लाख पद खाली हैं. सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भी भर्ती की गति बहुत धीमी है, अनेक जानकारों की राय है कि पुलिस प्रणाली में निगरानी और जांच के लिए अलग-अलग विभाग बनाये जाने चाहिए. अदालतों को भी अधिक जजों और संसाधनों की दरकार है, देश की विभिन्न अदालतों में 16 लाख से अधिक ऐसे मामले हैं, जो 10 साल से अधिक समय से लंबित है, जिला अदालतों में चल रहे मुकदमों में से आधे दो सालों से ज्यादा वक्त से चल रहे हैं, पुलिस और न्यायिक प्रणाली में समुचित सुधार के बिना त्वरित सुनवाई की मंशा हकीकत नहीं बन सकती हैं, सिर्फ तुरंत जांच और मुकदमा पूरी करने पर ही जोर देने की कोशिश में न्याय के आदर्शों के साथ उसकी व्यावहारिकता की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध होनेवाले अपराधों को केवल कानून एवं व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखा सकता है, समाज और राजनीति की चेतना एवं संवेदना के अभाव पर भी ध्यान देना आवश्यक है, बलात्कारी कहीं और से नहीं आते, इसी समाज में पैदा होते हैं. इस संदर्भ में एक सच यह भी है कि बलात्कार के मामलों के अधिकतर आरोपी पीड़िता के परिचित, रिश्तेदार या सहकर्मी होते हैं, पूर्वाग्रहों के कारण अनेक मामलों की शिकायत भी नहीं होती. इस स्थिति में बदलाव के लिए व्यापक जागरूकता पैदा करने की मुहिम चलायी जानी चाहिए.


देशबन्धु

कानून में बदलाव से क्या बदलेगा?

बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बने पाक्सो कानून में मोदी सरकार ने बड़ा बदलाव किया है। अब तक इस कानून में बच्चों से बलात्कार की अधिकतम सजा उम्रकैद थी और न्यूनतम सात साल की कैद थी। लेकिन अब 12 साल तक की बच्ची से रेप के दोषियों को मौत की सजा दिए जाने का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा रेप के मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट टै्रक कोर्ट बनाए जाने और जांच के लिए पुलिस की विशेष टीम गठित किए जाने का फैसला भी केबिनेट में लिया गया है।

मोदी सरकार के इस निर्णय के बाद दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने अपना अनशन खत्म कर दिया है। बच्चियों से रेप के अपराधियों को फांसी की सजा की मांग पर ही स्वाति अनशन पर बैठी थीं। दरअसल जनवरी में हुए कठुआ कांड की खबर जैसे-जैसे देश में फैली, लोगों में गुस्सा भड़कता गया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इंडिया गेट पर क ैंडल मार्च निकाला था और इसमें भारी संख्या में लोग शामिल हुए थे। कठुआ के बाद सूरत, इंदौर से भी बच्चियों के साथ यौन क्रूरता की खबरें आईं। इससे पहले उन्नाव रेप केस में आरोपी विधायक को काफी जद्दोजहद के बाद गिरफ्तार किया गया था।

प्रधानमंत्री मोदी ने इन तमाम घटनाओं पर तुरंत कोई खेद या दुख नहीं जताया और जब देश के संवेदनशील तबके ने ऐसी घटनाओं पर खुलकर गुस्सा प्रकट करना शुरु किया, तो उन्होंने पहले भारत में और फिर ब्रिटेन में रेप की घटनाओं पर दुख व्यक्त किया। इसके बाद भी बलात्कारियों को कड़ी सजा देने की मांग जारी रही तो अब पाक्सो एक्ट में बदलाव किया गया है। इस पूरे घटनाक्रम का देखें तो एक बात साफ नजर आएगी कि जब आग लगी, तब कुआं खोदने का काम शुरु किया गया, हालांकि अभी ये पता नहीं है कि कुएं में पानी मिलेगा या नहीं। अगर अनशन, कैंडल मार्च, ट्विटर-फेसबुक पर सरकार विरोधी टिप्पणियां नहीं होतीं, भाजपा की साख महिला विरोधी नहीं बनी होती, तो क्या केेंद्र सरकार कानून बदलने पर विचार करती?

शायद नहीं, क्योंकि दुधमुंही बच्चियों से लेकर बड़ी-बूढ़ी महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा इस देश में आम बात हो चुकी है। और इसका एक बड़ा कारण समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा है, खेद है कि सरकार भी उसी ढांचे में ढली हुई है। इसका एक बड़ा प्रमाण कई मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की महिला विरोधी टिप्पणियां हैं। महिलाओं पर अत्याचार के खिलाफ सरकारें तभी जागती हैं, जब खुद उनकी साख संकट में हो।

निर्भया के बाद यूपीए सरकार ने कानून में और सख्ती की थी। बलात्कार उसके बाद भी नहीं थमे और अब कठुआ के बाद एनडीए सरकार ने फांसी का प्रावधान किया है, और अब भी कोई गारंटी नहीं है कि इसके बाद यौन अपराधों में कोई कमी आएगी। छोटे बच्चों के साथ बलात्कार का सबसे गंभीर पहलू यह है कि इसमें अक्सर जान-पहचान के लोगों का ही हाथ होता है। ऐसे में फांसी की सजा का प्रावधान होने से इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि बलात्कार की शिकायत पुलिस तक न पहुंचे। अपराधी जान-पहचान या रिश्तेदारी में होगा, तो मुमकिन है उसे फांसी से बचाने के लिए अपराध की बात को वहीं दबा दिया जाए।

बच्चा तो इतना सक्षम होगा नहीं कि खुद से कानूनी कार्रवाई के लिए आगे बढ़े और महिलाओं की जो दोयम स्थिति परिवार-समाज में होती है, उन्हें भी दबाव डालकर चुप रहने के लिए विवश किया जा सकता है। इसलिए बलात्कारी के लिए फांसी की सजा का कड़ा नियम बनाने से जरूरी काम यह है कि समाज में सुधार लाया जाए। लैंगिक समानता, शिक्षा, आत्मरक्षा इन सबके लिए समाज में जागरूकता लाई जाए। और सबसे बड़ी बात बलात्कार जैसे घिनौने अपराध को राजनीति के चश्मे से देखना बंद हो। कठुआ-उन्नाव मामले में पूरी दुनिया के 600 से ज्यादा बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, छात्रों और शोधार्थियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ओपन लेटर लिखा है। और केंद्र सरकार को इस जघन्य अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया है। इस पत्र में हस्ताक्षर करने वाले अधिकतर भारतीय हैं, जिन्होंने लिखा है कि बच्चियों से दरिंदगी के चलते दुनियाभर में भारतीय होने के नाते हमारा सिर शर्म से झुक रहा है। क्या प्रधानमंत्री मोदी कभी इन लोगों के साथ भारत की बात करेंगे?


Indian Express

Reaching out

Prime Minister Narendra Modi’s journey to Sweden, London and Berlin last week showcased India’s growing external opportunities. The Modi government’s continuing foreign policy innovation is reflected in the launch of a new forum, the Nordic Five, and revival of an old one, the Commonwealth. The visit by an Indian PM to Stockholm after nearly three decades provided an occasion to collectively engage with the five Nordic countries — Denmark, Finland, Iceland, Norway and Sweden. With a combined population of barely 27 million, the Nordic Five have the world’s 11th largest GDP. Despite much goodwill for India and a remarkable back story of engagement with these countries, the Nordic group had simply fallen off India’s political radar.

The rediscovery of the Nordics is part of the PM’s more intensive outreach to Europe over the last year and more. It is underlined by the last-minute addition of Berlin to Modi’s itinerary. Europe’s economic depth, shared political values and its eagerness for stronger political ties with Delhi amidst the rise of China, assertion of Russia and growing uncertainty about America’s future are opening up new possibilities for Indian foreign policy. If Stockholm and Berlin are about India drilling deeper into Europe, the PM’s visit to London was about Brexit — the United Kingdom’s breakup with the old continent. As Britain repositions itself in the world, it is looking to revitalise the Commonwealth and deepen ties with India. Modi’s Delhi reversed the traditional Indian disdain for the Commonwealth as a colonial relic. The PM sees the Commonwealth as a ready-made forum for India’s outreach to the three-score small island states in the 53-member Commonwealth. In London, Modi and British Prime Minister Theresa May agreed to relaunch the Commonwealth and recast the bilateral relationship around the theme of expanding technological cooperation.


 Times Of India

Alarming Precedent

The removal motion moved by Rajya Sabha MPs belonging to seven opposition parties against Chief Justice of India Dipak Misra marks a dangerous new low for the body politic. It sinks the bar for a measure that requires utmost circumspection, maximum consensus and unimpeachable evidence. For decades after the Indira Gandhi regime’s quest for a “committed judiciary” politicians have largely left Supreme Court to its own devices, though heartburn over judges appointing judges has persisted. On the few earlier occasions parliamentarians petitioned to remove judges, this was based on specific corruption allegations with documentary evidence. This time is different.

The bunch of allegations in the opposition petition is a dead giveaway, of a fishing expedition to make at least one charge stick if the others fail. Even the main charges contain surmises articulated through “may have been”, “likely to fall” and “appears to have”. The danger of such a cavalier precedent in a hyper partisan environment, is that political parties could make a habit of using the removal motion to intimidate judges – which would weaken the institution no less than cooption by government. “The blackest possible day,” is how jurist Fali Nariman has therefore responded to the motion. Of course this is precisely why the bar on removing judges was set deliberately high, to safeguard the judicial independence that steadfastly protects the Constitution of India from executive overreach.

Even within Congress, which has led the opposition motion, strong objections have been raised against it. Former law minister Salman Khurshid’s view that “impeachment is too serious to be played with on grounds of disagreement with any judgment or with any point of view of the court” is noteworthy. Even former Prime Minister Manmohan Singh, a Rajya Sabha MP, is not among the signees, perhaps for these same reasons.

It is also true that the Supreme Court is passing through troubled times. But the Indian judiciary has time and again shown itself resilient enough for self-correction. Today several reforms are needed and CJI Misra needs to carry all his judges along in these reforms, including increasing transparency in the allocation of benches and expediting the stalled judicial appointment process. But the solution to a problem should not end up worsening it. This is why Rajya Sabha chairman Venkaiah Naidu should reject the removal motion, which in any case has little chance of passing in Parliament.


 New Indian Express

Boys Ignore In This Knee Jerk Ordinance

As a nation is shocked at the brutal rape and murder of an 8-year-old girl in Kathua, and as more rapes of minors are reported, the Centre, in a knee-jerk reaction, has decided that an ordinance to put capital punishment on the table for rapes of girls younger than 12 is the way to appease public anger. The ordinance amends the Criminal Law (Amendment) Act, 2013, Protection of Children from Sexual Offences Act (POCSO) and the Evidence Act primarily to increase maximum sentences—include the death penalty—to convicted persons.

There are three problems here. First, as the Centre has itself argued in the past, the death penalty is not a solution to everything. Leaving aside questions on the morality of capital punishment, there is little evidence that death sentence is a deterrent. Activists say possibility of a death sentence is only likely to endanger the life of the rape victim. More importantly, when it comes to sexual assault against minors, most offenders are known to the child. This often includes family members; it is one of the reasons why child sexual abuse is so rarely reported. Now, with the death sentence as a possible outcome, reporting will only become harder and more traumatic for the child and her family.

Second, it does not address real issues plaguing the system when it comes to gender-based violence. At every step—from reporting to conviction—the system is weighted against justice. The conviction rate for POCSO cases that went to court is under 30 per cent says the 2016 crime data.

Third, by amending POCSO, that recognised both boys and girls could be sexually assaulted, to include death as a punishment for rapists of girls under 12, the ordinance creates a false, and dangerous hierarchy of violence, with rape of girls being treated as more severe than that of boys. A 2007 government study showed more boys reported sexual violence than girls. The ordinance dilutes the spirit of POCSO, that for all its shortcomings, sought to protect all children from sexual assault, regardless of their gender.


The Telegraph

Mirror Image
The image of India and its leaders in the eyes of the world has changed – for the worse. This was articulated by the Bombay High Court, which reportedly observed that the dominant ideas about India among the international community involve “crime and rape”. The high court is not off the mark; the rape and murder of an eight-year-old girl in Kathua sent so many shockwaves through the global community that the International Monetary Fund chief, Christine Lagarde, asked the prime minister, Narendra Modi, to pay greater heed to keeping women in his country safe. It is already shameful that the leader of India drew censure from the head of an international organization for his prolonged silence and inaction. Now, a report by the Association of Democratic Reforms has bolstered the stand taken by the high court and Ms Lagarde: its analysis of the election affidavits of current parliamentarians and members of legislative assemblies shows that at least 48 lawmakers are accused of crimes against women, with the highest number belonging to the ruling Bharatiya Janata Party. This, with the abysmal rate of rape convictions in the country, indicates that India’s international image mirrors its ground realities to a frightening extent.

For any government, the nation’s global reputation is supposed to be of great importance. It informs bilateral relations, tourism and foreign policy, all of which lawmakers are expected to care about. It even affects how Indians are treated abroad. The recent findings, however, show that policymakers care little about the world’s opinion, and even less about the opinions of their own people. This is reflected in the apathy with which they handle legislation related to women’s empowerment – the women’s reservation bill has been stuck in Parliament for 22 years – and the impunity with which they commit, and often defend, sexual assault. It does not help that, at present, it is still legal for convicted rapists to form and head political parties in India. There have been vociferous protests against allowing those accused or convicted of corrupt practices to hold positions of power. Would this clamour be extended to include crimes such as rape?

In a hurried reaction to the unspeakable horror of the Kathua case, the Centre has approved an ordinance to amend the Protection of Children from Sexual Offences Act to include the death penalty for the rape of minors below the age of 12. While the efficacy of this move in curbing such crimes in the future can be debated, one thing is for certain. It will deflect attention from the urgent need – for both the State and citizens – to address the utter breakdown of values in a society which allows such crimes to occur, and regularly shields those who commit them. It does not bode well for India that members of the global community think it is a violent place for women and children; it is even more ominous that they are right.