बीजेपी की ज़बान बोलते दिल्ली के आईएएस और उनके ‘समर्पण’ का सच

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सुशील कुमार सिंह

 

दिल्ली की आईएएस एसोसिएशन के पदाधिकारियों का दावा है कि वे हड़ताल पर नहीं हैं और पूरे उत्साह और समर्पण के साथ अपना काम कर रहे हैं। वे न सिर्फ मीटिंगों में जा रहे हैं, बल्कि कई बार तो छुट्टी वाले दिन भी काम करते हैं। उन्होंने दावा किया कि अफसरों का नाम केवल राजनैतिक इस्तेमाल के लिए लिया जा रहा है और कहा कि कृपया हमें काम करने दीजिए, हम काफी डर और परेशानी अनुभव कर रहे हैं।

सवाल है कि वे कौन सा काम करने की इजाजत मांग रहे हैं, जो उपराज्यपाल चाहें वह या जो मुख्यमंत्री या मंत्री कहें वह? असल में आईएएस अफसरों के प्रतिनिधियों ने प्रेस कान्फ्रेंस करके वही सब कहा जो उपराज्यपाल अनिल बैजल, मुख्य सचिव अंशु प्रकाश, दिल्ली के तमाम भाजपा नेता (शायद कांग्रेस के भी), बल्कि कपिल मिश्रा तक पहले से कह रहे थे। एसोसिएशन के लोगों ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसका अंदाज लोगों को पहले से न रहा हो। मीडिया ने उनसे कुछ अलहदा उगलवाने की कोशिश भी नहीं की।

जबकि उनसे साफ साफ कहलवानेका प्रयास होना चाहिए था कि क्या आम आदमी पार्टी के अलावा भी कोई उनका राजनैतिक इस्तेमाल कर रहा है? वे जनहित में मीडिया के सामने आए हैं या केवल अपने बचाव में? और अगर वे महज़ अपना बचाव कर रहे हैं तो क्या वे दिल्ली की मौजूदा राजनीति में पार्टी नहीं बन रहे?

मैं हैरान हूं कि किसी ने यह भी नहीं पूछा कि अगर दिल्ली में आईएएस अफसर पूरे उत्साह और समर्पण से काम कर रहे हैं तो दिल्ली सचिवालय की इमारत पर यह बैनर उन्होंने कैसे लग जाने दिया जिस पर लिखा था कि ‘यहां कोई हड़ताल पर नहीं है, दिल्ली के लोग ड्यूटी पर हैं, दिल्ली का सीएम छुट्टी पर है।’ दिल्ली सचिवालय कीइमारत का तमाम इंतजाम, जहां तक मेरी जानकारी है, जनरल एडमिनिस्ट्रेशन डिपार्टमेंट (जीएडी) के पास है और इस विभाग का प्रमुख एक आईएएस ही है। क्या यह बैनर विभाग की सहमति से लगाया गया? अगर नहीं, तो क्या इसे लगाने वालों पर कोई कार्रवाई की गई?

हमने सुना है कि उपराज्यपाल के निवास में घुस कर धरना देने के मामले में कोई शिकायत पुलिस में दर्ज कराई गई है। क्या सचिवालय पर कब्जा कर लेने वालों के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता? बैनर की जो तस्वीरें सबके सामने हैं उनमें इसे लगाने वाले लोग भी दिख रहे हैं। उनमें ज्यादातर बाहरी लोग हैं। क्या कोई भी सचिवालय में घुस कर किसी भी तरह का बैनर उसकी इमारत पर लटका सकता है, जहां दर्जन भर आईएएस बैठते हैं और इमारत का प्रबंध भी किसी आईएएस के ही हाथ में है? क्या यह कोई सामान्य बात है? क्या ऐसा दूसरे राज्यों के सचिवालयों में संभव है? क्या हमें नॉर्थ ब्लॉक बल्कि साउथ ब्लॉक पर भी किसी दिन कोई राजनैतिक बैनर टंगा देखने के लिए तैयार रहना चाहिए?

मीडिया के लिए यह बहुत मजेदार अवसर था। आईएएस अफसरों से पत्रकारों की दोस्ती हो सकती है। वे उनके सोर्स हो सकते हैं। मगर इन रिश्तों में वे उन्हें ग्रिल नहीं कर सकते। उनकी प्रेस कान्फ्रेंस को मीडिया ने जाया कर दिया। पत्रकार आईएएस एसोसिएशन के प्रतिनिधियों से पूछ सकते थे कि बिजली की दरें बढ़ने न देने से, मोहल्ला क्लीनिकों से, सरकारी स्कूलों की शक्ल बदलने से, टेस्ट और सर्जरी मुफ्त करने से, पब्लिक स्कूलों की बढ़ी फीस वापस कराने जैसे कदमों से क्या वास्तव में लोगों को फायदा हुआ है या केजरीवाल इन्हें यों ही गाते फिरते हैं?

सबसे बड़ी बात यह कि आईएएस अफसरों के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की नौबत ही क्यों आई। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार अपने अंतिम लगभग दो सालों में पूरी तरह सुन्न पड़ गई थी जिसे‘पॉलिसी पैरालिसिस’कहा गया। हर मुद्दे पर ऐसा लग रहा था मानो सरकार वेंटीलेटर पर है। तब कहा जाता था कि अफसर भी सरकार की नहीं सुन रहे। यानी अफसरशाही भी लोगों के लिए विलेन थी। उस दौरान केंद्र सरकार में शामिल आईएएस अफसरों ने यह क्यों नहीं सोचा कि वे आगे आकर मीडिया को बताएं कि हम तो पूरे उत्साह और समर्पण से काम कर रहे हैं?

याद करिये कि कुछ समय पहले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर पर मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ कथित हाथापाई की खबर मिलते ही दिल्ली सचिवालय में काम कर रहे लोग बगावत और मारपीट पर उतर आए थे। तब बार-बार यह बात कही गई थी कि अंशु प्रकाश प्रकरण से अफसरों के आत्मसम्मान को ठेस लगी है।

मैं हैरान हूं कि अशोक खेमका का तीन साल में बयालीस बार तबादला होता है और हरियाणा के आईएएस अफसरों के आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगती। कितने आईएएस और आईपीएस को हमने मायावती के पांव छूते या उनकी चप्पलें उठाते देखा, मगर उत्तर प्रदेश के आईएएस अफसरों का आत्मसम्मान नहीं जागा। मुख्यमंत्री रहते लालू यादव कैबिनेट की बैठक में मुख्य सचिव या कैबिनेट सचिव से कहते थे कि बड़े बाबू, जरा खैनी तो बनाइए। बन जाने पर डीजीपी से कहते कि दरोगा जी, जरा इसको बांट दीजिए। डीजीपी सब मंत्रियों की हथेली पर खैनी बांटते फिरते थे। फिर भी बिहार के आईएएस अफसरों को आत्मसम्मान की फिक्र नहीं हुई। मध्यप्रदेश के एक आईएएस अफसर फेसबुक पर कुछ लिख कर पछता रहे हैं। यहां तक कि किसी आईएएस की हत्या हो जाने पर भी आईएएस ऐसोसिएशन ने शायद ही कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस की हो।

मीडिया को उनसे पूछना चाहिए था कि दिल्ली में इन दिनों आईएएस अफसरों की संख्या इतनी कम क्यों रह गई है? कभी जहां सवा सौ से ऊपर आईएएस दिल्ली (मेरा मतलब दिल्ली सरकार) में हुआ करते थे, अब पचास-साठ ही क्यों बचे हैं। पहले एजीएमयूटी कैडर के आईएएस जो अरुणाचल, गोवा, मिज़ोरम, पुडुचेरी या चंडीगढ़ वगैरह में तैनात होते थे,उनमें ज्यादातर इस तिकड़म में लगे रहते थे कि कैसे दिल्ली की पोस्टिंग मिले। मगर पिछले कुछ समय से इस कैडर के तमाम रसूख वाले आईएएस किसी न किसी बहाने दिल्ली से बाहर चले गए हैं। ये वे अफसर हैं जो मानते हैं कि फिलहाल दिल्ली से दूर रहना ही बेहतर है। जब आम आदमी पार्टी की सरकार नहीं रहेगी, तब देखा जाएगा। एक तरह से दिल्ली में वही अफसर बचे हैं जिन्हें मजबूरी में यहां रहना पड़ रहा है।

साफ है कि दिक्कत असल में आम आदमी पार्टी की सरकार को लेकर है। शुरू से ही दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी सत्ता में रहती आई हैं। इन दोनों पार्टियों से इस कैडर के आईएएस, यहां तक कि दानिक्स के अफसर भी खासे हिले हुए थे। समस्या तीसरी पार्टी के सत्ता में आने पर खड़ी हुई जिसके तौर-तरीके ऐसे थे जैसे कोई आंदोलन चल रहा हो या मानो कोई अभियान छेड़ना है। ज्यादातर अफसर इससे तालमेल नहीं बिठा पा रहे। कुछ अफसर ऐसा करने में कामयाब हो भी गए तो यह समस्या आई कि उपराज्यपाल और निर्वाचित सरकार में किसकी मानें। दबाव ज्यादा बढ़ा तो ऐसे अफसरों ने भी बाहर तबादला मांग लिया। जो दो-चार अफसर आप सरकार के करीब होते लगे, उन्हें बिना मांगे ही बाहर भेज दिया गया। दानिक्स के अफसरों की भी यही स्थिति है। दिल्ली की राजनीति में फंसने की बजाय वे अंडमान और निकोबार में रहने को तैयार हैं।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।