बिसात-1996 : कांग्रेस का बिखराव, गठबंधन राजनीति का नया दौर शुरू

अनिल जैन
काॅलम Published On :


1989 के आम चुनाव के बाद मंडल और कमंडल ने जहां भारतीय राजनीति का व्याकरण बदल दिया तो 1991 के आम चुनाव के बाद बनी पीवी नरसिंह राव की सरकार ने भारत की आर्थिक नीतियों का व्याकरण बदल दिया। देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की गरज से प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपनी सरकार का वित्त मंत्री बनाया। राव और मनमोहन की जोड़ी ने नेहरू के जमाने से चली आ रही आर्थिक नीतियों को अलविदा कहते हुए नव-उदारीकृत आर्थिक नीतियों को लागू किया। उस दौर में शुरू हुई उदारीकरण और भूमंडलीकरण की बयार अब भयावह रूप लेकर बह रही है।

आम सहमति बनाए रखने के नाम पर नरसिंह राव की अल्पमत सरकार सदन में लगातार अपना बहुमत साबित करती रही। इस सरकार के कार्यकाल में भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करने वाले तथा देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को कमजोर करने वाले कई कारनामे भी हुए। सबसे बड़ी घटना 6 दिसंबर 1992 की थी जब भाजपा के शीर्ष नेताओं की मौजूदगी में संघ परिवार के कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। इस घटना के बाद देश भर में सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बन गया। फिर 1993 का मुंबई बम विस्फोट कांड हुआ और देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे।

हर्षद मेहता

बहुमत जुटाने के लिए सत्तापक्ष द्वारा सांसदों की खरीद-फरोख्त किए जाने के मामले भी सामने आए। बहुचर्चित शेयर घोटाला भी इसी दौर में हुआ। लखूभाई पाठक प्रकरण और हवाला कांड भी इसी दौरान सामने आया। यूरिया और संचार घोटाला तथा सुखराम कांड भी हुआ, लेकिन सरकार अबाध गति से चलती रही। बहुचर्चित हवाला कांड के चलते नरसिंह राव ने कांग्रेस के भीतर अपने नेतृत्व को चुनौती देने वाले कई दिग्गजों को ठिकाने लगाने का भी काम किया। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से उन सभी नेताओं को टिकट देने से इनकार कर दिया, जिनके नाम जैन हवाला डायरी में आए थे।

नरसिंह राव के इस फैसले से खफा होकर नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस (तिवारी) के नाम से अपनी नई पार्टी बना ली तो माधवराव सिंधिया ने अलग होकर मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस का गठन कर लिया। नरसिंहराव से नाराज होकर तमिलनाडु के दिग्गज कांग्रेसी जीके मूपनार ने भी पी. चिदंबरम के साथ मिलकर तमिल मनीला कांग्रेस के नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई। इसी पृष्ठभूमि में हुआ 1996 का लोकसभा चुनाव।

एक बार फिर खंडित जनादेश आया

ग्यारहवीं लोकसभा चुनने के लिए हुए 1996 के आम चुनाव में देश को एक बार फिर खंडित जनादेश का सामना करना पड़ा। किसी भी एक दल को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस का पारंपरिक जनाधार बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो गया। सवर्ण जातियां भाजपा के साथ खडी हो गईं। दलित समुदाय बहुजन समाज पार्टी से जुड़ गया। मुसलमानों ने कहीं मुलायम सिंह तो कहीं लालू प्रसाद यादव और कहीं चंद्रबाबू नायडू का दामन थाम लिया। पिछडी जातियां उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के साथ थीं तो बिहार में जनता यानी लालू यादव के साथ। लोकसभा में कांग्रेस की सीटें घटकर 140 हो गईं और भाजपा की बढकर 160 तक पहुंच गईं। जनता दल 46 पर सिमट गया। क्षेत्रीय दलों की ताकत में जबर्दस्त इजाफा हुआ। लोकसभा की एक तिहाई से ज्यादा सीटों पर विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने कब्जा जमा लिया।

जो कांग्रेसी दिग्गज जीतने में कामयाब रहे

इस चुनाव में आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के टिकट पर पीवी नरसिंह राव, विजय भास्कर रेड्डी, राजशेखर रेड्डी, असम से संतोष मोहन देव, बिहार से तारिक अनवर, हरियाणा से भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा, गुजरात से सनत मेहता, हिमाचल से पंडित सुखराम, केरल से पीसी चाको, रमेश चेन्नीथला, मध्य प्रदेश से दिलीप सिंह भूरिया, महाराष्ट्र से शरद पवार, एआर अंतुले, प्रफुल्ल पटेल, दत्ता मेघे, सुरेश कलमाड़ी, मेघालय से पीए संगमा, राजस्थान से राजेश पायलट, नाथूराम मिर्धा, अशोक गहलोत, गिरिजा व्यास, उत्तर प्रदेश से चौधरी अजीत सिंह, कैप्टन सतीश शर्मा, पश्चिम बंगाल से प्रियरंजन दासमुंशी, अजीत पांजा, ममता बनर्जी, करोलबाग दिल्ली से मीरा कुमार, लक्षद्वीप से पीएम सईद आदि दिग्गज जीतने में कामयाब रहे। पीवी नरसिंह राव आंध्र प्रदेश की नांदयाल सीट के अलावा ओडिशा की बेरहामपुर सीट से भी चुनाव लडे थे और दोनों जगह विजयी रहे थे। बाद में उन्होंने बेरहामपुर सीट खाली कर दी थी।

कांग्रेस से अलग होकर भी जो दिग्गज जीत गए

कांग्रेस से अलग होकर जो नेता चुनाव मैदान में उतरे थे उनमें उत्तर प्रदेश की नैनीताल सीट से नारायण दत्त तिवारी, घोसी से कल्पनाथ राय, मध्य प्रदेश की ग्वालियर सीट से माधवराव सिंधिया और तमिलनाडु की शिवगंगा सीट से पी.चिदंबरम तो चुनाव जीतने में सफल हो गए थे लेकिन मध्य प्रदेश की सतना सीट से अर्जुन सिंह को बहुजन समाज पार्टी के युवा उम्मीदवार सुखलाल कुशवाह के मुकाबले में करारी हार का सामना करना पडा था।

जीतने वाले प्रमुख भाजपा नेता

भारतीय जनता पार्टी से अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से, मुरली मनोहर जोशी इलाहाबाद से, विजयाराजे सिंधिया गुना से, जसवंत सिंह चित्तौड़गढ़ से, सुषमा स्वराज दक्षिण दिल्ली से, जगमोहन नई दिल्ली से, राम नाईक मुंबई उत्तर से, प्रमोद महाजन मुंबई उत्तर पूर्व से जीतने वालों में प्रमुख थे। लालकृष्ण आडवाणी ने हवाला केस में अपना नाम आने के चलते यह चुनाव नहीं लड़ा था।

तीसरे मोर्चे के जीतने वाले महारथी

जनता दल के टिकट पर ओडिशा से बीजू पटनायक, श्रीकांत जेना, केरल से एमपी वीरेंद्र कुमार, बिहार से रामविलास पासवान, रघुवंश प्रसाद, समाजवादी पार्टी के टिकट पर उत्तर प्रदेश से मुलायम सिंह यादव, बेनी प्रसाद वर्मा, मुख्तार अनीस, बिहार में समता पार्टी के टिकट पर जॉर्ज फर्नांडीज, नीतीश कुमार, उत्तर प्रदेश में बलिया से चंद्रशेखर भी अपनी समाजवादी जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचने में सफल रहे। वामपंथी दलों में पश्चिम बंगाल से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से सोमनाथ चटर्जी, फारवर्ड ब्लॉक के चित्त बसु, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इंद्रजीत गुप्त तथा बिहार से चतुरानन मिश्र भी जीतने वालों में प्रमुख रहे।

भाजपा की सरकार बनी लेकिन 13 दिन ही चल पाई
इस्‍तीफे से पहले अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण का एक दृश्‍य

चूंकि सबसे बडी पार्टी भाजपा थी लिहाजा इस आधार पर राष्ट्पति ने उसे सरकार बनाने का न्यौता दिया। अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने। भाजपा की ओर से बहुमत का इंतजाम करने का जिम्मा संभाला प्रमोद महाजन ने। उन्होंने दावा किया कि विश्वास मत के मौके पर हमें समर्थन देने वालों की लाइन लग जाएगी। खुद वाजपेयी ने भी क्षेत्रीय दलों को साधने की हर संभव कोशिश की लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई। विश्वास प्रस्ताव पर मतदान की नौबत ही नहीं आई क्योंकि वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव के समय अपने भाषण में ही अपनी सरकार के इस्तीफे की घोषणा कर दी थी। इस प्रकार महज 13वें दिन ही उनकी सरकार का पतन हो गया। देश के अब तक के इतिहास में उनकी सरकार सबसे अल्पजीवी साबित हुई।

देवगौड़ा की अगुवाई में संयुक्त मोर्चा सरकार बनी

इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के प्रयासों से जनता दल के नेतृत्व में तमाम क्षेत्रीय दलों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा का गठन किया। गठबंधन की राजनीति के एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। तेलुगू देशम पार्टी के मुखिया और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू मोर्चा के संयोजक बनाए गए। इस मोर्चे में जनता दल, समाजवादी पार्टी, तेलुगू देशम, द्रविड मुनैत्र कषगम के अलावा नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस तिवारी और जीके मूपनार की तमिल मनिला कांग्रेस भी शामिल थी। सबने मिलकर एक बार फिर से विश्वनाथ प्रताप सिंह से प्रधानमंत्री का पद स्वीकार करने का आग्रह किया लेकिन चूंकि उस समय तक वीपी सिंह को किडनी की बीमारी ने जकड लिया था, लिहाजा वे तैयार नहीं हुए। उनके इनकार करने पर पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नाम पर विचार हुआ। मोर्चा के सभी दल उनके नाम पर सहमत थे, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी यानी माकपा का नेतृत्व इसके लिए सैद्धांतिक कारणों से इसके लिए राजी नहीं था। अंतत: अस्पताल के बिस्तर से ही वीपी सिंह के सुझाये फार्मूले के आधार पर सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के युद्ध में तकदीर चमकी कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी देवगौड़ा की। कर्नाटक से 16 सीटें जिताने वाले देवगौडा का कद जनता दल तथा अन्य पार्टियों के क्षत्रपों से थोड़ा ऊंचा था। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के समर्थन से देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी सरकार में शामिल हुई।

कांग्रेस में राव का तख्तापलट कर केसरी ने कमान संभाली

संयुक्त मोर्चा की सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद घोटाले में फंसने के कारण नरसिंह राव को कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोडना पडा। उनकी जगह कांग्रेस की कमान संभाली सीताराम केसरी ने। नरसिंह राव केसरी को अपना भरोसेमंद सहयोगी मानते थे। उन्हें उम्मीद थी कि मुकदमेबाजी से निपटने के बाद वे जब चाहेंगे तब पार्टी की कमान फिर से अपने हाथ ले लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पार्टी का अध्यक्ष पद संभालते ही केसरी ने नरसिंह राव की ओर से न सिर्फ आंखें फेर ली, बल्कि उन्हें संसदीय दल का नेता पद छोड़ने के लिए भी बाध्य कर उस पर भी खुद काबिज हो गए। उनकी नई महत्वाकांक्षा जोर मारने लगी। उन्होंने देवगौड़ा के सामने कांग्रेस का समर्थन जारी रखने के लिए तरह-तरह की शर्तें रखना शुरू कर दीं, जिसकी वजह से दोनों की पटरी नहीं बैठ सकी। आखिरकार केसरी के दबाव में देवगौड़ा को लगभग दस महीने बाद ही हटना पडा। उनके स्थान पर इंद्र कुमार गुजराल देश के प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार भी बमुश्किल एक साल ही चल पाई। सीताराम केसरी ने अपनी सनक और जिद के चलते उनकी सरकार से भी कांग्रेस का समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया। अंतत: दो साल के भीतर ही देश को एक और लोकसभा चुनाव का सामना करना पड़ा।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए आम चुनावों के इतिहास पर श्रृंखला लिख रहे हैं