बिसात-1984 : सहानुभूति की आंधी में कांग्रेस को मिला छप्परफाड़ बहुमत, कंप्‍यूटर लाए राजीव

अनिल जैन
काॅलम Published On :


आठवीं लोकसभा के लिए 1984 में हुआ आम चुनाव असाधारण था। लगभग दो दशक तक देश की राजनीति का केंद्र बिंदु बनी रहीं एक वीरांगना की हत्या हो गई थी। पहली बार देश के किसी प्रधानमंत्री की हत्या हुई थी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए इस चुनाव में उनके बेटे राजीव गांधी के प्रति सहानुभूति की एक ऐसी आंधी चली कि जीत के सारे कीर्तिमान ध्वस्त हो गए।

चुनाव प्रक्रिया के दौरान ही भयावह भोपाल गैस कांड को लेकर सहानुभूति की लहर इतनी जबरदस्त थी कि विपक्षी दल चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं खड़ा कर पाए। यहां तक चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद हुई भोपाल की वह भयावह गैस त्रासदी को भी नहीं, जिसकी वजह से एक ही रात में हजारों लोग मौत की नींद सो गए थे। भोपाल सहित मध्य प्रदेश की सभी 40 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। कांग्रेस ने इतिहास का सर्वाधिक प्रचंड बहुमत हासिल कर सरकार बनाई थी। 542 में से 416 लोकसभा सीटें कांग्रेस की झोली में आई थीं।

संजय की मौत और राजीव गांधी का राजनीति में प्रवेश
संजय गांधी के दुर्घटनाग्रस्‍त विमान का मलबा

कहानी 1980 से ही तब शुरू हुई जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई थी। करीब तीन साल सत्ता से बाहर रहने और उससे पहले करीब छह साल तक निरंकुश तौर तरीकों से सत्ता का संचालन करने के दोनों तजुर्बों से गुजरने के बाद 1980 में इंदिरा गांधी ने चौथी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। चौथी बार सत्ता संभालने के महज पांच महीने बाद ही उन्हें गहरा झटका लगा जब उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार हो रहे संजय गांधी की 23 जून 1980 को एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई।

वंशवादी राजनीति की उपज इंदिरा गांधी ने संजय की जगह को भरने के लिए किसी और को नहीं बल्कि अपने उस बेटे को चुना जिसके मन में राजनीति के प्रति सर्वथा विरक्ति का भाव था। पायलट की नौकरी छोड़कर राजीव गांधी अपनी मां की मदद के लिए राजनीति में आ गए। संजय की मौत से खाली हुई अमेठी संसदीय सीट पर जून, 1981 में उपचुनाव हुआ। इस उपचुनाव में राजीव गांधी कांग्रेस के उम्मीदवार बने और लोकदल के शरद यादव को हराकर लोकसभा में पहुंच गए। इस चुनाव में शरद यादव संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार थे। आठ महीने बाद फरवरी, 1983 में उन्हें कांग्रेस का महासचिव भी बना दिया गया।

ब्लू स्टार ऑपरेशन और इंदिरा गांधी की हत्या
स्‍वर्ण मंदिर में इंदिरा गांधी

इससे पहले देश में असम और पंजाब के आंदोलन शुरू हो चुके थे। पंजाब में तो खालिस्तानी उग्रवाद इस कदर बढ़ गया था कि पूरे राज्य को सेना के हवाले करना पड़ गया था। जरनैल सिंह भिंडरांवाला की सरपरस्ती में आतंकवादियों ने स्वर्ण मंदिर परिसर को अपना अड्‌डा बना लिया था। इस अड्‌डे को नष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बेहद साहसिक और जोखिम भरा फैसला करना पड़ा। मई, 1984 में सेना के आपरेशन ब्लूस्टार में भिंडरांवाला मारा गया, लेकिन पवित्र स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई और उससे अकाल तख्त के क्षतिग्रस्त होने से सिखों की भावनाओं को इस कदर ठेस पहुंची कि 31 अक्टूबर, 1984 को प्रधानमंत्री के निजी सिख सुरक्षा गार्डों ने प्रधानमंत्री आवास में ही इंदिरा पर गोलियों की बौछार कर उनकी हत्या कर दी।

समूचे देश में सिख विरोधी हिंसा भड़क उठी। हजारों बेगुनाह सिखों का कत्लेआम हो गया और उनकी अरबों की संपत्ति या तो लूट ली गई या जलाकर खाक कर दी गई। संजय गांधी की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी की हत्या से कांग्रेस को दूसरा बड़ा झटका लगा। इस झटके से पार्टी को उबारने के लिए मंच पर राजीव गांधी आए। उन्हें कांग्रेस के बड़े बुजुर्गों ने प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपने में जरा भी देरी नहीं की।

भाजपा के लिए यह पहला आम चुनाव था

दो महीने के भीतर ही 1984 का लोकसभा चुनाव हुआ। दिसंबर 1984 में लोकसभा की 542 मे 515 सीटों पर ही चुनाव हुए थे। असम की 14 और पंजाब की 13 सीटों पर चुनाव एक साल बाद सितंबर 1985 में हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को 542 में से 416 सीटों पर जीत मिली थी। इतिहास में पहली बार उसे मिले वोटों का प्रतिशत 50 के करीब पहुंचा। उसे कुल 49.1 प्रतिशत वोट मिले थे।

1980 के चुनाव के बाद जनसंघी खेमे ने जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गठन कर लिया था। 1984-85 का चुनाव उसके लिए पहला चुनाव था, जिसमें उसने 224 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन उसे महज दो सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा के लगभग पचास फीसदी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी जबकि उसे प्राप्त वोटों का प्रतिशत 7.74 रहा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को इस चुनाव में 22 सीटों के साथ 5.87 फीसदी वोट मिले थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) 2.71 प्रतिशत वोट पाकर छह सीटों पर जीती थी।

चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी को 10 सीटों के साथ 6.89 फीसदी वोट मिले थे। इस पार्टी ने 207 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उसके आधे से ज्यादा उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। चौधरी चरण सिंह के लोकदल को भी मात्र तीन सीटों पर जीत हासिल हुई थी और उसके 171 में 75 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। लोकदल के मिले वोटों का प्रतिशत 5.97 था।

बाबू जगजीवन राम

1980 के चुनाव में जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे बाबू जगजीवन राम उस चुनाव के कुछ समय बाद ही जनता पार्टी से अलग हो गए थे और उन्होंने कांग्रेस (जे) के नाम अपनी अलग पार्टी बना ली थी। इस पार्टी से अकेले जगजीवन राम ही चुनाव जीत सके थे। एक पार्टी कांग्रेस (सोशलिस्ट) भी थी, जिसे चार सीटें हासिल हुई थीं। कुल मिलाकर इस चुनाव में विपक्ष की इस कदर हार हुई कि लोकसभा में किसी भी पार्टी को आधिकारिक विपक्ष का दर्जा नहीं मिल सका। आंध्र प्रदेश की क्षेत्रीय पार्टी तेलुगूदेशम 30 सीटें जीतकर कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।

1984-85 के लोकसभा चुनाव को बतौर मतदाता करीब 40 करोड़ लोगों ने देखा था। इनमें से करीब 25.60 करोड़ लोगों ने वोट डाले और मतदान का प्रतिशत 63.6 रहा। 542 सीटों में से 79 सीटें अनुसूचित जाति और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं। इन चुनावों मे कुल 171 महिलाएं लड़ी थीं जिनमें से 43 जीती और 109 को जमानत गंवानी पड़ी। इससे पहली किसी भी लोकसभा चुनाव में इतनी अधिक महिलाएं नहीं जीती थीं।

आंध्र में रामाराव के करिश्मे ने रोकी कांग्रेस की आंधी

इस चुनाव में पूरे देश को सबसे ज्यादा चौंकाया कांग्रेस के अभेद्य दुर्ग माने जाने वाले आंध्र प्रदेश ने। 1977 में जनता पार्टी की लहर में भी आंध्र प्रदेश पूरी तरह कांग्रेस के साथ रहा था लेकिन इस चुनाव में जब समूचे देश में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की आंधी चल रही थी तब आंध्र में एनटी रामाराव की तेलुगूदेशम की लहर चल रही थी। आंध्र प्रदेश की 42 में से 30 सीटें तेलुगूदेशम के खाते में गईं और कांग्रेस को वहां मात्र छह सीटों पर ही जीत मिल सकी।

एन टी रामाराव

तमिलनाडु में भी क्षेत्रीय ताकतें कुछ हद तक कांग्रेस की लहर को थामने में कामयाब रहीं। वहां अन्नाद्रमुक के खाते में 12 और द्रमुक के खाते में दो सीटें गईं, जबकि कांग्रेस को 25 सीटों पर जीत हासिल हुई। दिसंबर 1985 में हुए असम और पंजाब के चुनाव में भी क्षेत्रीय ताकतों का प्रभुत्‍व दिखा। असम की 14 में से आठ सीटें असम गण परिषद को मिली जबकि कांग्रेस को चार सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। पंजाब में अकाली दल ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी। उसे सात सीटों पर जीत मिली जबकि कांग्रेस को छह सीटों पर। दरअसल, असम आंदोलन का ऐसा असर पड़ा कि ‘आसू’ नाम के छात्र संगठन से जुड़े छात्र नेताओं ने असम में अपनी सरकार बना ली थी। प्रफुल्ल महंत मुख्यमंत्री बन चुके थे।

सहानुभूति की आंधी में सारे विपक्षी सूरमा चित हो गए

1984-85 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की आंधी में विपक्ष के सारे दिग्गज चुनाव हार गए। भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से माधव राव सिंधिया ने पराजित किया। इस चुनाव तक हेमवती नंदन बहुगुणा भी इंदिरा गांधी से अपने मतभेदों के चलते कांग्रेस छोड़ चुके थे। इस चुनाव में वे लोकदल के टिकट पर इलाहाबाद से चुनाव लड़े जहां हिंदी फिल्मों के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने उन्हें हरा दिया। जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को बलिया सीट से अदने से कांग्रेसी जगन्नाथ चौधरी ने हराया।

हरियाणा की सोनीपत सीट से लोकदल के चौधरी देवीलाल भी चुनाव हार गए। जॉर्ज फर्नांडीस जनता पार्टी के टिकट पर बंगलोर-उत्तर से लड़े जहां कांग्रेस के सीके जाफर शरीफ ने उन्हें हराया। लोकदल के टिकट पर लड़े कर्पूरी ठाकुर, रामविलास पासवान और तारकेश्वरी सिन्हा को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा। इसी पार्टी से शरद यादव उत्तर प्रदेश की बदायूं सीट कांग्रेस के सलीम शेरवानी से हार गए।

बलराज मधोक

भाजपा का यह पहला चुनाव था। भाजपा के टिकट पर लड़े मुरली मनोहर जोशी, प्रमोद महाजन, राम जेठमलानी, उमा भारती, सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे आदि तमाम दिग्गज चुनाव हार गए। मुरली मनोहर जोशी को अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस के हरीश रावत ने हराया। जेठमलानी फिल्म अभिनेता सुनील दत्त से हारे तो प्रमोद महाजन मुंबई उत्तर-पूर्व से कांग्रेस के गुरुदास कामथ से हारे। सुषमा स्वराज को हरियाणा के करनाल से चिरंजीलाल ने, उमा भारती को खजुराहो से कांग्रेस की विद्यावती चतुर्वेदी ने और वसुंधरा राजे को मध्य प्रदेश के भिंड से कांग्रेस के ही कृष्ण सिंह ने हरा दिया। सबसे बुरी हार बलराज मधोक की हुई जो एक जमाने में जनसंघ के अध्यक्ष हुआ करते थे। वे भाजपा में नहीं थे और निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अहमदाबाद से चुनाव लड़े और उनकी जमानत जब्त हो गई। उन्हें मात्र 5628 वोट मिले।

ओडिशा की जगतसिंहपुर सीट से जनता पार्टी के टिकट पर लड़े रवि राय एक हजार से भी कम वोटों से चुनाव हार गए। राजस्थान की नागौर सीट से लोकदल के टिकट पर लड़े नाथूराम मिर्धा भी कांग्रेस के राम निवास मिर्धा से हार गए। महाराष्ट्र की कोलाबा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर  अब्दुल रहमान अंतुले भी लड़े और हारे। उन्हें पीजेंट्‌स वर्कर्स पार्टी के डीबी पाटिल ने हराया। इंदिरा गांधी की छोटी बहू और संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी अमेठी में राजीव गांधी से हारी। निर्दलीय उम्मीदवार मेनका को समूचे विपक्ष ने समर्थन दिया था।

जो विपक्षी महाबली सौभाग्यशाली रहे
मजदूर नेता दत्‍ता सामंत

इस चुनाव में विपक्ष के कुछ ऐसे महाबली भी रहे जो कांग्रेस की चौतरफा आंधी में भी अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे। बिहार की अपनी सासाराम सीट से लगातार आठवीं बार जीतकर बाबू जगजीवन राम ने उस वक्त का रिकार्ड बनाया। जगजीवन राम ने जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस (जे) का गठन किया था। समाजवादी नेता मधु दंडवते भी सौभाग्यशाली रहे। वे जनता पार्टी के टिकट पर महाराष्ट्र की राजापुर सीट से एक बार जीतने में कामयाब रहे। मुंबई दक्षिण-मध्य सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में बहुचर्चित ट्रेड यूनियन नेता दत्ता सामंत भी चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे। जनता पार्टी के टिकट पर ओडिशा की केंद्रपाडा सीट से बीजू पटनायक भी चुनाव जीत गए। चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के बागपत से लोकदल के टिकट पर चुनाव जीते थे। आंध्र प्रदेश की महबूबनगर सीट से जनता पार्टी के टिकट पर एस जयपाल रेड्‌डी भी जीतने में कामयाब रहे। पश्चिम बंगाल की बशीरहाट सीट से भाकपा के इंद्रजीत गुप्त भी चुनाव जीत गए। विपक्ष के इन सात नेताओं को छोड़कर शेष सभी दिग्गज हार गए।

तमाम कांग्रेसी दिग्गजों ने जीत का सिलसिला कायम रखा

इस चुनाव में दो फिल्मी सुपर स्टारों का जीतना आठवीं लोकसभा का मुख्य आकर्षण था। कांग्रेस के टिकट पर इलाहाबाद से अमिताभ बच्चन और मुंबई उत्तर-पश्चिम से सुनील दत्त चुनाव जीते थे। आंध्र प्रदेश में जहां एनटी रामाराव के करिश्मे के चलते तमाम बड़े कांग्रेसी हार गए वहीं एनजी रंगा अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे। वे गुंटूर सीट से चुनाव जीते। बिहार की सीवान सीट से अब्दुल गफूर, मुजफ्फरपुर से ललितेश्वर प्रसाद शाही, भागलपुर से भागवत झा आजाद, पटना से सीपी ठाकुर और कटिहार से तारिक अनवर की जीत हुई। तारिक अनवर पहली बार लोकसभा पहुंचे। हरियाणा की भिवानी सीट से बंसीलाल और हिमाचल की मंडी सीट से सुखराम भी जीत गए।

कर्नाटक में कांग्रेस के तीनों बड़े नेता सीके जाफर शरीफ (बंगलोर-उत्तर), आस्कर फर्नाडीस (उड्‌डपी) और बी शंकरानंद (चिक्कोड़ी) चुनाव जीतने में सफल रहे। मध्य प्रदेश की ग्वालियर सीट से माधवराव सिंधिया, महासमुंद से विद्याचरण शुक्ल, इंदौर से प्रकाशचंद्र सेठेी, कांकेर से अरविंद नेताम, दुर्ग से चंदूलाल चंद्राकर, छिंदवाड़ा से कमलनाथ और राजगढ़ से दिग्विजय सिंह भी चुनाव जीते। दिग्विजय सिंह पहली बार लोकसभा में पहुंचे।

अमिताभ बच्‍चन और सुनील दत्‍त

महाराष्ट्र से भी कांग्रेस के सभी बड़े नेता चुनाव जीत गए। बारामती से शरद पवार जीते तो वर्धा से वसंत साठे, नांदेड़ से शंकरराव चव्हाण और पुणे से वीएन गाडगिल की जीत हुई। लातूर से शिवराज पाटील, वाशिम से गुलाम नबी आजाद और बुलढाना से मुकुल वासनिक की जीत हुई थी। महाराष्ट्र की ही रामटेक सीट से पीवी नरसिंह राव भी चुनाव जीत गए। नरसिंह राव इस चुनाव में दो जगह से चुनाव लड़े थे। अपने गृहराज्य आंध्र प्रदेश की हनमकोंडा सीट से वे हार गए थे।

ओडिशा की कोरापुट सीट से एक बार फिर गिरिधर गोमांग की जीत हुई। राजस्थान की दौसा सीट से राजेश पायलट, भरतपुर से नटवर सिंह, जालौर से बूटा सिंह और जोधपुर से अशोक गहलोत भी जीते। तमिलनाडु के सलेम लोकसभा क्षेत्र से रंगराजन कुमारमंगलम और शिवगंगा से पी चिदंबरम भी जीते। राजेंद्र कुमारी वाजपेयी (सीतापुर), शीला कौल (लखनऊ), शीला दीक्षित (कन्नौज), आरिफ मोहम्मद खान (बहराइच), श्रीपति मिश्र (मछलीशहर), हरिकृष्ण शास्त्री (फतेहपुर), मोहसिना किदवई (मेरठ) और चंद्रा त्रिपाठी (चंदौली) से चुनाव जीतने में कामयाब रहे। पश्चिम बंगाल की हावड़ा सीट से प्रियंजन दासमुंशी जीते तो कलकत्ता उत्तर-पूर्व सीट से अजित पांजा विजयी हुए। इस बार केसी पंत नई दिल्ली से जीते थे। दक्षिणी दिल्ली से ललित माकन, पूर्वी दिल्ली से एचकेएल भगत और दिल्ली सदर से जगदीश टाइटलर की भी जीत हुई थी। मेघालय से पीए संगमा और जीजी स्वेल भी विजयी रहे और लक्षद्वीप से पीएम सईद भी जीते।

उत्थान और पतन से भरा राजीव गांधी का कार्यकाल

चुनाव नतीजे आने के बाद आठवीं लोकसभा के गठन की अधिसूचना जारी हुई। राजीव गांधी एक बार फिर कांग्रेस संसदीय दल के औपचारिक तौर पर नेता चुने गए। 31 दिसंबर 1984 को राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। वे भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री थे। 40 वर्ष की उम्र में ही उन्हें यह पद मिल गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस फिर सत्तासीन हुई। बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बेहतर शुरुआत की। भारत ने कंप्यूटर युग में प्रवेश किया। मताधिकार की न्यूनतम आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।

राजनीतिक मोर्चे पर भी राजीव गांधी ने दो साहसिक पहल करते हुए पंजाब और असम समझौते किए, जिसकी वजह से पंजाब में निर्वाचित सरकार स्थापित हुई और असम के आंदोलनकारी छात्रों ने भी मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होना स्वीकार किया। संविधान में 72वें और 73वें संशोधन के जरिए पंचायतों और नगरीय निकायों को अधिक अधिकार देने का ऐतिहासिक काम भी राजीव गांधी की सरकार ने ही किया। इन चंद चमकदार कामों के बाद शुरू हुआ उनकी फिसलन का दौर।

अपने गैर राजनीतिक सलाहकारों की सलाह पर उन्होंने बहुचर्चित शाहबानो मामले और अयोध्या विवाद में जो विवादास्पद फैसले लिए, उनसे उनकी सरकार तो विवादों में फंसी ही, देश में भी सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बनने लगा। रही सही कसर बोफोर्स तोप सौदे को लेकर उठे विवाद ने पूरी कर दी। विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे उनके विश्वसनीय मंत्री ने उनके खिलाफ बगावत का झंडा उठा लिया। अरुण नेहरू और आरिफ मुहम्मद जैसे सहयोगी भी उनका साथ छोड़कर वीपी सिंह के साथ हो लिए। अपने कार्यकाल के आखिरी साल में उनकी सरकार बुरी तरह विवादों में घिर गई। 1989 में नौवीं लोकसभा का चुनाव इन्हीं विवादों की पृष्ठभूमि में हुआ।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए आम चुनावों के इतिहास पर नियमित स्‍तंभ लिख रहे हैं।