शकुबाई का सफ़ाईनामा: “ग़रीबी सबसे बड़ी महामारी है जिसका विषाणु अमीरी है!”

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पाठकों, मीडिया विजिल आमतौर पर कविता नहीं छापता, यहा कहें कि साहित्य का कोई स्तम्भ हमारे पास नहीं है, लेकिन प्रकाश चन्द्रायन की इस भेदक कविता को छापे बिना रहा नहीं गया। इसे पढ़ें, कविता ख़ुद बोलेगी, हम क्या बोलें- संपादक

 

 

शकुबाई का सफ़ाईनामा

 

 

यदा-कदा राजधानी शिखर से तल देख लेती है
और मस्त रहती है.
कभी-कभार शकुबाई भी नीचे से ऊपर ताक लेती है
और व्यस्त रहती है.
यही असम जीवन है विषम दृष्टि है,
सोचें तो यह किसकी कैसी विकट निर्मिति है.

शकुबाई भी एक जीवन है एक सृष्टि है,
संस्कार आड़े न आए तो आओ उसे जान लें-
उसका काम क्यों न पहचान लें .

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शकुबाई खांटी मूलनिवासी है,
बोलचाल में ठेठ देसी है.
तीन दशकों से झाड़ू मारती हुई-
वह पृथ्वी की चहेती बेटी है.
सड़क ही उसकी रोजी है सफाई ही रोटी है.
पवित्रों की पोथी में पंचमवर्ण और खोट्टी है.
अव्वल तो प्रकृति की साफ सुघड़ सलोनी पोती है.

कई दशक वह इंडिया में झाड़ू फिराती रही,
अब न्यू इंडिया को साफ-सूफ करती है.
न्यू इंडिया की कूटभाषा में सफाई-सेवा आध्यात्मिक अनुभव है
और शकुबाइयाँ सनातन परंपरा की संवाहक,
जैसे काशी के डोमराज और मिथिला के महापात्र.

गली-सड़क चमकाती शकुबाई कुछ बुदबुदाती है,
कान खड़े कर सुनो तो देस-कोस से अपना तुक मिलाती है.
तुक मिलाती घूमती है श्याम बैरागी की राष्ट्रीय कविता-
गाड़ीवाला आया घर से कचरा निकाल….
जोड़ती है शकुबाई पहले दिल से निकाल, दिमाग़ धो डाल.

स्वच्छता का इरादा कर लिया हमने सुनाती आती है
जब तक कूड़ा-गाड़ी.
डॉगियों को पॉटी कराते सफेदपोश गंदों को दे चुकती है
तबतक गिन-गिन कर गारी.
कहती है गान्ही के चश्मे से नहीं निकलता इरादा,
यह तो है सरकारी अजायबघर में रखा फटा-पुराना वादा.

शकुबाई का दिमाग़ है चुभते फिकरों का कारखाना,
जैसे ही राजधानी से जारी होता है कोई परवाना-
वह फिक से हँस देती है,
कोई चुस्त फिकरा कस देती है.

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जब आधी रात हुई लॉकडाउन की मारक मुनादी-
तब शकुबाई को हुई बला की हैरानी.
कालेजिया बेटी ने विलगा-विलगा कर बूझाया,
लाॅकडाउन में लकडाॅन और लकडाउन का असल मानी.
फिर न तालाबंदी न देशबंदी,
शकुबाई ने चट से कह दिया-
यह तो है लकडॉन का खुला खेल फरुर्खाबादी.
जैसे नोटबंदी थी उच्चश्रेणी की चाँदी
और निम्नश्रेणी की बर्बादी.

जैसे ही शकुबाई लकडॉन बोल गई,
अंग्रेजी तो दूर हिन्दी भी चौंक गई.
वह तो कामकाजी बोली बोलती है,
छठे-छमाहे भाषा का तड़का भी लगा लेती है.
गाहे-बगाहे चाय टपरी पर सुस्ताती –
अंग्रेजी-हिन्दी शब्दों को भी पी लेती है.
अपनी चलती-फिरती समझ से लफ्जों का फरक भी बूझ लेती है,
इसी समझ-बूझ से जटिल जिन्दगी जी लेती है.
मजे-मजे में कोई नया शब्द भी गढ़ लेती है,
भले ही वह क्यों न हो उलटबांसी जैसी!

अचक्के फर्राटे से एक शब्द का जुड़वाँ सच झलका गई,
जैसे खराटे से गली-सड़क चमका गई.
बात सफा है कि लॉकडाउन न्यू इंडिया का लकडॉन हुआ,
लगे हाथ उदास हिन्दुस्तान का लकडाउन भी तय हुआ.
तत्सम में शिखर का भाग्योदय और चुनिंदों का सौभाग्य,
बोलीचाली में खट्टू हिंद का दुर्भाग्य ही दुर्भाग्य.
सौभाग्य खातों में बढ़ता शून्य चढ़ता सूचकांक है,
दुर्भाग्य के बट्टे खाते में डाला जाता स्याह हिन्दुस्तान है.

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शकुबाई ऐसा तीखे-करारे बोलती है,
जैसा कोई संसद में भी बोल देता.
जिनके मुँह घी-शक्कर वे कड़वा सच कैसे बोलेंगे?
ठोक के बोली शकुबाई कि कोरोना-कोरोना तो ठीक भजे हो,
पन,गरीबी सबसे बड़ी महामारी है जिसका विषाणु अमीरी है.

महामारियाँ आती हैं भूखी अमीरी की तरह जाना तय नहीं,
विषाणु-कीटाणु भी अमीरी कारोबार हैं क्या यह सूत्र नहीं?
कचरा तल में बसता है बकता-चीखता है न्यू इंडिया,
कूड़ा शिखर से गिरता है तोलता-ब़ोलता है हाशिया.

भाँय-भाँय लाकडाउन में भी शकुबाई
बिला नागा सड़क चमकाती रही.
न कोई दीया जला न शंख गूँजा,
न ताली-थाली बजी न फूल बरखा.
जुग-जुगन से अबतक बचके आते-जाते रहे संस्कारी,
बिलगाव में ही चलता रहा शकु के जीवन का चरखा.

थकी-मांदी शकुबाई जब रोटीपानी कर जिराती है,
तब एक गाना अपने तर्ज में गाती है.
हम उस देश के वासी हैं,
जहाँ गटर-गंगा बहती है.
नमामि गंगे में धर्म अर्थ काम मोक्ष बिकता है,
गटर-गंगा रोजाना मौत का कुंड बनती है.
न देश सिहरता है न शिखर का झंडा झुकता है.

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जैसी उसकी पुश्तैनी खोली है,
वैसी ही पैदाइशी बोली है.
कोई लाग-लपेट नहीं,
कोई बनावट-रूकावट नहीं.
बोलती है तो रपेट देती है,
जो चपेट में आ गया उसे सरपेट देती है.

कित्ता बोलूँ जुलूम के वही पुराने ढर्रे,
देखे जित्ते राजपाट सारे ढोंग करे.
सुबह महाकुंभ में पैर पखारे,
दोपहर पीठ की चाम उघाड़े.
शाम देह-खेत की जबरजोत जुगाड़े,
हंसों से नहीं कौऔं से पूछो किसने हमन के पुरखे मारे?

शास्तर में हम कगार-किनारे,
छौनी-छप्पर खोज-खोज उजाड़ें .
ये तालाबंदी क्या तालाबंदी,
पोथिया तालाबंदी टरै न टारें .
झुक-झुक जीयें जब मरैं तभी टांग पसारें,
हमरी परछाई भी नाशक,बांचैं संस्कारी सारे.

तैरता रहता है एक मौन मंत्रालाप,
बचके रहना ओ बाबू बचके बच बच के!
समाजी संक्रमण बड़ा घातक,
बचके रहना ओ बाबा बचके बच बच के!

राजधानियों से जितने लाख कागजी सपने गिरे,
उसने सब पर झाड़ू मारे.
वे चाहे पतझर के हों या बारिश के,
शीत के हों या लू के-
उसने सबकी कलई उतारे.
जब-जब उसे अनेत लगा,
वह डटकर डपटी-अरे! मार बढ़नी रे….
मेनहोलों के खूनी मुँह तो पाट न सके,
चले चाँद के गड्ढों का फोटू लाने.
ये चमकदार झंडू लोगां गंद बुहारें तो जानें,
थेथर हैं सब जो बढ़नी थामते हैं थोबरा छपवाने.

तल पर धूल-धक्कड़ खाती
शकुबाई का काम शिखर की खिदमत है,
मौके पर चुटीले फिकरे कसना उसकी देसी फितरत है.
कोई सुने न सुने वह सड़क को सुनाती-बतियाती है,
सड़क उसका कठिन सफाईनामा दर्ज करती जाती है.
शायद किसी साहित्य तक पहुँच सके उसका मरम,
तब प्रामाणिक होगा कोई रचनाकर्म वरना सब भरम.

 

 

प्रकाश चन्द्रायन का परिचय 

उत्तर बिहार के कोसी नदी समूह के किनारे एक गांव में जन्म. इस इलाके का लोक प्रचलित नाम फरकिया परगना और शासकीय नाम खगड़िया जिला है. फरकिया मानी फरक किया हुआ यानी हाशिया. यही हाशिया और हाशियाकरण उनकी चेतना और रचना का मूल है. छात्र जीवन से ही समाजवादी-साम्यवादी और विवेकवादी नजरिए से हाशिया और हाशियाकरण की प्रक्रिया को समझने की कोशिश.पैंतीस साल विभिन्न अखबारों में काम.अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लेखन. सांस्कृतिक कार्यों में रुचि. सेवानिवृत होकर नागपुर में निवास.

संपर्क-३०४, गजानन अपार्टमेंट्स,

५, टिकेकर रोड, धंतोली, नागपुर-४४००१२, महाराष्ट्र.

मोबाइल-९२७३०९०४०२.