महंगाई नहीं हैं जिनके लिए….



तो दोस्तों, वो लोग जिन्हें मोटी तनख्वाह मिलती हो, घूमने के लिए गाड़ियां, लाखों रुपये पैट्रोल के लिए, जब चाहे विदेश घूमने की, वो भी मुफ्त आज़ादी और सुविधाएं, मोटे भत्ते और पेंशन की गारंटी मिलती हो, उनके लिए, ”महंगाई नहीं है”, कह देना असल में कोई बड़ी बात नहीं है। महंगाई का होना या ना होना तब समझ में आता है, जब दाल में, जो खुद भी महंगी है, बघार के लिए तेल मंगाना पड़ता है, और तेल भी, जैसा कि आप जानते हैं, महंगा हो गया है। उन लोगों के लिए जिन्हें महंगाई का काॅन्सेप्ट ही समझ नहीं आता, मैं यहां ये साफ कर देना चाहता हूं कि महंगाई का असल मतलब क्या होता है। दरअसल जब चीजों की कीमत बढ़े, लेकिन खीसे की औकात ना बढ़े तो उसे महंगाई कहते हैं। अगर खीसे यानी जेब की औकात बढ़े और चीजों का दाम भी बढ़े तो महंगाई नहीं होती, क्योंकि ये जनता की सामर्थ्य में होता है कि वो बढ़ी हुए दाम देकर चीज़ खरीद ले। अब जब संसद में कहा जा चुका है कि, ”महंगाई नहीं है” तो इसे यूं समझिए कि जिन लोगों ने कहा है, उनके लिए चीजों के दाम नहीं बढ़े, जिन लोगों की कमाई ही रोज़ाना लाखों में हो रही हो, जबकि संसद की कैंटीन में 25 रुपये में चिकन बिरयानी उड़ाने की सुविधा हो, उनके लिए महंगाई नहीं बढ़ी है। इसलिए वो जब संसद में कहते हैं कि महंगाई नहीं है तो ठीक ही बोल रहे होते हैं।
अब मान लीजिए आप किसी जोमैटो या स्विगी के डिलीवरी ब्वाॅय से पूछेंगे कि यार बताओ महंगाई हुई है कि नहीं, तो वो आपको क्या कहेगा, नहीं या हां। ये ध्यान रखिएगा कि इस सवाल का जवाब देते हुए उसके बैग में वो खाना भी रखा हुआ है, जो किसी ने ऑर्डर किया है, और वो बेचारा भूखा-प्यासा उस खाने का पहुंचाने जा रहा है, जिसे खुद ऑर्डर करके वो शायद कभी ना खाए। चीजों के दाम बढ़ते हैं, आदिकाल से लेकर अब तक चीजों के दाम बढ़ते हैं। ये दाम कौन तय करता है, इस बारे में अगर मैं यहां ज्ञान देने लगा तो पूरा मार्क्सवाद खोल कर बैठना पड़ेगा, क्योंकि मार्क्स के अलावा मैने किसी अर्थशास्त्री को चीजों के दाम तय करने का अर्थशास्त्र समझाते नहीं देखा। हालांकि महंगाई मार्क्स के जमाने में भी थी। आप तो सीधे-सीधे ये समझ लीजिए कि अगर रोटी की कीमत 1 रुपये से बढ़कर 15 रुपये हो गई है तो, इसे महंगाई नहीं कहा जाएगा अगर, आपकी आमदनी भी इसी अनुपात में बढ़ी हो, लेकिन अगर आपकी आमदनी में बढ़त ना हो, तो इसे महंगाई कहा जाएगा। इसका मतलब ये हुआ कि महंगाई का मतलब सिर्फ चीजों के दाम की बढ़त नहीं है, बल्कि उसके अनुपात में आमदनी का विश्लेषण भी है। अब इस पावन भारत भू पर पिछले 8 सालों में जिस परिमाण में चीजों के दाम बढ़े हैं, क्या उस अनुपात में आपकी आमदनी भी बढ़ी है? अगर इसका जवाब हां में है तो, माफ कीजिएगा, आप इस भारत भू में नहीं रहते, क्योंकि ये तो सरकार भी कह रही है कि आमदनी नहीं बढ़ी है, बल्कि घटी है। अगर कुछ अपवादों, ”अंबानी-अडानी टाइप पूंजीपतियों” को छोड़ दिया जाए।


हमारी अर्थशास्त्री मंत्राणी ”मंत्री नहीं लिख रहा कि कहीं कोई विवाद ना हो जाए” महंगाई को बहुत पर्सनल करके देखती हैं। जैसे प्याज के दाम बढ़े तो उनका सीधा हिसाब था, कि ”मैं प्याज नहीं खाती” यानी अगर मैं नहीं खाती तो मुझे क्या मतलब कि प्याज टमाटर महंगा हुआ है या नहीं, मेरे हिसाब से भाड़ में जाए….इसी तरह विपक्ष चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि महंगाई बढ़ रही है, लेकिन वित मंत्राणी तो उसे अपने निजी अनुभव से देखती हैं। तो उनके हिसाब से सबकुछ तो मुफ्त में मिल रहा है, गाड़ी का पैट्रोल, फोन का खर्च, सस्ता खाना, रहने के लिए बंगला, सिक्योरिटी फ्री, तो जब किसी चीज़ का दाम देना ही नहीं है, तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि महंगाई बढ़ी है या नहीं। मेरा सुझाव ये है, और बिना किसी दुर्भावना के है, कि वित्त मंत्राणी और प्रधान मंत्री को रोज़ एक चिट या पर्चा थमाया जाए, जिसमें उनके दैनिक खर्च को 2014 से पहले के खर्च के अनुपात में दिखाया जाए, ताकि उन्हे साफ-साफ दिख सके कि महंगाई हुई है। किसी विपक्षी पार्टी को तो ये करना ही चाहिए। कम से कम इस टिप्पणी के साथ करना चाहिए कि देखिए मंत्राणी और मंत्री जी, महंगाई बढ़ी है, हम झूठ नहीं बोल रहे हैं। राजा को ये समझाने के लिए कि वो नंगा है, किसी ना किसी को ये बोलना होगा कि, ”राजा नंगा है”। वरना राजा तो बेधड़क नंगा घूमता रहेगा, क्योंकि उसे लगता है कि वो नंगा नहीं है।
रही बात जनता की, तो उसे महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी झेलने की आदत अंग्रेज डाल ही गए हैं। दो सौ सालों तक हमने सबकुछ तो देख लिया। साम्प्रदायिक दंगा, अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी….आदि आदि की ये जनता इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप नियमगिरी में सारे आदिवासियों को जमा करके गोली मार दो, सामूहिक बलात्कार करो और सामूहिक कब्रें खोद कर उन्हे जिंदा दफना दो। कोर्ट ने तो कह ही दिया कि जो शिकायत करेगा उस पर लाखों रुपये का जुर्माना हो जाएगा। तो ये देश और जनता ऐसे ही चलते रहेंगे। इसी तरह अगर “शहराती बुद्धिजीविता” के असर में कोई बोलने लगे तो उसे ”अर्बन नक्सल” का लकब दो और गिरफ्तार कर लो। फिर कोर्ट में कह दो कि माई लार्ड, गिरफ्तार कर लिया है, अब रिमांड पर दे दो, या जमानत मत दो, कुछ ना कुछ आरोप इसके खिलाफ 5-7 सालों में हम लगा ही देंगे। बात खतम किस्सा खतम। विद्वजन ध्यान दें कि इतने दिनो बाद आया लेकिन नया शब्द लाना नहीं भूला ”बुद्धिजीविता” नए शब्दों की खोज का सृजन का अप्रतिम उदाहरण है। भई मेरा मानना ये है कि ऐसे ही नए शब्दों को खोज का हिंदी को समृद्ध करते जाना है। बाकी जाना तो सबको है, उनको भी जो ये समझ कर बैठे हैं कि वो मालिक मकान हैं, किराएदार नहीं….
खुदा खैर करे, ग़ालिब ने कहा था
मकानमालिकों से अपनी बनती नहीं ग़ालिब
वो किराया मांगते हैं, हम देने वाले नहीं…..
ग़ालिब ने ये शेर नई दिल्ली में जो बिल्डिंगे बनती ही किराए पर उठाने के लिए हैं, उन्हें देख कर कहा था, करीबन 1989-90 की बात थी, और ग़ालिब मालिक मकानों और किराएदारों के झगड़े से तंग आ चुके थे। तो कुल मिलाकर आप ये फैसला कीजिए कि मंहगाई हुई है या नहीं…..