बुकर से दिक्कतें – सच्चे हिंदी साहित्यवीर के मन की बात

कपिल शर्मा कपिल शर्मा
अजब-गजब Published On :

vyangya

जिनको व्यंग्य और हास्य में, फर्क समझ नहीं आता उनके लिए।
चेतावनी: निम्नलिखित लेख व्यंग्य है, इसे हास्य में ना लें। ये आप पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है, ये लेख पिछले कुछ दिनों से चल रहे घमासान की अंधेरी छाया में लिखा गया है। अगर आपको ऐसा लगता है कि ये आप पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहा है, तो कृप्या गिरेबां में झांकिए, और दृष्टि सुधारिए। फायदा होगा।

रेतसमाधि को एक अंर्तराष्ट्रीय पुरस्कार क्या मिल गया, सबके सब मुझे भूल गए। रेतसमाधि ऐसा कोई खास लिखा भी नहीं गया है। दो पन्नों की फोटो तो वैसे ही सबने डाल दी है, ना कोई काॅमा, ना कोई फुल स्टाॅप, और ना ही कोई अन्य व्याकरण की पहचान। कैसे मान ले इसे कोई लेखन। ये कोई बात हुई, अब तक कहीं नाम ही नहीं सुना था, और अब चारों तरफ शोर मच रहा हैं। सुन लीजिए, ये पुरस्कार, मूल उपन्यास को नहीं मिला है। अनुवाद को मिला है, अनुवाद को। मूल उपन्यास को मिले तब बताइएगा। और हिंदी में ऐसे-ऐसे महान लेखक हुए हैं, उन्हें तो पुरस्कार नहीं मिला। इन्हें कैसे मिल गया। बताइए तो। ये सब पुरस्कार-फुरस्कार जो हैं, पाॅलिटिक्स है जी। पूरी पाॅलिटिक्स है। ऐसे पुरस्कारों के लिए कैसे-कैसे जुगाड़ करने पड़ते हैं। जिसने ये जुगाड़ साध लिए, उसे मिलता है पुरस्कार। हम बहुत ईमानदार हैं, ऐसे जुगाड़ नहीं करते। इसलिए हमें ये पुरस्कार नहीं मिला।

अभी आपने पढ़ा ही क्या है। अजी आपने मेरा वो उपन्यास नहीं पढ़ा है ना, जो मैने अभी तक लिखा नहीं है। उसे पढ़ेंगे तब आपकी समझ में आएगा कि हिंदी साहित्य क्या होता है। ओ हो हो हो…..जब मैं वो उपन्यास लिख लूंगा ना, तो दुनिया भर के पुरस्कार मेरे कदमों में होंगे। तब आपको समझ में आएगा कि इस ”रेत सामधि” नाम के उपन्यास को पुरस्कार मिलना क्यों ग़लत है। अभी मैं सोच रहा हूं, कि लिख दूं कि नहीं लिखूं। वैसे मैने लिखा भी है कुछ-कुछ, आपने फेसबुक पर पढ़ा ही होगा। मेरे इतने फाॅलोवर हैं, कि कुछ कहने की हद नहीं है। और मेरे लिखते ही लोग उसे हाथों हाथ ले चुके हैं। कई बार तो मेरे पोस्ट ऐसे शेयर होते हैं, जैसे गर्मागम परांठे। देखिए वैसे मुझे कोई मलाल नहीं है। गीताश्री या जो भी नाम हो, उन्हें पुरस्कार मिला तो बधाई दीजिए। लेकिन साथ में ये दिमाग में रख लीजिए कि, ये पुरस्कार हमें गुलाम बनाने वालों ने दिया है। धत्….ये भी कोई पुरस्कार हुआ। और सच कहूं तो इस उपन्यास को पुरस्कार मिल ही नहीं सकता था, वो तो उसका अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो मिला। बताइए, ऐसे में पुरस्कार तो अनुवाद को मिला ना।

मुझे तो सोच-सोच कर ही बुरा लगता है। सोशल मीडिया पर बाढ़ आई हुई है, बधाई देने वालों की, अरे ये लोग क्या जाने हिंदी, और क्या जाने साहित्य। पिछले महीनें हिंदी और मैं, इलाहाबाद में गंगा के किनारे हाथों में हाथ डाले टहल रहे थे। हिंदी मुझे बहुत प्यारी लगती है। हिंदी ने मेरी आंखों में झांका और बड़े विश्वास से कहा, ”अब मुझे तुझ से ही उम्मीदे हैं। बस तू ही है जो मेरी नैया पार लगा सकता है” मेरी आंखों में आंसू आ गए। अब बताइए, जिस व्यक्ति से हिंदी को उम्मीदें हों, आप उससे उम्मीद लगाएंगे कि इस बेकार के बुकर पुरस्कार पर अपनी बधाइयां व्यर्थ करेंगे।

अरे अभी आपको पता नहीं है। ये सिर्फ हिंदी की लेखिका कहलाती हैं, रहती तो ये विदेश में हैं। ये कोई मिट्टी से जुड़ी लेखिका नहीं हैं, जैसे मैं हूं, वैसे प्रेमचंद आदि भी थे। लेकिन मान लीजिए कि उनका जमाना तो गुज़र गया, तो मुझे आप मिट्टी से जुड़ा लेखक मान सकते हैं। मैं यहीं की मिट्टी में पला बड़ा हुआ हूं और यहीं लिखता हूं। विदेश में नहीं रहता। कोई मेरे लेखन का अनुवाद नहीं करता। ये भी एक बड़ी वजह है कि मुझे बुकर नहीं मिला। दरअसल अगर मेरे लेखन का अनुवाद हो गया होता, तो बुकर छोड़िए मुझे तो नोबल भी मिल जाता। आप समझ नहीं रहे हैं, अनुवाद करवाने के लिए, जुगाड़ चाहिए। अब यूं समझिए कि डेज़ी राॅकवेल ने अगर अनुवाद नहीं किया होता तो क्या रेतसमाधि को बुकर मिल जाता। और डेज़ी राॅकवेल ने अनुवाद क्यों किया, इस पर किसी ने अब तक कोई सवाल नहीं उठाया। आखिर उसे क्या पता था कि बुकर मिल ही जाएगा। आप समझ नहीं रहे हैं बंधु ये बहुत उंचे स्तर का खेला है जिसे केवल मैं ही देख पा रहा हूं।

और ये क्या शोर लगा रखा है कि ये हिंदी की महान उपलब्धि है। ये हिंदी की उपलब्धि नहीं है, बल्कि शर्म की बात है। माने आप ये कहना चाह रहे हैं कि हिंदी के लेखक को सिर्फ तब ही मान्यता मिलेगी जब उसे कोई अंर्तराष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा। एक तो हमारे यहां इससे बेहतर पुरस्कार हैं, जो दिए जा सकते हैं। कइयों को दिए भी गए हैं, हालांकि उन्हें बुकर नहीं मिला। तो एक तो सवाल यही है कि जिन गीतांजलीश्री को हमारे यहां का एक भी लोकल पुरस्कार नहीं मिला, उन्हे बुकर कैसे मिल गया? यानी ये साजिश है। दूसरे, हमें हम हिंदी वाले हैं, हमें बुकर को नहीं, अपने पुरस्कारों को ज्यादा सम्मान से देखना चाहिए। इसलिए इस बुकर पुरस्कार से ज्यादा तारीफ अपने वाले पुरस्कारों की करनी चाहिए। इस बुकर की इतनी तारीफ क्यों हो रही है। इतनी ज्यादा तारीफ अच्छी नहीं है। अच्छा आपने मेरी वो पिछले से पिछले महीने वाली फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी? नहीं पढ़ी? उसे पढ़िए, उसमें मैने कैसा सुंदर विश्लेषण किया है। आप उसे पढ़िए तो सही एक बार, ये बुकर-उकर सब भूल जाएंगे, और तब आपको समझ में आएगा कि हिंदी साहित्य क्या होता है।
खैर, मैं बहुत ही तटस्थ और भावुक साहित्कार हूं। मुझमें ईगो और ईर्ष्या दोनों ही नहीं है, इसलिए गीतांजली श्री को बधाई, लेकिन….

चेतावनी: एक बार फिर से, ये एक व्यंग्य है।