क्या अदालत दीपक चौरसिया के इस अपराध का संज्ञान लेगी?

Mediavigil Desk
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राष्ट्रवाद पर पिछले महीने खड़ी हुई बहस की धूल को झाड़कर सारी दुनिया आगे बढ़ चुकी है, लेकिन इंडिया न्यूज़ के दीपक चौरसिया अब भी नहीं मान रहे। सबूत की चाह में एक रात इंडिया न्यूज़ के दफ्तर आकर दिल्ली पुलिस खाली हाथ लौट चुकी है, उन्‍हें झाड़ लगा चुकी है, फिर भी दीपक चौरसिया नहीं मान रहे। मंगलवार की रात नौ बजे इंडिया न्यूज़ ने जेएनयू प्रकरण पर वामपंथी छात्र संगठनों और एबीवीपी के सदस्यों के बीच एक खुली बहस आयोजित करवायी जिसमें ब्रेक पर जाने और वापस आने के लिए एक बेहद आपत्तिजनक ग्राफिक प्लेट चलायी गई। प्रोग्राम का पहला हिस्सा ख़त्म होते ही ब्रेक पर जाने से पहले जो तस्वीर परदे पर उभरी, उसमें कन्हैया, अनिर्बन और उमर खालिद की तस्वीरों के ऊपर एक सवाल लिखा था, ”देशद्रोही कौन?”

यह तस्वीर आपत्तिजनक ही नहीं बल्कि आपराधिक भी थी क्योंकि एक दिन पहले ही दिल्ली पुलिस अदालत के सामने स्‍वीकार कर चुकी है कि कन्हैया के खिलाफ़ उसके पास कोई वीडियो नहीं है जिसमें उसे देशद्रोही नारे लगाते दिखाया जा सके। इस बयान पर अदालत ने पुलिस को आड़े हाथों लिया था। सबसे बड़ी बात ये है कि अब तक तीनों छात्र रिमांड पर हैं और किसी के खिलाफ चार्जशीट तैयार नहीं हुई है। ऐसे में प्राइम टाइम पर जनता के सामने यह सवाल रखना कि तीनों में ”देशद्रोही कौन” है, न्यायिक प्रक्रिया का खुला मज़ाक है।

विडंबना यह भी है कि कार्यक्रम में मॉडरेटर की भूमिका में बैठे दीपक चौरसिया ने दोनों राजनीतिक धाराओं के चार-चार छात्रों के जिस समूह के बीच कुछ सवालों पर बहस करवायी, उसका इस सवाल से कोई लेना-देना नहीं था कि ”देशद्रोही कौन” है। यह सवाल समूचे कार्यक्रम में उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा, जिससे पता लगता है कि यह आपराधिक सवाल केवल दर्शकों को कार्यक्रम देखने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से ग्राफिक में लिखा गया था।

कार्यक्रम भी कोई खास निष्पक्ष नहीं रहा। मॉडरेटर चौरसिया ने दोनों समूहों को हर सवाल के जवाब के लिए दो मिनट का वक़्त दिया था। दो सवाल बीतते ही अचानक एबीवीपी के छात्रों के दो मिनट पूरा करने पर बज़र नहीं बजा और वे बोलते रह गए। बाद में जब वामपंथी संगठनों के छात्रों ने यह बात उठायी कि दूसरे समूह को ज्यादा वक़्त दिया गया है, तो चौरसिया ने पलट कर पहले तो उनसे इसका ”सबूत” मांगा और फिर उनके ऊपर यह आरोप मढ़ दिया कि उन्होंने ही इस बहस को ”फ्री फॉर ऑल” किया है।

बहस के आधा ख़त्म होने से पहले ही वामपंथी छात्र संगठन के सदस्य लगातार एक बात दुहरा रहे थे कि मामला अदालत में हैं और यहां बैठ कर उन सबको तीनों छात्रों का मीडिया ट्रायल करने का कोई हक नहीं है। इस बात को बार-बार कहा गया, लेकिन चौरसिया का कहना था कि वे केवल बहस करवा रहे हैं, कोई फैसला नहीं दे रहे हैं।

कार्यक्रम के अंत में भी ग्राफिक पर लिखे भडकाऊ सवाल का कोई जिक्र नहीं हुआ बल्कि चौरसिया ने केवल इतना कहा कि यह जनता के ऊपर है कि वह दोनों विचारधाराओं में से किसे रहने देना चाहती है, दोनों को या फिर किसी तीसरी विचारधारा को चुनती है। मतलब साफ़ था कि बहस विचारधारा पर करवायी गई लेकिन टीआरपी के लिए तीनों छात्रों के चेहरे और उकसाने वाले एक सवाल के ज़रिए ग्राफिक से एक ऐसी पहेली गढ़ी गई जिसे देखकर किसी भी दर्शक को एकबारगी यह भ्रम हो जाता कि शायद आज इस सवाल का जवाब मिलने वाला है कि तीनों में से असली ”देशद्रोही कौन” है।

मामला अदालत में पहुंचने के बाद अगर टीवी पर इस किस्म की चेहरा-पहेली बुझायी जा रही है, तो इसे मीडिया ट्रायल जैसे नरम शब्द से आगे जाकर अदालत की अवमानना कहना उपयुक्त होगा। क्या अदालतें जनता की इस स्वयंभू अदालत और जज का संज्ञान लेंगी?