रवीश कुमार के ‘डर’ पर सवाल उठाता सुशांत सिन्‍हा का खुला पत्र!

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सुशांत सिन्‍हा वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। एनडीटीवी में काम कर चुके हैं। रवीश कुमार के सहकर्मी रहे हैं। आजकल इंडिया न्‍यूज में हैं। इन्‍होंने रवीश कुमार को एक खुला पत्र लिखा है जिसकी चर्चा इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के लोगों के बीच है। वैसे तो खुले पत्र के लिए रवीश कुमार खुद जाने जाते हैं। अभी हाल में उन्‍होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुला पत्र लिखकर पूछा था कि क्‍या पीएम को फॉलो करने वाले वे लोग जो रवीश को ट्रोल करते हैं, कहीं उन्‍हें मरवा तो नहीं देंगे। रवीश लगातार अपने मारे जाने, ट्रोल किए जाने, अपने भीतर के डर आदि के बारे में बोलते रहे हैं। सुशांत सिन्‍हा ने इसी डर पर सवाल खड़ा किया है। रवीश कुमार की निंदा या आलोचना करने वाले लोगों की भाषा के उलट सिन्‍हा की भाषा बहुत विनम्र है, बातें दलील के साथ रखी गई हैं और कुछ घटनाओं का जि़क्र किया गया है।
मीडियाविजिल इस पत्र में उल्लिखित घटनाओं की पुष्टि नहीं करता लेकिन एक पूर्व सहकर्मी और वरिष्‍ठ पत्रकार की ओर से लिखे गए पत्र को बहसतलब बेशक समझता है। वैसे तो खुले पत्रों की परंपरा यह है कि इसे लिखते सब हैं लेकिन जवाब कोई नहीं देता, फिर भी लोकतांत्रिक बहस का तकाज़ा है कि रवीश कुमार इस पत्र का अपनी चिर-परिचित विनम्र शैली में तफ़सील से जवाब दें। मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए सुशांत सिन्‍हा का पत्र उनकी फेसबुक दीवार से साभार अविकल प्रकाशित कर रहा है।
-संपादक

 


प्रिय रवीश जी,

बहुत दिनों से आपको चिट्ठी लिखने की सोच रहा था लेकिन हर बार कुछ न कुछ सोचकर रुक जाता था। सबसे बड़ी वजह तो ये थी कि मेरा इन ‘खुले खत’ में विश्वास ही नहीं रहा कभी। खासकर तब से जब सोशल मीडिया पर आपकी लिखी वो चिट्ठी पढ़ ली थी जिसमें आपने अपने स्वर्गीय पिता को अपने शोहरत हासिल करने के किस्से बताए थे औऱ बताया था कि कैसे एयरपोर्ट से निकलते लोग आपको घेरकर फोटो खिंचवाने लग जाते हैं। बतौर युवा, जिसने 9 वर्ष की उम्र में अपने पिता को खो दिया था, मैं कभी उस खत का मकसद समझ ही नहीं पाया। मैं समझ ही नहीं पाया कि वो चिट्ठी किसके लिए थी, उस पिता के लिए जो शायद ऊपर से आपको देख भी रहा था और आपकी तरक्की में अपने आशीर्वाद का योगदान भी दे रहा था या फिर उन लोगों के लिए जिन्हें ये बताने की कोशिश थी कि आई एम अ सिलेब्रिटी। क्योंकि मेरे लिए तो मेरे औऱ मेरे स्वर्गीय पिता का रिश्ता इतना निजी है कि मैं हमारी ख्याली बातचीत को सोशल मीडिया पर रखने का साहस कभी जुटा नहीं सकता।

खैर, वजह आप बेहतर जानते होंगे लेकिन उस दिन से ऐसा कुछ हुआ कि मैंने चिट्ठी न लिखने का फैसला कर लिया। लेकिन कल आपकी वो चिठ्ठी पढ़ी जो आपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखी थी। आपके बीते कुछ दिनों के बयानों औऱ इस चिठ्ठी से मेरे मन में कुछ सवाल आए और साथ ही बतौर पूर्व सहकर्मी, मुझे लगा कि मुझे आपको बताना चाहिए कि आप ‘बीमार’ हैं औऱ आपको इलाज की ज़रुरत है। कृपा कर इसे अन्यथा मत लीजिएगा क्योंकि मुझे आपकी चिंता है इसलिए तहे दिल से ये खत लिख रहा हूं।

पहली बीमारी- बिना वजह अनदेखे डर से भयग्रस्त रहना

आपकी चिट्ठी पढ़कर जो पहला सवाल मन में आया था वो ये कि आपको बेरोज़गार होकर सड़क पर आ जाने की चिंता सता भी कैसे सकती है? आपकी तनख्वाह लाखों में हैं। अगर गलत नहीं हूं तो करीब 8 लाख रुपए प्रति महीने के आसपास। यानि साल का करीब करीब करीब 1 करोड़ रुपया कमा लेते हैं आप। सुना है आपकी पत्नी भी नौकरी करती हैं। यानि आपके घर बैठने की नौबत भी आई तो वो घर चला ही लेंगीं। और दोनों घर बैठे तो भी साल के करोड़ रुपए की कमाई से आपने इतना तो बचा ही लिया होगा कि आप सड़क पर न आ जाएं। इतने पैसे की सेविंग को फिक्स भी कर दिया होगा तो भी इतना पैसा हर महीने आ जाएगा जितना मीडिया में कइयों की सैलरी नहीं होती। पैसा घर चलाने भर नहीं बल्कि सामान्य से ऊपर की श्रेणी का जीवन जीने के लिए आएगा। अब अगर आपकी जीवन शैली किसी अरबपति जैसी हो गई है कि लाख-दो लाख रुपए प्रति महीने की कमाई से काम नहीं चलेगा तो कह नहीं सकता। लेकिन घबराने की तो कतई ज़रुरत नहीं है। आप खुद भी चाहें तो भी आप और आपके बच्चे सड़क पर नहीं आ सकते और कुछ नहीं तो मेरे जैसे कई पूर्व सहकर्मी हैं हीं आपकी मदद के लिए।

हिम्मत लीजिए उनसे और सोचिए ज़रा अपने ही दफ्तर के उन चपरासियों और कर्मचारियों के बारे में जिनकी तनख्वाह 20-30 हज़ार रुपए महीने की थी और जिन्हें संस्थान ने हाल ही में नौकरी से निकाल दिया। आप करोड़ रुपए कमा कर सड़क पर आ जाने के ख़ौफ से घिर रहे हैं, उनकी और उनके बच्चों की हालत तो सच में सड़क पर आ जाने की हो गई होगी। और आप उनके लिए संस्थान से लड़े तक नहीं? आपको तो उनका डर सबसे पहले समझ लेना चाहिए था लेकिन आप आजकल पीएम को चुनौती देने में इतना व्यस्त रहते हैं कि अपने संस्थान के ही फैसले को चुनौती नहीं दे पाए? खैर, कोई नहीं… टीवी पर गरीबों का मसीहा दिखने औऱ सच में होने में फर्क होता ही है। पीएम को चुनौती देकर आप हीरो दिखते हैं, मैनेजमेंट को चुनौती देकर नौकरी जाने का खतरा रहता है और कोई ये खतरा क्यों ले। और नौकरी जाने का डर कितना भरा है आपके मन में ये तो आपके साथ काम करने वाले कई लोग अच्छे से जानते हैं। कुछ लोग तो वो किस्सा भी बताते हैं कि आउटपुट के एक साथी को नोटिस मिला औऱ वो पार्किंग लॉट में आपसे मिलकर मदद की गुहार लगाने आया तो आपने गाड़ी की खिड़की का शीशा तक नीचे नहीं किया और अंदर से ही हाथ जोड़कर निकल लिए। जबकि आप भी जानते थे कि उसका दोष मामूली सा था। आप उसके साथ खड़े हो जाते तो उसकी नौकरी बच जाती। लेकिन आपने उसके परिवार के सड़क पर आ जाने का वो दर्द महसूस नहीं किया जो आजकल आप महसूस कर रहे हैं अपने बच्चों के लिए।

खैर, जाने दीजिए। आपके डर को बेवजह इसलिए भी बता रहा हूं कि आप खुद सोचिए कि जिस नरेन्द्र मोदी को आप महाशक्तिशाली बताते हैं वो 2002 के बाद से 15 साल इंतज़ार करते रहेंगे आपकी नौकरी खाने के लिए? इतना ही नहीं, पिछले तीन साल से तर्क और कुतर्क के साथ आपने सरकार पर सवाल उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी तब भी बीजेपी का ग्राफ़ ऊपर से भी ऊपर ही गया, वो चुनाव पर चुनाव जीतते गए तो वो आपकी नौकरी क्यों खाना चाहेंगे? आपके तार्किक और गैर तार्किक विरोध से या तो उनको फर्क नहीं पड़ रहा या फिर उनका फायदा ही हो रहा है, ऐसे में आपकी नौकरी खाने में उनकी क्या दिलचस्पी होगी? ये डर आपके अंदर कोई भर रहा है, जानबूझकर औऱ वो आपके आसपास ही रहता है। कौन है खुद सोचिएगा।

बस कहना मैं ये चाह रहा हू कि आप अपने मन से सड़क पर आने का खौफ निकाल दीजिए क्योंकि ये बेवजह का डर है। नौकरी गई भी तो इतने काबिल हैं आप, कोई न कोई और नौकरी मिल ही जाएगी आपको भी। कुछ नहीं तो बच्चों को पढ़ाकर घर चल ही जाएगा। आपकी लेखनी का कायल तो मैं हमेशा से रहा हूं, आपको पता ही है… कुछ नहीं तो हिन्दी फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखकर भी आपका घऱ चल जाएगा। पीएम के नाम चिठ्ठी में बच्चों के सड़क पर आ जाने का जो इमोशन आपने डाला था वैसा ही इमोशन और एक दिन शो में जैसे आप पीएम को ललकार रहे थे, वैसा ही अग्रेशन.. दोनों को मिलाकर स्क्रिप्ट लिख देंगे तो पक्का फिल्म चलेगी। मेरी गारंटी है।

दूसरी बीमारी- स्पलिट पर्सनालिटी या दोहरे व्यक्तित्व का शिकार हो जाना

इस बीमारी में इंसान खुद ही समझ नहीं पाता कि उसके अंदर दो दो इंसान पल रहे होते हैं। आप खुद लिखते हैं अपने बारे में औऱ बताते भी हैं कि आप बिना सवाल पूछे नहीं रह पाते, सच के लिए लड़ने से और सवाल उठाने से खुद को रोक नहीं पाते लेकिन आपके अंदर ही एक दूसरा रवीश कुमार रहता है जो इतना डर सहमा होता है कि नौकरी के मोह में अपने खुद के संस्थान या बॉस से कोई सवाल ही नहीं पूछता। आपको याद है न कि कैसे एक दिन अचानक एनडीटीवी के मैनेजिंग एडिटर ने फरमान सुना दिया था कि देश के लिए जान देने वाले और शहीद होनेवाले सैनिक को हम ‘शहीद’ नहीं कहेंगे और न हीं लिखेंगे बल्कि उसे ‘मर गया’ बताएंगे। ऊपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच गया था कि देश के लिए जान कुर्बान करनेवाले सैनिक के प्रति इतना असम्मान क्यों? लेकिन आप तब भी चुप रह गए थे। कुछ नही बोले, न कोई सवाल उठाया।

और वो किस्सा भी याद होगा आपको जब एक फेसबुक पोस्ट लिखने पर मुझे नौकरी तक से निकाल देने की धमकी दे दी गई थी। पोस्ट में मैंने सिर्फ इतना लिख दिया था कि हम देश की अदालत और उसके फैसले का सम्मान करते हैं तो फिर इस तथ्य का सम्मान क्यों नहीं करते कि देश की किसी भी अदालत ने नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों का दोषी करार नहीं दिया है औऱ क्यों मीडिया की अदालत आज भी उन्हें दोषी करार देकर सज़ा देने पर आमादा है अपने अपने स्टूडियो में?

बोलने की आज़ादी के सबसे बड़े पैरोकार बनने वाले चैनल ने क्यों मेरी आज़ादी पर पाबंदी लगा दी औऱ आप चुप रह गए? आप मेरे साथ क्यों खड़े नहीं हुए? क्यों मेरी तरफ से मैनेजिंग एडिटर को खुली चिठ्ठी नहीं लिखी कि ये तो सीधा सीधा मेरे बोलने और विचारों की आजादी की हत्या है औऱ इसे रोका जाना चाहिए? ऐसे ही कितनी बार कितनों के साथ उनकी बोलने की आज़ादी का हनन हुआ पर आप किसी के लिए नहीं लड़े,क्यों? मैं सोचता रह गया था लेकिन अब पता चला कि दरअसल, दो दो रवीश हैं। एक वो रवीश, जो टीवी पर खुद को मसीहा पत्रकार दिखाता है औऱ दूसरा वो रवीश जो डर सहमा नौकरी बजाता है। एक रवीश जो प्रधानमंत्री को चैलेंज करता है औऱ दूसरा वो जो चुपचाप सिर झुकाकर संस्थान के मालिक/बॉस की हर बात सुन लेता है।

तीसरी बीमारी- खुद को हद से ज्यादा अहमियत देना और महानता के भ्रमजाल में फंस जाना

मुझे आज भी याद है कि कैसे आपने अहंकार के साथ न्यूज़ रुम में कहा था कि आप अमिताभ बच्चन के साथ एक शो करके आए हैं औऱ एडिटर को बोल दिया जाए कि जब शो एडिट हो तो बच्चन साहब से ज्यादा आपको दिखाए स्क्रीन पर क्योंकि लोग बच्चन साहब से ज्यादा आपको देखना चाहते हैं। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ था लेकिन जो सामने था उसे कैसे नकारता। आपकी टीम के लोग भी आपसे दुखी रहते हैं क्योंकि आप अपने आगे किसी को कुछ समझते नहीं और सबको तुच्छ प्राणी सा एहसास कराते हैं। उस दिन आप गौरी लंकेश की हत्या पर हुए कार्यक्रम में बोलने गए तो वहां भी बोलने लग गए कि सब आपको कह रहे हैं कि आप ही बचे हैं बस, थोड़ा संभलकर रहिएगा। आप खुद को इतनी अहमियत क्यों देते हैं? आपके पहले भी पत्रकारिता थी, आपके बाद भी होगी, नरेन्द्र मोदी के पहले भी राजनीति थी औऱ उनके बाद भी होगी। आप क्यों इसे सिर्फ और सिर्फ रवीश Vs  मोदी दिखाकर खुद का कद बढ़ाने की जद्दोजहद में वक्त गंवा रहे हैं। इसी बीमारी का नतीजा है कि आप हर बात में अपनी मार्केटिंग का मौका ढूंढने में लगे रहते हैं। आपके आसपास ही इतने सारे प्रतिभावान पत्रकार एनडीटीवी में ही हैं जो बिना खुद की मार्केटिंग किए शानदार काम कर रहे हैं। आप उनसे सीख भी सकते हैं और प्रेरणा भी ले सकते हैं। दिन रात खुद को अहमियत देना बंद कर दीजिएगा तो चीज़ें सामान्य लगने लगेंगी।

मेरी मानिए, रवीश की रिपोर्ट वाले रवीश बन जाइए। आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़नेवाला। मैं डॉक्टर तो नहीं लेकिन मुझे लगता है कि इन सारी बीमारियों का इलाज होना ज़रुर चाहिए। किसी डॉक्टर से मिलकर देखिए एक बार। आप जैसे प्रतिभावान पत्रकार की ज़रुरत है देश को। और कभी पत्रकारिता छोड़िएगा तो नेता बनने से पहले एक बार अभिनेता बनने पर विचार ज़रुर कीजिएगा, मुझे उसका कौशल भी दिखता है आपमें।

हो सके तो इस चिट्ठी का जवाब भी मत दीजिएगा क्योंकि अभी आप बीमार हैं, आप इस चिठ्ठी को भी अपनी मार्केटिंग का जरीया बनाने लग जाइएगा बिना सोचे समझे। इसलिए इसका प्रिंटआउट तकिये के नीचे रखकर सो जाइएगा औऱ गाहे बगाहे पढ़ लीजिएगा।

आपके जल्द सकुशल होने की कामना के साथ

सुशांत सिन्हा
साथी पत्रकार