विनोद कापड़ी और अजित अंजुम मानवाधिकार का मतलब नहीं जानते-रिहाई मंच

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10 दिसंबर को दुनिया भर में ‘अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकर दिवस’ मनाया जाता है क्योंकि 1948 में इसी दिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने “युनिवर्सल डेक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स” को स्वीकार किया था। इसका मकसद सभी को मानवाधिकारों के प्रति जागरूक करना था। यह बताना था कि हर मनुष्य के पास बिना किसी भेदभाव के कुछ  ऐसे अधिकार हैं जिन्हें किसी भी क़ीमत पर छीना नहीं जा सकता। इनमें एक अधिकार न्याय माँगने का भी है। भारत  सरकार भी संयुक्त राष्ट्र की इस घोषणा से बँधी है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि हाल के दिनों में मानवाधिकारवादियों का मज़ाक उड़ाने का चलन तेज़ हुआ है। ख़ासकर उन्हें आतंकवादियों का हमदर्द बताने की कोशिश की जाती है। पिछले दिनों , सुरक्षा बलों के हाथों  कश्मीर में गए  उग्रवादी  बुरहान वानी के कथित उत्तराधिकारी ज़ाकिर का धमकी देने वाला एक वीडियो चर्चित हुआ था । इसे ट्वीट करते हुए इंडिया टीवी के पूर्व संपादक और अब फ़िल्मकार विनोद कापड़ी ने लिखा  कि इसका एन्काउंटर होगा तो ‘एक तबका ‘ मानवाधिकार का  सवाल उठाएगा। इस ट्वीट को इंडिया टीवी के मौजूदा संपादक अजित अंजुम ने रीट्वीट किया। मानवाधिकार के क्षेत्र में काफ़ी सक्रिय रिहाई मंच ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि ऐसे लोग मानवाधिकार का मतलब ही नहीं जानते। मंच के महासचिव राजीव यादव ने एक प्रतिवाद मीडिया विजिल को भेजा है जिसे हम इस उम्मीद के साथ प्रकाशित कर रहे हैं कि पत्रकारों के बीच मानवाधिकार पर कोई सार्थक बहस चल सकेगी–संपादक   

 

“अगर आप हमारे परिवार वालों को छेड़ेंगे तो हम आप को नहीं छोड़ेंगे “- हिजबुल मुजाहिदीन के ज़ाकिर के आए इस वीडियो के बाद जो बहस आई और खास तौर पर कुछ चैनलों के हेड व संपादकों ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी उस पर आज के समय में बात करना बहुत जरुरी है। दुनिया को और अधिक स्वतंत्र बनाने और समानता की ओर ले जाने के लिए मानवाधिकार दिवस पर यह बहस बहुत प्रासंगिक है।

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कभी ज़ी न्यूज़, स्टार न्यूज़, इंडिया टीवी के संपादक रहे विनोद कापड़ी ने सीएनएन न्यूज 18 के एक वीडियो क्लिप को ट्वीट करते हुए लिखा कि ‘वानी के वारिस को सुनिए। और जब ऐसे आतंकी का कभी एनकाउंटर होगा तो एक तबका फिर शोर मचाने लगेगा इसके मानवाधिकार के लिए।’ ‘यहां मैं जो भी लिखता हूं, वो मेरी राय है। चैनल से कोई लेना-देना नहीं’ – अपने ट्विटर पर खुद के बारे में यह बताने वाले इंडिया टीवी के अजित अंजुम जैसों ने इसे रीट्वीट किया। इसे 1967 से एबीवीपी से जुड़े स्वंय सेवक बाबू सिंह रघुवानही ,जिनका  प्रोफाइल बताता है कि वे बीजेपी स्टेट एक्स सेक्रेटरी, जनसंघ, वर्तमान में चेयरमैन मध्य प्रदेश लघु उद्योग निगम से हैं,  ने भी रीट्वीट किया।

vinod-kapri-twitterमानवाधिकार के लिए लड़ने वालों पर जिस तरह से कभी आतंकवादी तो कभी नक्सलवादियों के समर्थन का आरोप ajit-anjum-twitterलगायाजाता है। इस पर टिप्पणी करने से पहले भारत में मानवाधिकार सम्बन्धी बहस को समझना निहायत जरुरी है।1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुबई धमाकों जैसी बड़ी घटनाओं के बाद 12 अक्टूबर 1993 को मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के तहत बने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मानना है कि अधिकतर आतंकवाद ऐसे जगह फलीभूत होता है जहां राज्य द्वारा मानवाधिकार, विशेष रुप से आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की मनाही की जाती है  और राज्य दोषियों को सज़ा नहीं देता है।

आयोग की इन बातों के आलोक में देखा जाए तो क्या जम्मू और कश्मीर में मौजूदा विवाद के लिए क्या हमारा राज्य जिम्मेवार नहीं है? अगर ऐसा नहीं है तो भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन ही क्यों किया गया ? ज़ाकिर ने जिस तरह से कहा कि अगर उनके परिजनों को सेना-पुलिस मारेगी तो वो भी मारेंगे, वह इस बात को स्पष्ट करता है कि राज्य उनके परिजनों पर जुल्म ढाता है। ठीक इसी तरह नक्सली राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं के परिजनों के साथ भी किया जाता है। हम सिर्फ ज़ाकिर को हिंसात्मक कहकर नहीं बच सकते।  क्या राज्य इसका जवाब देने को तैयार है कि उसने जिस तरह से कहा कि उनके परिजनों को परेशान किया जाता है, क्या वह सच्चाई नहीं है। क्या हम माछिल और छत्तीसिंह पुरा जैसी फर्जी मुठभेड़ों को भूल जाएँ।

‘वानी के वारिस को सुनिए’ कहने वालों से सवाल है कि क्या हम उन छोटे-छोटे मासूम बच्चों और महिलाओं के चेहरे का भूल जाएँ जिन पर हमारी सरकार ने पैलेट गन का इस्तेमाल किया। क्या ऐसा करके राजनीतिक सत्ता द्वारा व उसपर चुप्पी रखकर न्यायालय द्वारा उनके मानवाधिकारों का हनन नहीं हुआ है? सिर्फ आप यह कह देंगे की ज़ाकिर ने हिंसा की बात की।  ऐसा कर आप भारत की लोकतांत्रक प्रक्रिया को खत्म करने की कोशिश करेंगे। ज़ाकिर जिस भी विचार से संचालित होकर इस बात को कह रहा होगा कि आँख के बदले आँख,  पर ऐसी विचार प्रक्रिया पर अगर राज्य चला तो स्थिति और भी भयावह होगी। हमारे महानुभाव संपादकों की नज़र क्यों नहीं देख पाती कि कश्मीर में लंबे समय तक कर्फ़्यू लगाकर इंसाफ़ की आवाज को दबाने की कोशिश की गई। इसी कोशिश के चलते खुर्रम परवेज़ जैसे मानवाधिकारवादियों और कश्मीर के क्षेत्रीय अख़बारों पर पाबंदी लगाई जाती है, लेकिन इन वरिष्ठ पत्रकारों की ओर से एक भी ट्वीट नहीं फूटता। kashmir-r-day

न्याय न मिलने से उपजा यह असंतोष पूरे देश में दिखता है। इस बात को जब देश की सर्वोच्च संस्था मानती है कि यह राज्य का उत्तरदायित्व है तो इस आतंकवाद के लिए सबसे बड़ा दोषी राज्य है। इस बात की तस्दीक श्री कृष्ण आयोग की रिपोर्ट भी करती है कि मुबई में दिसंबर 92 और जनवरी 93 में हुए दंगों में राज्य सरकार और पुलिस ने उनके हितों की रक्षा करने के बदले सांप्रदायिक दंगों का नेतृत्व करने वाले लोगों से हाथ मिलाया, ऐसा मुस्लिमों का पक्का विश्वास था। पाकिस्तान की खूफिया एजेंसी आइएसआई ने दंगों में सताए गए मुस्लिम युवकों को भड़काकर प्रतिशोध के लिए प्रेरित किया  (प्रथम खण्ड पृष्ठ 43) । ऐसे में देखा जाए तो इंसाफ देने में विफल राज्य की कमजोरियों के चलते दूसरा देश आपके खिलाफ आपके अपनों की ही खड़ा कर देता है।  ऐसे में जो लोग ज़ाकिर की बात पर कह रहे हैं कि ‘जब ऐसे आतंकी का कभी एनकाउंटर होगा तो एक तबका फिर शोर मचाने लगेगा इसके मानवाधिकार के लिए’ तो वाकई संजीदगी से सोचने की जरुरत है।

यहाँ सवाल हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली पर उठता है कि बुरहान हो या ज़ाकिर, उन्हें न्याय के किन समीकरणों ने हताश और आक्रोशित किया। आखिर यह न्याय का कौन सा समीकरण है कि 93 के मुबंई धमाकों, जिसमें ढाई सौ लोग मारे गए, के नाम पर किसी याकूब मेमन को तो सूली पर टाँग दे, लेकिन इन धमाकों को प्रेरित करने वाली घटना,  यानी बाबरी मस्जिद तोड़ने ( जिसके बाद हुए दंगे में ढाई हज़ार लोग मारे गए) के अभियुक्त खुलेआम संसदों में बैठे हैं। आखिर क्यों ये जेल की सलाखों के पीछे नहीं हैं ? क्या ख़ुफिया, पुलिस और सरकार को बाल ठाकरे के घर का पता नहीं मालूम था ? आप क्या इस पर नहीं विचार करेंगे कि बाल ठाकरे के मरने के बाद जिस तरह से राजकीय सम्मान से अन्तेष्टि की गई, वह हमारे देश में इंसाफ के दो समीकरणों का नमूना है ? आखिर किसी अख़लाक के हत्यारोपी की असमायिक मौत के बाद राष्ट्रीय ध्वज में शव को लपेटकर सम्मान देना क्या इंसाफ़ को मुंह चिढ़ाना नहीं है ? क्या न्याय का यह समीकरण किसी भी सामान्य व्यक्ति को व्यवस्था के दायरे को लाँघकर न्याय पाने की कवायद के लिए प्रेरित नहीं करेगा ?

हद तो यह है कि मानवाधिकार व लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए शोर मचाने वाले जिस तबके को देशद्रोही ठहराने की कोशिश की जा रही है, दरअसल वही तबका नाइंसाफियों से उपजे असंतोष को हल की दिशा देता है। जो लोग इसका विरोध करते हैं दरअसल वो अपने विरोधियों को मजबूत कर, नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के ख़िलाफ षडयंत्र करते हैं।

ऐसा तो नहीं है कि न्याय न मिलने से उपजी, ‘एक समुदाय’ की आवाज को आतंकवाद का नाम देकर दबाने की कोशिश हो रही है। हम आतंकवादी घटनाओं के बाद मारे गए लोगों की गिनती करने तक सीमित रहते हैं, जबकि मारे जाने के राजनीतिक कारण बहुत बड़े हैं। हम इस निष्कर्ष से बच नहीं सकते कि हमारा शासक वर्ग ऊपर से चाहे जो भी कहे, पर उसकी कार्यनीति कमजोर पर किए गए अत्याचार को उतना ही स्वाभाविक मानती है, जितना की सांस लेना।  क्या हम पिछले तीन दशकों में जम्मू और कश्मीर में मारे गए उन बेगुनाहों को आतंकी घटनाओं के आरोपों के सामने मामूली मानकर भुला देने की कोशिश कर रहे हैं? क्या हम उन ‘हाॅफ विडोज़’ और उनके बच्चों के दर्द को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। यह कोशिश स्वाभाविक नहीं है। हम पर आतंकवाद का दबाव बनाकर ऐसा करवाया जा रहा है। राज्य ने हमसे सच्चाइयों की याददाश्त को किसी अंधेरे कोने में दबवा दिया है। सेना और अर्धसैनिक बलों द्वारा मारे गए लोगों की आवाजें मानव सभ्यता के सबसे क्रूर दौर की शिनाख़्त हैं।

rihai-manchहमें मानवाधिकार आयोग गठन के पहले की देश की स्थितियों पर गौर करना होगा। ठीक इसके पहले बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसके बाद सांप्रदायिक हिंसा और मुंबई में बम धमाके जैसी वीभत्स घटनाएं हुई थीं। इस दरम्यान बिहार की जातीय हिंसा, मुरादाबाद में पुलिस फायरिंग में 284 लोगों का मार दिया जाना, 84 का सिख विरोधी दंगा, हाशिमपुरा और मलियाना में मुस्लिमों को चुन-चुनकर मारा जाना, भागलपुर में सांप्रदायिक हिंसा जैसी बड़ी घटनाएं हुई थीं। यह सिर्फ घटनाएँ नहीं थी बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की असफलता थी, जिसपर उठ रहे सवालों के कारण भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया।

सूचना के मुक्त प्रवाह द्वारा एक खास प्रकार के पूर्वाग्रह को तैयार करने की कोशिश हमारे महानुभाव संपादक लोग कर रहे हैं। इस बात से हम नहीं इंकार कर सकते हैं कि जब सामूहिक चेतना के नाम पर अफजल गुरु को फाँसी पर लटका दिया जाता है तो उसमें मीडिया की एक पक्षीय खबरों की प्रस्तुति का योगदान नहीं था। जो भी व्यक्ति, राज्य द्वारा आतंकी मामलों के लिए संदेह के दायरे में आता है उसको मीडिया ट्रायल में प्रथम दृष्टया आतंकवादी करार दे दिया जाता है।

भारतीय सेनाओं द्वारा पूर्वोत्तर के राज्यों में किए जा रहे दमन,और जिस भारत माता की बात पिछले दिनों मुखर हुई उसकी बेटियों के साथ खुलेआम भारतीय सेना के जवान बलात्कार करते हैं और वो नग्न होकर ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ का बैनर लेकर कर प्रदर्शन करती हैं। क्या इसे भुलाया जा सकता है? नहीं। पूर्वोत्तर के राज्यों में अफ्सपा के दुरुपयोग को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार करते हुए सेना द्वारा किए गए 1583 एनकाउंटर को संदिग्ध माना है। इरोम ने आफ्स्पा के खिलाफ जो डेढ़ दशक का अनशन किया, उसने एक ‘फेल्ड स्टेट’ के स्वरुप को ही उजागर किया है। आज जिस जम्मू-कश्मीर की बात हो रही है वहां सेना के बल पर हजारों अनाम कब्रें खोदी गई है। एक छोटे से आँकड़े के मुताबिक पचपन गावों में 2700 कब्रों में 2943 लाशें दफ्न की गईं। कश्मीर से लेकर हाशिमपुरा, कंधमाल, भागलपुर-गुजरात तक ऐसी कब्रें आज भारतीय राज्य पर एक सवाल हैं जो उनके साथ हुआ। क्या होता? जो ऐसा उनके साथ न होता?

इसलिए हे संपादकों, मानवाधिकार का मसला ‘एक तबके’ का शोर नहीं, भारत की सच्चे अर्थों में आज़ाद और सभ्य बनाने की मुहिम है। अफ़सोस कि आप इसके ख़िलाफ़ खड़े हैं।

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राजीव यादव

महासचिव, रिहाई मंच