मोदी को गाली देने का आरोप लगाकर जिग्नेश को गाली दे रहे हैं चैनल !

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आजकल चैनलों में एक मुद्दा छाया हुआ है- गुजरात के नवनिर्वाचित विधायक जिग्नेश मेवानी ने पीएम मोदी को गाली दी। माफ़ी माँगें। मेवानी ने आज तक में अंजना ओम कश्यप की कचहरी में कहा था कि मोदी बोर करते हैं। वे बूढ़े हो गए हैं। बेहतर हो कि वे हिमालय में जाकर हड्डियाँ गलाएँ। इसी ” हड्डियाँ गलाने” को चैनल लेकर उड़ गए हैं, जबकि इसका अर्थ होता है मेहनत करना। हिमालय भी ऋषि मुनि जाते ही थे। मोदी 67 के हैं, जबकि संघ के एक बड़े नेता नानाजी देशमुक 60 के बाद नेताओं को रिटायर होने को कहते थे। ख़ुद इस कसौटी पर खरे भी उतरे थे। तो फिर गाली कौन सा शब्द है..? अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता में आता है-नवदधीच हड्डियाँ गलाएँ, आओ मिलकर दिया जलाएँ ! यानी अटल कहें तो मंत्र और जिग्नेश कहें तो गाली..!
मशहूर पत्रकार ओम थानवी ने अपनी फ़ेसबुक दीवार पर इसे लेकर कड़ी टिप्पणी की है। एक तो चैनलों के अज्ञान पर सवाल है और दूसरा ये कि प्रधानमंत्री मोदी की न जाने कितनी अपमानजनक टिप्पणियों पर वे कभी पंचायत क्यों नहीं बैठाते।  

1.

क्या तमाशा है! हिंदी की टाँग न जानने वाले हिंदी के एक सामान्य मुहावरे को गाली बताकर उस पर बहस कर रहे हैं।

जिग्नेश मेवानी ने गुजरात में मोदी का उतरता जादू देख टिप्पणी की थी कि मोदीजी को अब हिमालय पर चले जाना चाहिए और वहां जाकर हड्डियां गलाना चाहिए।

संदर्भ यह रहा होगा कि मोदी बताते आए हैं उन्होंने दो साल हिमालय की कंदराओं में कठिन तपस्या की (की नहीं की, यह अलग विवाद है)। हिमालय की बर्फ़ीली हवाओं में तपस्या हड्डियाँ गला देने वाली मानी जाती है। मोदी चुनाव में कमज़ोर होकर उभरें और ऐसे में कोई विरोधी नेता तंज़ में कहे कि अब वापस हिमालय की राह पकड़ो, इसमें गाली क्या है?

जिन्हें अब भी हड्डी गलाने में गाली दिखाई देती हो, उन्हें मानक हिंदी मुहावरा कोश (भाग 2, पृष्ठ 960) देखना चाहिए। कोश के मुताबिक़ हड्डियाँ गल जाने का अर्थ होता है -“काम में पूर्णतः खप जाना”।

ज़रूरी नहीं कि मेवानी सचमुच चाहते हों कि मोदी पहाड़ों में साधुओं के बीच फिर से जा खपें और उनकी हड्डियाँ नई “तपस्या” में गल जाएँ। वे उनकी चुनावी विफलता पर महज़ टीका कर रहे हैं, जो उनका हक़ है।

मुझे लगता है, एक युवा दलित नेता पर गाली का आरोप मढ़ना ख़ुद उसे गाली देने से कम नहीं

 

2.

मोदी के बारे में हल्की बात करने पर टीवी विशेष कार्यक्रम आयोजित करते हैं। अय्यर और जिग्नेश मेवानी की टिप्पणियाँ ताज़ा मिसाल हैं। हालाँकि मेवानी की टिप्पणी को आपत्तिजनक कहना सही नहीं लगता।

लेकिन जब मोदी के श्रीमुख से हल्की बात निकले तब? मोदी ने अभी चंद रोज़ पहले पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व उपराष्ट्रपति, पूर्व सेनाध्यक्ष आदि को देशद्रोही गतिविधि के आरोप में लपेट लिया था। देशद्रोह का शक क्या मामूली गाली थी?

मोदी ही थे जिन्होंने केजरीवाल को AK-49 कहा और नक्सलवादी भी।अक्सर आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली राइफ़ल AK-47 को प्रतिद्वंद्वी नेता से जोड़ने का क्या सबब था, किसी ने पूछा? नीतीश कुमार (जो अब उनके जोड़ीदार हैं) के DNA तक में उन्होंने समस्या देखी। मामूली आक्षेप था? 50 करोड़ की गर्लफ़्रेंड? सोनिया गांधी के लिए जरसी गाय, राहुल के लिए हाइब्रिड बछड़ा? पार्टी के अन्य नेताओं के ख़िलजी वंशज मार्का बयान अभी छोड़ दीजिए।

अब देखिए नीच प्रयोग को। मणि और मोदी दोनों अहिंदी भाषी हैं, हालाँकि गुजराती भाषा हिन्दी से बहुत दूर नहीं मानी जाती। फिर भी दोनों बहुत सम्भव है कि हिंदी की बारीकियाँ न जानते हों। जैसे यह कि नीच शब्द एक समाज को नीचा दिखाने के लिए गढ़ा गया होगा।

मणि ने नीच आदमी कहा, जिसमें मोदी ने जाति शब्द जोड़ कर भाषणों में कांग्रेस के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया।

पर ख़ुद मोदी ने मई 2014 में, अपने लोकसभा चुनाव-प्रचार में वाल्मीकिनगर (बिहार) में एक बार नहीं, पाँच बार नीच शब्द का इस्तेमाल किया था, कांग्रेस की ‘नीच राजनीति’ और ‘नीच (राजनीतिक) कर्म’ शब्दों को दुहराते हुए। जबकि इससे एक रोज़ पहले डुमरियागंज (उप्र) में बोलते हुए प्रियंका गांधी के अमेठी में दिए नीची राजनीति वाले बयान (ठीक-ठीक शब्द क्या थे यह स्पष्ट नहीं होता, अलग-अलग रिपोर्टिंग हुई) की उन्होंने अपनी “नीची जाति” से जोड़कर ख़ूब मलामत की थी। ठीक यही उन्होंने मणि के बयान पर किया।

जो ख़ुद संवेदनशील प्रयोगों में ऐसी छूट लें और दूसरों को उन्हीं प्रयोगों के लिए हड़का कर सहानुभूति बटोरें, हिक़ारत पैदा करें – टीवी वाले कभी गालीगलौज के इस पहलू की ख़बर भी लेंगे?