जिनका ग्राउंड पर रिपोर्टर ही नहीं, वे ‘ग्राउंड रिपोर्ट’ दिखा रहे हैं !

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ना के बराबर ही मीडिया संस्थान ऐसे होंगे, जिनका छत्तीसगढ़ में कोई स्थायी प्रतिनिधि होगा और वहां के हालात की ख़बरें आप तक रोज़ पहुंचती होगी. सुकमा हमले के बाद आपने टीवी स्क्रीन पर एक शब्द देखा होगा ग्राउंड रिपोर्टिंग, ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्ट. आम तौर पर लाल रंग से ग्राउंट ज़ीरो लिखा होता है. जहां से रिपोर्टिंग ज़ीरो है, वहां के ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्टिंग हो रही है. ग्राउंड ज़ीरो का मतलब क्या होता है, इसके लिए हमने दो डिक्शनरी की मदद ली, मैक्स वेबस्टर और आक्सफोर्ट डिक्शनरी। इनके अनुसार जिस सतह पर या ठीक उसके नीचे परमाणु विस्फोट होता है, उसे ग्राउंड ज़ीरो कहते हैं. जिस जगह से कोई गतिविधि शुरू होती है या जिस जगह पर होती है उसे ग्राउंड ज़ीरो कहते हैं. 2001 में न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड टावर को आतंकवादी हमले में गिरा दिया गया, उसे ग्राउंड ज़ीरो कहा जाता है.

कई बार हमें ख़ुद से पूछना चाहिए कि जिस शब्द का इस्तमाल कर रहे हैं, उसका ठीक ठीक मतलब जानते भी हैं या नहीं. अक्सर हम नहीं जानते हैं. हम का मतलब मीडिया से है. आप तो सब जानते हैं. शब्दों का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि नक्सल हमले के बाद जिन शब्दों का इस्तमाल हो रहा है, उसे ग़ौर से देखिये. सुकमा हमले के बाद किस तथ्य और तर्क के आधार पर कई चैनलों ने नक्सल समस्या के ख़ात्मे का एलान कर दिया है, हैरानी होती है. इसे इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे अंतिम किला या अंतिम गढ़ बाकी रह गया है जो सड़क बनने के बाद ढहने वाला है. क्या सब कुछ इतना आसान है कि पत्रकार एक दिन की ग्राउंड रिपोर्टिंग से ये जान गया है. आप इन बातों की परवाह न भी करें तो भी आपका कोई नुकसान नहीं, क्योंकि इसके बाद भी प्राइवेट स्कूल वाले मनमानी फीस लेते रहेंगे और 800 की जगह 2000 के जूते आपसे ख़रीदवाते रहेंगे. नक्सली हमले के बाद हम चैनलों की दुनिया में फिर से भावुक और जोश से भर देने वाले शब्द लौट आए हैं. जैसे बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, नक्सली हमले का शेर, जांबाज़ शूरवीर, भारत मां का सपूत, शहीदों का परिवार मांगे बदला, कब लेंगे बलिदान का बदला, बदले की तारीख़ बताओ…

हम मीडिया वालों के पास इससे अधिक न तो समझ है और न ही कोई दूसरा तरीका जिससे हम छत्तीसगढ़ की घटनाओं को आप तक पहुंचा सके. अब आपकी भी ट्रेनिंग ऐसी ही हो गई है कि बलिदान, बहादुरी और बदला से आगे समझने का न तो वक्त है न ही दिलचस्पी. भारत में दो शब्दों की दो समस्याएं हैं. दो शब्दों की इन दो समस्याओं के पीछे लाखों की संख्या में सेना और अर्ध सैनिक बल लगे हैं. इनके नाम हैं कश्मीर समस्या और नक्सल समस्या. नक्सल समस्या के कारण क्या हैं, अब क्या नया हो रहा है, कहां से लोग आते हैं, कहां से बंदूक आती है, कहां से इनके पास मिलिट्री ट्रेनिंग है कि सीआरपीएफ के जवानों को घात लगाकर मार देते हैं, बारूदी सुरंग बिछा देते हैं, ये सब किसी को कुछ नहीं मालूम है. कहा गया कि नोटबंदी के कारण आतंकवाद और नक्सलवाद कम हो गया है. यह सारी बातें पब्लिक में चल भी गईं. मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि न तो हम तक यह बात पहुंचती है कि इतने सालों बाद भी नक्सली समस्या क्यों है और न ही यह बात कि इसे दूर करने के लिए क्या नया किया जा रहा है. बंदूक ही समाधान है तो बंदूक को इतना वक्त क्यों लग रहा है. ज़ाहिर है यह सब सुनने समझने के लिए वक्त और धीरज चाहिए जो न हमारे पास है और न आपके पास. इसलिए टीवी स्क्रीन पर इस तरह की पंक्तियां उछल रही हैं कि कब लिया जाएगा बदला, बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा.

11 मार्च को भी यही सब कहा गया था जब सुकमा में ही नक्सलियों ने सीआरपीएफ पर बड़ा हमला किया गया था. दिन के सवा नौ बजे हमला हुआ जब सीआरपीएफ के 112 जवान गश्त पर थे. सड़क ख़ाली करा रहे थे. 100 से अधिक नक्सलियों ने जवानों पर हमला बोल दिया और भारी मात्रा में हथियार लूट लिये. इस हमले में सीआरपीएफ के 12 जवानों की मौत हुई थी. मीडिया ने 11 मार्च के हमले को 2017 का सबसे बड़ा नक्सली हमला बताया था. 11 मार्च को भी मीडिया ने लिखा कि सीआरपीएफ के पास स्थायी मुखिया नहीं है, 24 अप्रैल के हमले के बाद भी मीडिया ने कहा कि सीआरपीएफ का स्थायी मुखिया क्यों नहीं है. यह सवाल तो ठीक है, लेकिन स्थायी मुखिया होने से हमला नहीं होता या स्थिति में सुधार हो जाता, इसकी क्या गारंटी है.

 

इसी सुकमा में सात साल पहले नक्सलियों ने 76 जवानों को मार दिया था. इस बार 25 जवानों को मार दिया है. भावुक शब्दों से अगर इंसाफ मिलता या बदला ले लिया जाता तो ये दो शब्दों की दो समस्याएं समाप्त हो चुकी होतीं. मीडिया तो बलिदान का बदला की तारीख भी पूछ रहा है. तारीख़ पूछने वाले से पूछा जा सकता है कि सब कुछ बलिदान या बदला ही है या नक्सली समस्या से लड़ने की नीति-रणनीति की भी कभी समीक्षा होगी. इतना बदलाव तो आ ही गया है कि अब इन हमलों के बाद किसी से इस्तीफा नहीं मांगा जाता है, किसी की जवाबदेही तय नहीं होती है.

सुकमा हमले के वक्त भी प्रधानमंत्री ने गृहमंत्री से बात की थी, हालात का जायज़ा लिया था और गृहमंत्री सुकमा गए थे. घटना की निंदा की गई थी और तब भी कहा गया था कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. तमाम घटनाओं की रिपोर्टिंग भी स्थायी रूप से नेताओं की प्रतिक्रिया की तरह होती जा रही है. बदला ले लिया जाएगा तो क्या नक्सल समस्या दूर हो जाएगी और बदला 24 अप्रैल की घटना का ही क्यों लिया जाएगा, क्या 11 मार्च को मारे गए 12 जवानों का बदला नहीं लिया जाएगा. उनका क्यों नहीं बदला लिया गया. मैं बस इतना कह रहा हूं कि टीवी और राजनीति ने जो आपको भाषा दी है, उसमें आप फंस गए हैं, आप ही नहीं हम भी फंस गए हैं. ये भ्रम की भाषा है, जिससे सिर्फ धारणा बनती है, सूचना और समीक्षा नहीं होती है. सीआरपीएफ के बहादुर जवानों को सुनिये. फिर सोचिये कैसे तमाम गश्ती, चुस्ती के बाद 300 नक्सली आम आदिवासी जनता को ढाल बनाकर सामने आ गए और हमला कर दिया. वो भी दिन के वक्त.

एक महीने के भीतर यह दूसरी बड़ी चूक है. दूसरा बड़ा हमला है. एक महीने में हमारे 38 जवान शहीद हो गए हैं. क्या हम यह सवाल पूछ सकते हैं कि जो तीन सौ नक्सली काले लिबास में आए थे जिन्होंने भारी मात्रा में हथियारों को लूटा, जवानों को मारा और मीडिया में क्या दिख रहा है, उनके छोड़े हुए कपड़े, पानी की बोतलें और गोलियों के खोखे. ये नक्सली कहां से इतनी बड़ी संख्या में आ गए और इतने जवानों को मार कर ग़ायब हो गए. अब ड्रोन सर्विलांस, उपग्रह से ली जाने वाली तस्वीरों की बात क्यों नहीं हो रही है. हमले के वक्त हमारे जवान सूचना तकनीक से लैस तो होंगे ही, फिर हम क्यों नहीं जान पाते हैं कि जवानों पर हमला करने वाले ये नक्सली इतने सफल कैसे हो जाते हैं. उस पक्ष के बारे में कोई मुकम्मल ख़बर क्यों नहीं होती है. क्या ये आपको भयावह नहीं लगता है, इतने सालों से जवानों पर हमले हो रहे हैं, इतने सालों से हम और आप वही बातें कर रहे हैं.

100 के करीब सीआरपीएफ जवानों पर हमला हुआ है. युद्ध और नक्सल प्रभावित इलाकों में जाने की ट्रेनिंग उन्हें भी होती है. हमले के बारे में अधिकारियों के वर्णन बताते हैं कि नक्सलियों का पलड़ा भारी था. हमले में नक्सली जवानों के पर्स और मोबाइल भी लूट ले गए हैं. उन्हें इतना वक्त कैसे मिला। अधिकारियों के इन बयानों के बाद भी कई बार लगता है कि घटना के बारे में सही-सही अंदाज़ा नहीं मिल रहा है. क्या 100 हथियारबंद जवानों को घेर लेना इतना आसान होता है. 25 जवानों की मौत हुई है. दावा किया जा रहा है कि कुछ नक्सली भी मारे गए हैं, जब वे 300 की संख्या में आए थे तब कुछ ही नक्सली क्यों मारे गए, पर एक बात है, सीआरपीएफ के जवानों ने सड़क निर्माण के काम में लगे 40 लोगों को बचा भी लिया. उनकी बहादुरी का ये पक्ष भी कम शानदार नहीं है.

शहादत बेकार नहीं जाएगी, हर बात इसी पर ख़त्म होती है, इससे शुरू नहीं होती है कि शहादत हुई ही क्यों. ऐसे कैसे हमारे जवानों को कोई घेर कर मार देगा और ग़ायब हो जाएगा. नक्सलियों ने सीआरपीएफ के जवानों से जो लूटपाट की है, उसकी सूची इस प्रकार है- कुल 22 हथियार लूटे गए, 12 एके 47 राइफल (इनमें से पांच पर अंडर बैरल ग्रेनेड लॉन्चर थे), एकेएम – 4, इंसास लाइट मशीनगन- 2, इंसास राइफल- 3, वायरलेस सेट – 5, बाइनॉक्युलर – 2, बुलेट प्रूफ़ जैकेट-22, डीएसएमडी – 1 ( डीप सर्च मेटल डिटेक्टर) , एके 47 – 59 मैगज़ीन, एकेएम – 16 मैगज़ीन, इंसास एलएमजी – 16 मैगज़ीन, इंसास राइफल – 15 मैगज़ीन, गोली-बारूद, एके/ एकेएम – 2820 राउंड, इंसास – 600 राउंड, यूपीजीएल – 62 राउंड.

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा है कि सुकमा की लड़ाई देश की सबसे बड़ी लड़ाई है. समय आ गया है कि एक रणनीति के साथ आगे बढ़ा जाए. क्या एक रणनीति के साथ आगे बढ़ने का समय 25 जवानों की मौत और 7 के घायल होने के बाद ही आया है, अगर सुकमा की लड़ाई देश की सबसे बड़ी लड़ाई है तो उसका समय क्या 25 अप्रैल को आया है. इस तरह की बातों का क्या ये मतलब है कि देश की सबसे बड़ी लड़ाई हम बिना रणनीति के लड़ रहे हैं.

कहना आसान है, जिनके घर में बलिदान की ख़बर पहुंचती है उन पर जो बीतती है उसे हम लच्छेदार शब्दों से क्या बयां करें. चाहते हैं कि आप आवाज़ सुनें. महसूस कीजिए कि जिन्हें हम सिर्फ शहादत बलिदान के फ्रेम में देखते हैं उन्हें घर में पति, भाई, पिता, भतीजा न जाने किस-किस फ्रेम में देखा जाता होगा.

(यह एनडीटीवी पर 25 अप्रैल की शाम प्रसारित हुए रवीश कुमार के प्राइम टाइम का इंट्रो है। साभार प्रकाशित।)