जब मल्लाहों ने ‘निपटान’ रोककर चैनल के लिए ‘बनारसी होली’ के दृश्य रचे !

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पंकज श्रीवास्तव

उन दिनों मैं लुप्त हो चुके चैनल ‘स्टार न्यूज़’ की ओर से उत्तर प्रदेश में तैनात था, लेकिन माइक लेकर पूरे देश में विचरता था। यह 2005 या 2006 की बात है जब बनारस की होली के सजीव प्रसारण के लिए चैनल ने योजना बनाई। दृश्य-माध्यम के लिए होली और बनारस सोने पर सुहागा जैसी बात होती है। ‘टू-कैम’ शूट होना था (दो कैमरे से)। साथ में स्विचर (एक दृश्य को काट कर दूसरे कैमरे से मिल रहे दृश्य को पर्दे पर दिखाने की व्यवस्था) भी। टीवी रिपोर्टर के लिए त्योहार ख़ुद मना पाना लगभग असंभव होता है। उसे लोगों को ‘त्योहार मनाते’ दिखाना होता है। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं थी। होली के एक दिन पहले मैं बनारस में था।

पर लाइव के लिए ज़रूरी था कि सारे दृश्य एक ही जगह हों। उन दिनों ‘ओबी वैन’ (सैटेलाइट के ज़रिये लाइव करने का इंतज़ाम) के नाम पर भारी ट्रक था जिसका बनारस में तेज़ी से हिलना-डुलना संभव नहीं था। लिहाजा अस्सी घाट चुना गया जहाँ पर्याप्त जगह थी। चैनल के तकनीकी विशेषज्ञ अपना सारा हुनर दिखा देना चाहते थे। चैनल के बॉस को इर्द-गिर्द की ‘बाँसुरियों’ने विश्वास दिला दिया था कि होली में हम सबसे अलग करके दिखा देंगे। दर्शकों को आगे रखेंगे।

लेकिन उन्हें पता नहीं था कि बनारस उनके ‘रन-डाउन’ (पर्दे पर कब क्या दिखाया जाएगा, इसका क्रम) के हिसाब से नहीं चलता। मुझे आदेश मिला कि सुबह छह बजे बनारस की मस्ती से खोलेंगे (दिन का पहला बुलेटिन)। पूरा बनारस उमड़ पड़ना चाहिए। मैंने समझाया कि भइया बनारस की मस्ती, होली खेलते विदेशी और साधुओं वाले विज़ुअल मिल जाएँगे, लेकिन सुबह छह बजे कैसे होगा ? बनारस वाले होली खेलते हैं, ड्यूटी थोड़े देते हैं।

लेकिन एसाइन्मेंट की बड़ी बाँसुरी बेसुरी हो उठी। उसने अलापा कि सारे चैनल कल से ही विज़ुअल दिखा रहे हैं और आपको सुबह छह बजे होली के दिन दिक्कत हो रही है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि वे विज़ुअल मैं भी भेज चुका हूँ। दरअसल, एक दिन पहले सारे चैनल पत्रकारों ने कुछ थुलथुल लोगों को पकड़ा था, उनसे भाँग पिसवाई थी। कैमरे का फोकस उनके हिलते-डुलते पेट पर था (चैनलों की नज़र में पेट उछालकर भाँग घोंटना ही बनारसी मस्ती है) कुछ लोगों को गंगा पर बजड़े में गाते-बजाते और रंग उड़ाते शूट किया था। इस पर जो भी ख़र्च आया था उसको पत्रकारों ने पूल कर लिया था। इस तरह चैनलों को एक दिन पहले से होली खिलवाने का इंतज़ाम कर दिया था..लेकिन अब माँग ‘लाइव’ की थी। वरना तकनीकी विशेषज्ञों के साथ टू कैम इंतज़ाम पर हुआ ख़र्च बेकार हो जाता।

‘करना तो है बॉस’—यह धमकी जैसा निवेदन था। मैंने फिर समझाया कि सुबह छह बजे बनारसी पहले ‘दिव्य निपटान’ के बारे में सोचता है। उठते ही होली थोड़े खेलने लगता है। लेकिन नहीं, बार-बार वही रट–कुछ करो..कैसे भी करो…

समस्या यह भी थी यह सारी मस्ती अस्सी घाट में ही दिखनी थी। वरना लाइव ना हो पाता। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

सुबह पाँच बजे घाट पर हम पूरी तरह तैयार थे। लेकिन घाट पर लगभग सन्नाटा। सामने गंगा और नावें। गंगा उस पार से पौ फट रही थी। यानी कैमरे के ‘अपोज़िट लाइट’ का संकट।

समस्या भारी थी। छह बजे इस दृश्य को होली कैसे बताया जाता। बहरहाल, थोड़ी देर बाद मल्लाहों के कुछ लड़के दिखे। उनसे समस्या बताई गई। वे ‘पूर्व निपटान’ की स्थिति में थे। हालाँकि कोई जल्दी नहीं थी। हम लोगों का हाल देख मुस्कराए, जैसे वे पहले भी ऐसी गुत्थियाँ सुलझा चुके हैं। एक समझदार ‘निषादसुत’ ने नेतृत्व करते हुए 800 रुपये में ‘पैकेजडील’ कर ली।

इस तरह छह बजे के पहले सात-आठ लड़के पूरे बदन पर रंग पोत कर खड़े थे। जैसे ही बुलेटिन ओपन हुआ, पीछे से ‘रंग बरसे..’ बजने लगा और कैमरे के सामने बनारसी होलियारों की यह टीम ठुमकने लगी। छह से सात बजे के बीच ऐसा दो-तीन बार हुआ। चैनल ने लाइव दिखाने का संकल्प पूरा कर लिया था। बाँसुरियाँ चाहती थीं कि यह भीड़ बढ़े और पूरा बनारस नज़र आए। मैंने बताया कि अब ये भी नहीं मिलेगा। नाचने वाले बड़ी मुश्किल से रोके हुए हैं…ज़्यादा ज़ोर दिया तो यहीं दिव्य निपटान हो जाएगा।

झगड़े जैसी नौबत आ गई थी। उधर ‘मल्लाह-सुतों’ ने साफ़ कह दिया कि ‘अपना माइक डाल लो अपनी……में..। हमारा पैसा दो, हम चले बहरी अलंग (गंगा उस पार जाकर शौच आदि का कार्यक्रम )’

बतौर रिपोर्टर यह एक लज्जाजनक क्षण था। हम दृश्य पकड़ नहीं रहे थे, उन्हें ‘रच’ रहे थे। मैंने दिल्ली में हुई चैनल की अगली मीटिंग के दौरान भरी सभा में इस अपराध का ब्योरा दिया। बॉस पुराना पत्रकार था। उसने पीड़ा समझी। लेकिन धंधा ज़्यादा समझता था। किसी को कुछ नहीं कहा।

लेकिन बाँसुरियाँ नाराज़ हो गई थीं। उन्होंने मुझे पिंजड़े का तोता बनाने का उद्यम शुरू किया । उन्हें यह जानकारी बिलकुल नहीं थी कि अपनी पूरी ज़िंदगी ही पिंजड़ा तोड़ अभियान को समर्पित है। हम पर कतरे जाने से पहले ही फुर्र हो गए।

लेकिन दस साल बाद का हाल देखकर लगता है कि कौन कहाँ-कहाँ से फुर्र होगा। अब तो टीवी पत्रकारिता पूरी तरह दृश्य ‘रचने’ का ही नाम है।

(लेखक अंबानी के चैनल से बरख़ास्त पत्रकार हैं।)